ताजमहल सहेजो या ढहा दो

By: Jul 14th, 2018 12:05 am

यह दौर सियासत का है। सियासत उछल-कूद कर रही है, हिंदू-मुसलमान के रंग में रंगी है। सियासत ऐसी है कि दुनिया के आठ आश्चर्यों में शामिल ताजमहल को भी शिकार बना लिया गया है। ताजमहल पर किस पार्टी को कितने वोट मिलेंगे, यह दावा नहीं किया जा सकता, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय को कहना पड़ा है-‘ताजमहल को सहेज नहीं सकते, तो उसे ढहा दो।’ शीर्ष अदालत की यह बेहद कठोर और व्यथित टिप्पणी है। बेशक प्रत्यक्ष तौर पर इसमें सियासत घुली नहीं है, लेकिन ताजमहल के संरक्षण के प्रति लापरवाही बरती गई है, लिहाजा सुप्रीम कोर्ट को ऐसी टिप्पणी करनी पड़ी है। बेशक ताजमहल का निर्माण मुगल बादशाह शाहजहां ने अपनी मल्लिका मुमताज की याद में कराया था, लेकिन न तो यह मुस्लिमवादी इमारत है और न ही हिंदू-विरोध का महल है, बल्कि अंतरंग मानवीय रिश्तों और प्रेम के प्रतीक की निशानी है। यदि शीर्ष अदालत को इतनी फटकारनुमा टिप्पणी करनी पड़ी है, तो जाहिर है कि प्रेम की वह धरोहर वक्त के साथ बर्बाद की जा रही है, वह स्थूल हो रही है, प्रदूषण के काले साए उस पर मंडरा रहे हैं, लिहाजा सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा है कि बेहतर होगा ताजमहल को ढहा ही दिया जाए। टिप्पणी के निशाने पर केंद्र सरकार, उप्र सरकार और भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण हैं। उन्हें शीर्ष अदालत में हल्फनामा देकर जवाब देना होगा। सरकारें गूंगी-बहरी बनकर नहीं रह सकतीं। ताजमहल कोई सामान्य इमारत नहीं है। वह भवन-निर्माण, नक्काशी, वास्तु-कला और अन्य कारीगरियों की धरोहर है। वह भारत की ही नहीं, विश्व भर की सांस्कृतिक धरोहर है। विश्व के बड़े-बड़े नेता भारत प्रवास के दौरान अपने जीवन-साथी के संग ताजमहल का दीदार करने आते हैं और अपने प्रेम-संबंधों को नया रोमांस देने की कोशिश करते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के एक अभियान के तहत ताजमहल को ‘अंतरराष्ट्रीय धरोहर’ की सूची में रखा गया है। यदि नाला बन चुकी यमुना नदी में पनपे एक खास किस्म के कीड़े के दुष्प्रभावों से ताजमहल की संगमरमरी इमारत पर हरे-पीले धब्बे पड़ रहे हैं और उसका सौंदर्य कुरूप हो रहा है, तो वाकई यह अंतरराष्ट्रीय सरोकार का मुद्दा है। सर्वोच्च न्यायालय कैसे खामोश और आंखें मूंदे बैठा रह सकता है? ताजमहल सरकारी आमदनी का भी एक ठोस स्रोत है। बीते तीन सालों के दौरान सिर्फ पर्यटकों को टिकट बेचकर ही करीब 68 करोड़ रुपए की आमदनी हुई है। वैसे भी औसतन सालाना आय करीब 26 करोड़ रुपए रही है, जबकि खर्च 10-12 करोड़ रुपए के आसपास का है। फिलहाल पर्यटकों की संख्या करीब 50 लाख बताई जाती है। फ्रांस के एफिल टावर के औसतन 8 करोड़ पर्यटकों की तुलना में ताजमहल देखने वालों की संख्या बेहद कम है, लेकिन सवाल यह है कि क्या दीदार करने वाली संख्या और सरकारी आमदनी पर भी ढक्कन लगा दिया जाए? इधर ताजमहल सियासी उपेक्षा और सोच का भी शिकार होता रहा है। कोई इसके भीतर शिव-मंदिर होने की दलीलें देता है, तो कोई वहां नमाज पढ़ना चाहता है। प्रदूषण ताजमहल को बदसूरत करता रहा है। यह दीगर है कि प्रशासन ने उस क्षेत्र में नए उद्योगों की स्थापना को निषेध कर रखा है, लेकिन संगमरमर की इस अतुल्य इमारत के भीतर काला अंधेरा, घटाटोप और मकड़जाल भी हैं। ये सौंदर्य पर काले धब्बों के समान हैं। जाहिर है कि ताजमहल का संरक्षण ठीक ढंग से नहीं हो पा रहा है, उसे सहेज कर रखने में भी राजनीति है। यदि ताजमहल को ढहाने की बात सुप्रीम कोर्ट ने की है, तो कुतुबमीनार, लालकिला, पुराना किला, हुमांयु का मकबरा, हैदराबाद का चारमीनार, अजमेर की दरगाह बगैरह भी ऐतिहासिक प्राचीन धरोहरें हैं। उन्हें भी ध्वस्त कर देना चाहिए, क्योंकि वे भवन भी मुगल शासकों ने बनवाए थे। देश का संसद भवन भी कमोबेश भारत सरकार ने नहीं, अंग्रेजों ने बनवाया था। धरोहरें नाम और संप्रदाय की नहीं होतीं, बल्कि राष्ट्र की होती हैं और विश्वविख्यात होती हैं। सरकारों को शीर्ष अदालत की सख्त टिप्पणी से कुछ शर्मिंदगी महसूस करनी चाहिए और सबक भी सीखना चाहिए। अलबत्ता ताजमहल के बिना ऐसा प्रतीत होगा, मानो कोई उजड़ी, सूनी मांग…।


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