कविता के फकीर का कारवां

By: Jul 21st, 2018 12:05 am

‘कविता के फकीर’ का भी कारवां गुजर गया। अब भी विश्वास नहीं होता, क्योंकि उन्हें साक्षात देखा था, रूमानियत और शृंगार की भी दार्शनिक कविताएं सुनी थीं, जिंदगी के प्रति एक अजीब-सा जज्बा देखा था। महाकवि गोपाल दास नीरज के संदर्भ में दो संस्मरण कालजयी बने रहेंगे। इन पंक्तियों का लेखक 1974-75 में बीए प्रथम वर्ष का छात्र था। हिंदी एक विशेष विषय था और पाठ्यक्रम के संकलन में नीरज जी का लंबा गीत ‘कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे…’ पढ़ा था। उस समय एक विषय के तौर पर ही गीत समझ पाया था। गीत के भीतर समाया जीवन-दर्शन, सकारात्मक दृष्टिकोण और कभी-कभार जीवन के प्रति निराशा के भावों को गहराई से ग्रहण नहीं कर सका था। बाद में दिल्ली के त्रिनगर में जब ‘सरिता-मुक्ता’ पत्रिकाओं के लिए नीरज जी का साक्षात्कार लेने का मौका मिला, तो कई गांठें खुलीं। नीरज जी ने अपनी कविताओं के भाव-मर्म को सारांश में समझाया। बेशक आज नीरज जी जीवन के 93 वसंत जीने और महसूस करने के बाद हमारे बीच नहीं हैं, उनका पार्थिव कारवां गुजर चुका है, लेकिन हमें लगता है कि नीरज जी का कारवां आगे बढ़ चला है, जो हमारी सीमित दृष्टि से ओझल हो चुका है। कमोबेश नीरज जी हिंदी कविता और खासकर गीत के अंतिम महाकवि माने जाते रहेंगे। कविता की प्रेरणा डा. हरिवंशराय बच्चन से मिली, लेकिन नीरज जी ‘हालावाद’ के चक्रव्यूह में नहीं फंसे। उन्हें छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद काव्य-धाराओं का भी कवि नहीं माना गया। हालांकि उन्होंने प्रेम, रोमांस के गीत सुपरस्टार देवानंद की फिल्मों के लिए भी लिखे और ‘छलिया रे! तेरे रंग में यूं रंगा है, मेरा मन…’ सरीखे गीत रोमांसवादी प्रयोग के उदाहरण माने जा सकते हैं। ‘शर्मिली, ओ मेरी शर्मिली’…‘लिखे जो खत तुझे, वो तेरी याद में…’, ‘दिल आज शायर है’ सरीखे फिल्मी गीत आज भी गुनगुनाए जाते हैं। दरअसल वे गीत साहित्य के भी ‘मील पत्थर’ हैं। कोई भी अंतर नहीं कर सकता कि वे गीत फिल्मी हैं या विशुद्ध साहित्य का हिस्सा हैं। उनके लेखन का यथार्थ ‘मेरा नाम जोकर’ फिल्म के गीत ‘ऐ भाई, जरा देख के चलो, आगे भी, पीछे भी…’ में स्पष्ट है। वाकई जीवन किसी के हाथों की कठपुतली है। नीरज जी ने जीवन को भी एक ‘सरकस’ माना था। भूख, रोटी, तनाव, संत्रास, मोहभंग, शोषण आदि खुरदरे भावों वाली कविताएं उन्होंने फैशन के तौर पर नहीं लिखीं, बल्कि जो भोगा, उसे भी शब्द दिए, लय दी और एक गीत बुन दिया। शायद मौजूदा पीढ़ी ने नीरज जी को ‘मंचीय कवि’ के रूप में देखा-सुना है, लेकिन उस रचनात्मक, गीतात्मक विरासत को सहेजकर रखने की जरूरत है। सवाल है कि ‘कारवां गुजर गया…’ जैसे गीत लिखने वाले कवि और वैसी संवेदनाओं वाले प्राणी अब कहां हैं? नीरज जी ने यह गीत ‘नई उमर की नई फसल’ फिल्म के लिए लिखा था। यह उनका पहला फिल्मी गीत था, जिसके जरिए वह फिल्मी दुनिया में प्रवेश कर सके। गीत विशुद्ध हिंदी में लिखा गया था, लेकिन बीते कई दशकों से वह हिंदी कविता की ‘कालजयी धरोहर’ है। यूं कहें कि यदि नीरज जी की शख्सियत को परिभाषित करना है, तो यह अकेला गीत ही पर्याप्त है। मुंह में बीड़ी और बिखरे बालों की छवि वाले नीरज जी ने तमाम वाद-विवादों और अवरोधों के बावजूद हिंदी कविता का दामन नहीं छोड़ा और हमेशा बेहतर कविता के पैरोकार बने रहे। जीवन के स्वाभाविक संघर्ष उन्होंने भी देखे, झेले और उनसे लड़कर अपनी राह बनाते हुए चले। यही जीवन और कविता का कारवां था, नीरज जी के लिए। नीरज जी टाइपिस्ट रहे, छोटी-छोटी जगह काम करना पड़ा, लेकिन पढ़ाई जारी रखी और हिंदी साहित्य में एमए की डिग्री तक ली, लिहाजा मेरठ कालेज में प्राध्यापक भी हो गए, लेकिन अधिकतर जीवन फक्कड़ों और फकीरों की तरह जिया। दिलचस्प तथ्य है कि कानपुर के डीएवी कालेज में अध्ययन के दौरान अटलबिहारी वाजपेयी नीरज जी के सहपाठी रहे। यहीं से कविता की संवेदना जगी और साथ-साथ लिखने लगे। यहां तक कि बाद में कविता के मंच भी साझा किए। नीरज जी ने पूर्व प्रधानमंत्री पर कविता के जरिए अपने भाव भी बयां किए-‘अटल, अटल ही रहे लेकर दृढ़विश्वास…।’ बहरहाल नीरज जी को श्रद्धांजलि उन्हीं के गीत के शब्दों के जरिए… नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई, पांव जब तलक उठे कि जिंदगी फिसल गई, पात-पात झर गए कि शाख-शाख जल गई, चह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई।

 


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