पत्रकारिता में संयम और प्रशिक्षण जरूरी

By: Jul 19th, 2018 12:10 am

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

मीडिया एक जिम्मेदार संस्था है, उसके बावजूद पेड न्यूज, फेक न्यूज, पत्रकारों और उपसंपादकों का अधूरा ज्ञान, अधिकांश मीडिया घरानों में प्रशिक्षण का नितांत अभाव, स्ट्रिंगर प्रथा आदि ऐसी कई बीमारियां हैं, जिनके कारण मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल उठ रहे हैं। दारुल-कजा के मामले में टीवी एंकरों की भूमिका विशेष रूप से सवालों के घेरे में है, जिन्होंने शरिया अदालत खुलने की खबर पढ़ते ही उस पर अपनी जानकारी बढ़ाए बिना, कोई शोध किए बिना, बहस शुरू कर दी और माहौल खराब कर दिया…

बहुत पहले व्हाट्सऐप पर एक संदेश आया था जिसमें कहा गया था कि यदि आप व्हाट्सऐप के अलग-अलग समूहों के सदस्य हैं या रोजाना अखबार पढ़ते हैं या टीवी पर होने वाली बहसों को देखते हैं, तो आप जान जाएंगे कि सारे देश में आग लगी हुई है। मुसलमान लोग हिंदू लड़कियों को भ्रष्ट कर रहे हैं, आदिवासियों तथा अन्य गरीब हिंदुओं का धर्म परिवर्तन करवा रहे हैं, गाय की तस्करी कर रहे हैं, सवर्णों और दलितों के बीच विरोध इतना बढ़ गया है कि अब दोनों का इकट्ठे रहना मुश्किल हो गया है और अगर आप चार दिन के लिए ‘ज्ञान बांटने वाले’ इन माध्यमों से दूर हो जाएं और अपने आसपास की दुनिया पर नजर दौड़ाएं, तो आपको लगेगा कि सब कुछ ठीक-ठाक है। विरोध हैं, मतभेद हैं, कमियां हैं, लेकिन कहीं आग नहीं लगी हुई। व्हाट्सऐप पर संदेश आता है कि शहर में एक गिरोह सक्रिय है, जो छोटे बच्चों का अपहरण करके बाद में उनसे गलत काम करवाता है और प्रतिक्रियास्वरूप कई लोगों की जान चली जाती है। भीड़ उन अनजाने लोगों को मार डालती है, जिनका इस अपराध से या इस खबर से कोई लेना-देना भी नहीं है। व्हाट्सऐप सोशल मीडिया का हिस्सा है। यह एक सामाजिक माध्यम है, जिस पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं है। लोग सच्ची-झूठी खबरें भेजते रहते हैं और अकसर उनके प्रभाव में दो या अधिक खेमों में बंट जाते हैं। हम एक-दूसरे के सामने खड़े हो जाते हैं। दंगे फैल जाते हैं या कोई भीड़ किसी की जान लेने पर उतारू हो जाती है। इतना कुछ न भी हो, तो भी समाज में तनाव की स्थिति आ जाती है या एक-दूसरे के प्रति गलतफहमियां पैदा हो जाती हैं।

फेसबुक और व्हाट्सऐप तो अनियंत्रित माध्यम हैं, वहां नौसिखिए लोगों और अति उत्साही लोगों की कमी नहीं है, जो किसी घटना या खबर की गहराई तक नहीं जा सकते या उन्हें उसकी गंभीरता का अंदाजा नहीं होता। अखबार, टीवी और न्यूज पोर्टल तो ऐसे माध्यम हैं, जहां संपादन की सुविधा है। इन माध्यमों से जुड़े लोगों से अपेक्षा होती है कि वे जांच-परख कर खबर देंगे और उसकी भाषा संयमित होगी। समस्या यह है कि लोकप्रियता की दौड़ में शामिल मीडिया अब संयम और शील का नहीं, सनसनी और स्पीड का दीवाना है। देश के हर जिले में शरिया अदालतों के गठन की खबर इसका ताजातरीन उदाहरण है। सच्चाई यह है कि जिसे शरिया अदालत कहा जा रहा है, वह किसी भी तरह की ‘अदालत’ नहीं है। आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इसे ‘दारुल-कजा’ कहता है, जो सुन्नी मुसलमानों की ऐसी संस्था है, जो मुसलमानों के पारिवारिक मामलों को आपसी रजामंदी से सुलझाने की कोशिश करती है। जिन दो या अधिक पक्षकारों में आपसी विवाद हो और वे सब दारुल-कजा में मामला ले जाने पर सहमत हों, दारुल कजा तभी उसमें दखल देती है। दारुल-कजा किसी न्यायिक प्रणाली का हिस्सा नहीं है, न ही इसका फैसला किसी पर बाध्यकारी है। यदि दारुल-कजा का फैसला किसी एक पक्ष को पसंद न आए, तो वह अदालत में जा सकता है।

