पूर्ण सद्गुरु के चरणों में

By: Jul 14th, 2018 12:05 am

बाबा हरदेव

हम अकसर त्याग और भोग को उल्टा समझते हैं कि त्याग और भोग आपस में दुश्मन हैं, मगर उपनिषदों का एक बड़ा रहस्यपूर्ण र् और बड़ा ही अपूर्व वचन है-‘तथेन त्यक्तेन भुजीथः’- जिन्होंने छोड़ा उन्होंने भोगा, जिसने त्याग किया उसने पाया यानी त्याग ही भोग है या त्याग में ही भोग है। अब उपनिषद् कौन से भोग की ओर इशारा कर रहे हैं? असल में यह प्रेम में जो त्याग घटता है, उसमें जो परम भोग है, परम रस है, आनंद है, उसकी तरफ संकेत है। अब प्रेम का मार्ग तो बस सर देने का मार्ग है। यह मार्ग तो अपने आप को खोने का ही मार्ग है। पूर्ण सद्गुरु के चरणों में पूर्ण समर्पण के चरणों में पूर्ण समर्पण का मार्ग है। अब अपने आप को पूर्ण सद्गुरु के चरणों में समर्पित करना और शीश देन का पहला अर्थ तो यह है कि अपने अहंकार को झुका देना, क्योंकि अगर असली प्रेम हो तो अहंकार नहीं होता, वहां अहंकार झुक जाता है।

दूसरा अर्थ है विचार का झुकना, क्योंकि हमारे सिर में सारे विचारों का संग्रह है और इन विचारों की अतिशय भीड़ के कारण हमारी सारी शक्ति और ऊर्जा खो जाती है, मस्तिष्क शुष्क हो जाता है और इस वजह से हमारे हृदय के पास तक प्रेम रस की धार नहीं पहुंच पाती। चुनांचे जब तक हम विचार रूपी सर को नहीं गिरा देते, तब तक हमारे हृदय में मरुस्थल रहेगा। प्रेम रूपी जल के स्रोत वहां नहीं पहुंच पाएंगे। चुनांचे प्रेम के मार्ग में शिकवा और शिकायत जायज नहीं। अगर शिकवा और शिकायत का छोटा सा भी भाव मौजूद है तो स्पष्ट है कि प्रेम का असल अर्थ अभी हमारी समझ में नहीं आया, ‘कहे कबीर प्रेम का मार्ग सर देना तो रोना क्या रे।’ पे्रम के मार्ग पर चलने वाला तो कहता है, प्रभु! अगर तू मुझे मिटाए तो भी मैं प्रसन्न हूं, तेरी इस अदा पर भी कुर्बान-कुर्बान जाता हूं। मैं हर हाल में राजी हूं, क्योंकि मेरे इस मिटने में भी जरूर कोई सार्थक चीज छिपी है, कोई खास राज छिपा है, ‘दिल दे तो ऐ खुदा! ऐसा मजाज दे, रंज की घड़ी जो आए तो खुशी में गुजार दें।’ कहते हैं कि एक सूफी फकीर रोज परमात्मा को धन्यवाद दिया करता था कि ‘परमात्मा! तुम मेरी जरूरतों का बड़ा ख्याल रखते हो, जब तो जरूरत होती है, तब पूरी कर देते हो’ इसके शिष्य इससे बड़े परेशान रहते थे, क्योंकि वह कई बार देखते थे कि इन्हें कई दफा लगातार तीन-तीन दिन तक एक बार भी भोजन आदि नहीं मिलता था और इसके अतिरिक्त किसी गांव में लोग बाग इनके ठहराने के लिए जगह भी नहीं देते थे, यहां तक कि कई बार इन्हें खाली पानी तक भी नसीब नहीं होता था। एक बार इसी तरह की भुखमरी की हालत में भी जब सूफी संत ने सायं अपनी प्रार्थना की और हाथ आकाश की तरफ उठा कर कहा, ‘हे प्रभु! तूं भी अद्भुत है, मेरी जरूर जो, जब, जैसी हो तू पूरी कर देता है, तब एक शिष्य से रहा न गया। उसने कहा ‘गुरु जी! बहुत हो गया, सुनते-सुनते। यह आप क्या कह रहे हैं? हम सब तीन दिन से लगातार भूखे मर रहे हैं, पानी तक पीने के लिए हमें मिला नहीं और तो और गांव में कोई शरण तक नहीं देता और अभी भी आप कहे चले जा रहे हैं कि प्रभु! जो मेरी जरूरत हो वो तू पूरी कर देता है।’ सूफी फकीर ने जवाब दिया, ‘मैं अभी भी कहे जा रहा हूं, क्योंकि तीन दिन से यह मेरी जरूरत थी कि मुझे रोटी न मिले और किसी गांव में ठिकाना तक न मिले। मैंने यह कब कहा कि परमात्मा मेरी जरूरत पूरी कर देता है। मैंने तो यह कहा है कि जो मेरी जरूरतें होती हैं वे परमात्मा पूरी कर देता है।


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