तकनीकी-सृजनात्मक निपुणता की जरूरत

By: Jul 6th, 2018 12:10 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

भविष्य में नई तकनीकों की हमें जरूरत होगी। मिसाल के तौर पर बादल, डिजीटल वर्ल्ड, कार्य को करने तथा सफलता तलाशने के रास्तों का सृजन तथा कार्यात्मक सृजनशीलता को कोर्स में ज्यादा से ज्यादा पढ़ाने की जरूरत होगी। एक अन्य चुनौतीपूर्ण मसले की ओर ध्यान देने की भी जरूरत है। यह मसला है कि सरकार शिक्षकों की उच्च गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए अच्छे अध्यापन के मापदंड विकसित व कार्यान्वित करे। मेरे दृष्टिकोण के मुताबिक छात्रों को ज्ञान व अनुभव के ट्रांसफार्मेशन में बहुत ही महत्त्वपूर्ण व निर्णायक संपर्क शिक्षक है…

स्टीव जॉब्स ने कहा है कि कोई महान काम करने का एकमात्र तरीका है कि जो आप करते हैं, उससे प्यार करें। दिल के सभी मामलों की तरह जब आप पा लेंगे, तो पता चल जाएगा। वर्तमान परिदृश्य, जबकि लगभग 200 तकनीकी संस्थान बंद कर दिए गए हैं तथा रोजगार मार्केट को अभी भी विकास करना है, भविष्य में इस स्थिति में बदलाव आएगा, जब देश सात फीसदी की विकास दर हासिल कर लेगा। ऐसी स्थिति में विशेषज्ञता वाली निपुणता की मांग ज्यादा से ज्यादा बढ़ेगी। भारत सबसे बड़ी अर्थ व्यवस्था वाले टॉप समूह में शामिल होने जा रहा है तथा उसे पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा तथा ताप बिजली जैसे ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों के विकास पर ज्यादा ध्यान देना होगा। तभी हम चीन से स्पर्धा कर पाएंगे जो कि विश्व की सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था हो जाएगी। नए क्षेत्रों में तकनीकी कौशल की जरूरत होगी तथा ज्यादा अनुसंधान उस कौशल को अभिव्यक्त करेगा जिसे भविष्य की चुनौती से निपटने के लिए विकसित करना होगा। वर्तमान में हमारे पास 642 विश्वविद्यालय तथा एआईसीटीई से मान्यता प्राप्त 6214 संस्थान हैं। इसके अलावा 11356 स्टैंड एलोन संस्थान भी हैं। कुल मिलाकर शिक्षा प्रणाली में 2 से 5 मिलियन छात्र हैं जिनमें से 1.5 मिलियन छात्र हर साल काम के लिए उपलब्ध होंगे। छात्र एक संकाय से दूसरे संकाय में तबदील होते रहे हैं, जैसे कि इंजीनियरिंग के बहुत से छात्र पूर्णकालिक प्रबंधन डिग्री की ओर जाते रहे हैं। कुछ छात्र विविध विशेषीकृत कोर्स का अनुसरण करते हैं। चार बड़े मसले हैं जिन्हें मैं इस लेख में संबोधित करना चाहूंगा। पहला मिथ यह है कि तकनीकी स्कूलों के 97 फीसदी गे्रजुएट रोजगार के योग्य नहीं हैं।

ज्यादातर इंजीनियरिंग गे्रजुएट ग्राहक संपर्क कौशल तथा अनुभव में कमजोर माने गए हैं। अनुभवजन्य अध्ययन में यह सत्याभास नहीं देता है कि रोजगार के अयोग्य छात्रों की प्रतिशतता इतनी ऊंची है। प्रश्न यह है कि किसे रोजगार के अयोग्य माना जाता है? कई बार कम वेतन वाला रोजगार भी रोजगार नहीं माना जाता है। शहरी संगठन तथा जॉब्स ऐसे हैं जिन्हें ज्यादा व्यावहारिक निपुणता तथा उस पर्यावरण से अंतरंगता की जरूरत है जिसमें वे काम करते हैं। उदाहरण के तौर पर यहां तक कि हमारे अनुभव में गैर मेट्रो सिटी संस्थान 70 फीसदी कैंपस प्लेसमेंट के योग्य हैं, जबकि कुछ अन्य उद्यमशीलता उपक्रमों में संलग्न हैं। बढ़ती मांग में ठहराव रहा है, लेकिन यदि अच्छा उत्पाद उपलब्ध है तो इसे रास्ता मिल जाता है। मैं चाहता हूं कि रोजगार दाता क्या जरूरत रखते हैं, इस पर बड़े स्तर का अध्ययन होना चाहिए।   विविध रोजगार दाताओं की विभिन्न जरूरतें होती हैं तथा सभी को केवल आईआईएम ग्रेजुएट्स की जरूरत नहीं है। एक बड़े देश के पास निपुणता के कई स्तर व कौशल जरूरतें होती हैं। यह स्थिति हमें यह विचार करने की ओर ले जाती है कि हम क्या पढ़ाते हैं तथा क्या पढ़ाने की जरूरत है। अध्यापन की सामग्री बहुत महत्त्वपूर्ण है तथा अधिकतर विश्वविद्यालय इन्हें ‘इन हाउस विद शेयरिंग एक्सपीरियंस’ में विकसित करते हैं। चूंकि विश्व ज्यादा से ज्यादा वैश्वीकरण की ओर जा रहा है, हमें आर्थिक, वैज्ञानिक व प्रौद्योगिकी क्षेत्रों में भावी विकास से रूबरू होने के लिए पाठ्यक्रम विकसित करना होगा।