घटना यूं है कि आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की दारुल-कजा कमेटी के आयोजक काजी तबरेज आलम दारुल कजा के कामकाज की समीक्षा करने के लिए रामपुर में थे। उस समय वहां कुछ स्थानीय लोग और दो-तीन पत्रकार भी मौजूद थ। तब एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक के पत्रकार ने उनसे पूछा कि उत्तर प्रदेश में सिर्फ 17 ही दारुल-कजा क्यों हैं और क्या ये सभी जगह नहीं खुलने चाहिएं? इस पर काजी तबरेज आलम ने कहा कि अगर लोग चाहेंगे, तो ऐसा संभव हो सकता है। हर जिले में दारुल-कजा खोलना तो उनके एजेंडे में भी नहीं था, लेकिन खबर पहले पन्ने पर छपी और उसका शीर्षक था- ‘हर जिले में खुलेगी शरिया अदालत’। इसके बाद दिल्ली में हर टीवी चैनल पर बहस होने लगी और यह एक मुद्दा बन गया, जो असल में कभी था ही नहीं। बहुत बार ऐसा होता है कि मीडिया में किसी बयान का अधूरा हिस्सा दिखाया या प्रकाशित किया जाता है, जिससे गलतफहमियां हो जाती हैं, सनसनी फैल जाती है और तनाव बढ़ जाता है। इसमें कोई शक नहीं है कि यदि हिंदू, मुस्लिम, मंदिर, मस्जिद, दलित, सवर्ण, पाकिस्तान जैसे शब्दों का इस्तेमाल संयम से किया जाए, तो हमारे समाज की बहुत सी समस्याएं बिना कुछ किए ही हल हो जाएंगी। मीडिया एक जिम्मेदार संस्था है, उसके बावजूद पेड न्यूज, फेक न्यूज, पत्रकारों और उपसंपादकों का अधूरा ज्ञान, अधिकांश मीडिया घरानों में प्रशिक्षण का नितांत अभाव, स्ट्रिंगर प्रथा आदि ऐसी कई बीमारियां हैं, जिनके कारण मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल उठ रहे हैं। दारुल-कजा के मामले में टीवी एंकरों की भूमिका विशेष रूप से सवालों के घेरे में है, जिन्होंने शरिया अदालत खुलने की खबर पढ़ते ही उस पर अपनी जानकारी बढ़ाए बिना, कोई शोध किए बिना, बहस शुरू कर दी और माहौल खराब कर दिया। उन्होंने यह समझने की कोशिश ही नहीं की कि दारुल-कजा कैसे काम करता है, क्या काम करता है और इनकी संख्या बढ़ जाने से भारतीय समाज पर क्या असर पड़ेगा। दारुल-कजा दरअसल विवाद सुलझाने का एक वैकल्पिक मंच मात्र है। हमारी अदालतों में चार करोड़ केस लंबित हैं और हमारी न्याय व्यवस्था बहुत महंगी होने के साथ-साथ बहुत धीमी भी है। दारुल-कजा में आने वाले ज्यादातर मामले पारिवारिक झगड़ों से संबंधित होते हैं, जिनमें से बहुत से वहीं निपट जाते हैं, लेकिन इन्हें ‘शरिया अदालत’ का नाम देकर मामले को बेवजह सनसनीखेज बना दिया गया।

हाल के कुछ वर्षों में धार्मिक संकीर्णता और भी बढ़ी है। इसमें किसी एक संगठन या राजनीतिक दल का हाथ नहीं है। सभी राजनीतिक दल और बहुत से धार्मिक संगठन इसमें शामिल हैं। उत्तेजना और डर के इस माहौल में कोई भी छोटी सी घटना चिंगारी का रूप धारण कर सकती है। राजनीतिक दलों के लिए सत्ता में आना या सत्ता में बने रहने का लक्ष्य होता है और इसके लिए बहुत से दल किसी भी हद तक गिर जाते हैं। राष्ट्रीय दल भी इसका अपवाद नहीं हैं। समस्या यह है कि लोकप्रियता के चक्कर में मीडिया भी गैर-जिम्मेदार होता जा रहा है। प्रशिक्षण और संयम के अभाव में ऐसा हो रहा है। यह मीडिया घरानों के आत्मचिंतन का समय है। मीडियाकर्मियों को देखना है कि वे अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए क्या कर सकते हैं। मीडिया मालिकों, संपादकों, उपसंपादकों और पत्रकारों, सब को मिलकर ऐसी योजना पर काम करना होगा, जिससे जल्दबाजी की इस बीमारी से छुटकारा मिल सके, वरना उन्हें अप्रासंगिक होते देर नहीं लगेगी।

ईमेलः indiatotal.features@gmail.com


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App