जीरो बजट खेती के लिए समग्र संसाधन प्रबंधन

By: Jul 12th, 2018 12:05 am

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालयन नीति अभियान

इस तरह पशुपालन, भेड़-बकरी पालन, दस्तकारी और वन उत्पादों से होने वाली अन्य आय को मिलाकर पहाड़ी खेती एक इकाई के रूप में प्रस्थापित होती है। इसमें हर गतिविधि एक-दूसरे पर अन्योन्याश्रित संबंध रखती है। अतः ऐसी समग्र योजना बने, जिसमें इन सभी गतिविधियों का साथ-साथ संवर्धन हो…

भारतीय कृषि जिस संकट के दौर से गुजर रही है, उसमें जीरो बजट खेती एक अपरिहार्य संभावना बन गई है। इसके अतिरिक्त कोई चारा दिखाई नहीं दे रहा है। इसलिए इस कृषि पद्धति को गंभीरता से लेना समय की जरूरत है। हिमाचल प्रदेश का सौभाग्य है कि ऐसी पहल माननीय राज्यपाल महोदय के मार्गदर्शन में हो रही है। अनुभव के साथ-साथ कृषि-बागबानी विश्वविद्यालयों में इस पद्धति के लिए वैज्ञानिक आधार की समझ विकसित करने का कार्य भी हो रहा है। हिमाचल प्रदेश में कृषि का अर्थ केवल कृषि न होकर बागबानी, पशुपालन और वन प्रबंधन उसमें ही शामिल माना जाता है। लगभग सभी पर्वतीय क्षेत्रों की यही स्थिति होती है, क्योंकि पर्वतीय क्षेत्रों में कृषि पर आधारित आबादी ज्यादा है और जोतें छोटी-छोटी हैं। इसलिए जीरो बजट खेती के लिए जरूरी पशु उत्पाद गोमूत्र, गोबर और मल्चिंग के लिए पत्ते आदि के लिए वनों पर निर्भर रहना पड़ता है। पशु को धन कहा जाता है। यानी वह खेती से होने वाली आय में एक महत्त्वपूर्ण अतिरिक्त आय जोड़ने वाला सहयोगी व्यवसाय है। यदि वन, कृषि और पशुपालन के अनुकूल होंगे, तो कृषि भी सफल और फलदायी होगी। वनों से किसान दस्तकारी के लिए कच्चा माल प्राप्त करता है, जैसे-ऊन या पत्तल बनाने के लिए टौर के पत्ते आदि। भेड़-बकरी पालन के अनुकूल कांटेदार झाडि़यों वाले मिश्रित वन किसान को एक अन्य लाभकारी व्यवसाय के साधन उपलब्ध करवाते हैं।

साथ ही ऐसे मिश्रित वन स्थानीय स्तर पर छोटे-छोटे जल स्रोतों को संरक्षित करके कृषि के लिए लघु सिंचाई और पेयजल आपूर्ति में सहायक होते हैं। इस तरह पशुपालन, भेड़-बकरी पालन, दस्तकारी और वन उत्पादों से होने वाली अन्य आय को मिलाकर पहाड़ी खेती एक इकाई के रूप में प्रस्थापित होती है। इसमें हर गतिविधि एक-दूसरे पर अन्योन्याश्रित संबंध रखती है। अतः ऐसी समग्र योजना बने, जिसमें इन सभी गतिविधियों का साथ-साथ संवर्धन हो, तो स्थायी सफलता हासिल हो सकती है। इसके लिए कुछ सुझाव निम्न प्रकार हो सकते हैं :

1. जीरो बजट खेती के लिए चिन्हित क्षेत्रों के लिए जलागम आधार पर विकास योजना बनाई जाए, जिसमें जलागम को इस तरह विकसित किया जाए कि जीरो बजट खेती के लिए सभी जरूरी पदार्थ जलागम के भीतर ही उपलब्ध हो जाएं।

2. जलागम में वन और अन्य भूमियों को मिश्रित वनस्पतियों से भरने का काम किया जाए। फल, चारा, ईंधन, खाद, दस्तकारी के लिए कच्चा माल और दवाई देने वाली वनस्पतियों का रोपण किया जाए।

3. चरागाहों से खरपतवार हटाकर उसमें उन्नत घास रोपण हो। सिल्विपेस्टोरल आधार पर वृक्षारोपण हो। इससे पशुपालन के लिए सस्ता चारा उपलब्ध होगा जिससे पशुपालन आसान होगा और लाभकारी भी बनेगा। बेसहारा पशुओं की समस्या पर भी कुछ हद तक लगाम लगाने में मदद मिलेगी।

4. जल संरक्षण के लिए पहाड़ी क्षेत्रों में परखी जा चुकी तकनीकों का प्रयोग करके विशेष प्रयास हों। उत्तराखंड के दूधातोली प्रयास से सीख ली जा सकती है।

5. कृषि व बागबानी विभाग के क्षेत्रीय कर्मचारियों को जीरो बजट खेती का विशेष प्रशिक्षण दिया जाए। प्रदर्शन क्षेत्रों का निर्माण हो, जहां किसान देखकर नई कृषि पद्धति की बारीकियां समझ सकें। हर कोई देखकर ही सीखता है, किसान भी देखकर सीख सकता है।

6. पशुपालन विभाग में देशी बढि़या नस्लों के द्वारा नस्ल सुधार कार्य को नई दिशा दी जाए। साहिवाल, सिंधी, थारपारकर आदि पहाड़ के लिए उपयुक्त नस्लों के वीर्य की कृत्रिम गर्भाधान के लिए व्यवस्था की जाए। यूरोपीय नस्लों को हतोत्साहित किया जाए। इन नस्लों के गुण-सूत्र में भिन्नता के कारण इनके दूध में हिस्टीडीन नामक एमिनो एसिड पाया जाता है, जो पाचन क्रिया के दौरान बीटाकेथोमॉर्फिन में बदल जाता है, जिसका स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए आस्ट्रेलिया जैसे देशों ने भारतीय नस्लों की डेयरियां बना ली हैं और उनका दूध दोगुनी कीमत पर बिकता है। देशी नस्लों के गोबर और मूत्र में भी यूरोपीय नस्लों से 50 गुणा अधिक जीवाणुओं की मात्रा पाई जाती है। इसलिए जैविक खेती के लिए देशी नस्लों का गोबर और मूत्र अधिक उपयोगी माना जाता है।

7. इन कार्यों के लिए उपलब्ध विभागीय बजट में मनरेगा का बजट प्रयोग करके बहुत से कार्य किए जा सकते हैं।

8. जलागम विकास योजना निर्माण एवं जागरूकता आदि कुछ कार्य स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से भी किए जा सकते हैं, किंतु इस बात का खास ध्यान रखना होगा कि योजना संपूर्ण जलागम की बने और पूरे जलागम को इकाई मानकर लागू हो। पूर्व में जलागम योजनाओं के क्रियान्वयन में यह कमी रही है कि वन भूमियों को कुछ तकनीकी कारणों से जलागम विकास योजना का भाग ही नहीं बनाया गया है। वनरोपण के लक्ष्य निजी भूमियों में वृक्षारोपण करके पूरा करने का प्रयास किया गया है। वनभूमि के समुचित उपचार के बगैर, जलागम विकास का अर्थ ही अधूरा रह जाता है। अतः हमें जीरो बजट खेती के लिए संसाधनों का समग्रता से प्रबंध करना होगा।


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