एक मिसाल है क्रास कल्चर मैनेजमेंट। जब मैंने इसे दिल्ली में फोर स्कूल आफ मैनेजमेंट में लागू किया तो यहां तक कि मुंबई के टॉप स्कूल ने ऐसा करने में रुचि दिखाई क्योंकि उसने इसे अच्छा पाया। हालांकि उसने मुझे बताया कि सीनेट व अन्य औपचारिकताएं पूरी करने में अभी काफी वक्त लगेगा। मुझे यह जानकर खुशी हुई कि अपटैक ने अपने स्तर पर इसे लागू किया तथा मेरी किताब को पाठ्य पुस्तक के रूप में निर्धारित किया। बदलती वैश्विक जरूरतों के प्रति हमें यथासमय प्रतिक्रिया देनी होगी। भविष्य में नई तकनीकों की हमें जरूरत होगी। मिसाल के तौर पर बादल, डिजीटल वर्ल्ड, कार्य को करने तथा सफलता तलाशने के रास्तों का सृजन तथा कार्यात्मक सृजनशीलता को कोर्स में ज्यादा से ज्यादा पढ़ाने की जरूरत होगी। एक अन्य चुनौतीपूर्ण मसले की ओर ध्यान देने की भी जरूरत है। यह मसला है कि सरकार शिक्षकों की उच्च गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए अच्छे अध्यापन के मापदंड विकसित व कार्यान्वित करे। मेरे दृष्टिकोण के मुताबिक छात्रों को ज्ञान व अनुभव के ट्रांसफार्मेशन में बहुत ही महत्त्वपूर्ण व निर्णायक संपर्क शिक्षक है। वास्तव में सीखने के प्रति गुरु-शिष्य समर्पण शिक्षा में सफलता की कुंजी है। हमने गुरु-शिष्य समूह में अनुसंधान किए, किंतु छात्रों पर वैयक्तिक ध्यान के चरण तक हम नहीं पहुंच पाए। यह बात मुझे एक अन्य मसले, तकनीकी क्षेत्र में शिक्षकों की उपलब्धतता की ओर ले जाती है। आज हमारे विश्वविद्यालयों में केवल 60 फीसदी शैक्षणिक स्टाफ ही उपलब्ध है। कई केंद्रीय विश्वविद्यालयों में तो यह दर केवल 17 फीसदी है। वर्तमान में शिक्षक-छात्र अनुपात ठीक नहीं है। मुझे इस बात का आश्चर्य है कि शिक्षकों की अपेक्षा ज्यादा ध्यान संरचनात्मक ढांचे पर दिया जा रहा है। वास्तव में कई शैक्षणिक संस्थानों के पास बहुत सारी जमीन व्यर्थ पड़ी है। एक मेट्रो सिटी में एक बिजनेस स्कूल को 260 एकड़ जमीन उपलब्ध करवा दी गई। शिक्षक की अपेक्षा जमीन मुख्य मसला बना हुआ है।

चौथा मसला यह चिंता है कि हम अनुसंधान व व्यावहारिक काम को विकसित करने में विफल रहे हैं। परंपरागत भाव में विश्वविद्यालय प्रणाली दिमाग के खाली बरतनों को ज्ञान से भर रही है, किंतु मेरा विचार है कि छात्रों को ज्ञान पाने के लिए सूचना प्रक्रिया मात्र बना देना ठीक नहीं है। उन्हें काम करके सीखना चाहिए या अनुभव के जरिए सीखना बेहतर रहेगा। फोर स्कूल में मैंने पहली बार योग की शुरुआत करवाई। उस समय एमबीए में इसे लागू करने का सरकार के पास कोई विचार नहीं था। दूसरा नवाचार था स्वाध्याय चक्र, जिसमें छात्रों के लिए पहले कोई टॉपिक चुना जाता था। फिर वे कारपोरेट्स के पास सीखने के लिए बाहर जाते थे। इसके बाद वे प्रेजेंटेशन की रिपोर्टिंग करते थे। इसके जरिए पहल करने, नवाचार में तनाव तथा टीम वर्क के बारे में सीखा जा सकता है। नए उद्यम व उत्पाद को विकसित करने के लिए हमें ज्यादा अनुसंधान तथा सृजनशील वर्कशाप्स की जरूरत है। नवाचार सीखने के लिए ठोस अनुसंधान परियोजनाओं की जरूरत है तथा बौद्धिक विकास के लिए नए प्रासंगिक तरीके अपनाने होंगे।

 ई-मेल : singhnk7@gmail.com


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