प्रत्यूष की साहित्य निधि में है विविधता

By: Jul 8th, 2018 12:10 am

हिमाचली साहित्यकार डा. प्रत्यूष गुलेरी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। वह पिछले कई दशकों से निरंतर साहित्य की सेवा कर रहे हैं। उनका जन्म नौ जून, 1947 को पिता कीर्तिधर शर्मा गुलेरी व माता सत्यावती गुलेरी के घर गुलेर, जिला कांगड़ा में हुआ। हिंदी साहित्य में डाक्टरेट करने के बाद वह कई शैक्षणिक पदों पर अपनी सेवाएं दे चुके हैं। वह राजकीय महाविद्यालय धर्मशाला के हिंदी विभाग के अध्यक्ष भी रहे। इनके हिंदी प्रकाशनों का ब्योरा इस तरह है : स्मृति (कहानी संग्रह), बृजराज कृत रामरस लहरी, नीतिशतक  तथा मंगलशतक का संपादन, शोध प्रबंध-बृजराज और उनका काव्य, नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा ‘गुलेर का राजा हरिचंद’ तथा ‘आधी पूंछ वाला राक्षस’ नवसाक्षर माला के अंतर्गत प्रकाशित कहानियां, सपनों का भारत तथा नील गगन पर चमकें तारे (बालगीत), सच के सामने (उपन्यास)। उनके हिमाचली प्रकाशनों का ब्योरा इस तरह है : गीतां री सीर, मनें दी भड़ास, वक्त दी गल्ल, चुणियां हिंदी दियां कहाणियां, हिमाचले दियां लोककथां, घोड़े गीतां दे आदि। इसके अलावा ‘नुहारा दी पन्छाण’ हिमाचल अकादमी से प्रकाशित निबंध संग्रह है। उन्हें कई सम्मान व पुरस्कार भी मिल चुके हैं। इन पुरस्कारों में शामिल हैं राज्य शिक्षा एवं भाषा संस्थान शिमला, हिमाचल भाषा अकादमी, शिमला, हिमाचल प्रदेश, सिरमौर कला संगम तथा भारतीय बाल कल्याण संस्थान कानपुर, कहानी महाविद्यालय अंबाला द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित। उन्हें अनेक स्वैच्छिक संस्थाओं द्वारा भी साहित्य सेवा के लिए पुरस्कृत किया जा चुका है। डा. प्रत्यूष गुलेरी वर्तमान में उम्र के इस पड़ाव पर भी साहित्य लेखन एवं सेवा में सक्रिया भूमिका निभा रहे हैं।

—लघु कथा—

अनमोल नियामत

शीतल अच्छे लंबे कद-काठ का सुंदर और सुशील नवयुवक है। स्वभाव से मिलनसार और विनम्र है। शीतल वन विभाग में रेंजर के पद पर है। सैर तो नहीं करता, परंतु हर सुबह बाजार से दूध लाता अवश्य मिल जाता है। सुबोध से सलाम दुआ होती है। उसकी कोशिश होती है कि वह हाथ भी मिला ले। कई बार सुबोध हाथ मिला लेता और मन न करे तो ‘नमस्ते शीतल जी’ कहकर अपने हाथ पैंट की जेबों में ठूंस लेता है ताकि निकालने की नौबत न आए। जिस किसी दिन हाथ मिला लेता है, सुबोध तो पता नहीं उसके मन में बहुत देर तक क्यों शीतल के हाथ की आकृतियां बनती हुई महसूस होती रहती हैं? मन में भर जाती है घिन। इधर शीतल बोलता तो नहीं, परंतु समझता जरूर है कि खुदा ने उसके मुंह-हाथों-पैरों और पूरे शरीर पर नामुराद बदरंग चित्रकारी उतार कर उसकी इज्जत और सौंदर्य को बिगाड़ दिया है। खुद से बोलता है, ‘यह सब अपने वश में तो नहीं।’ यही कारण है कि यह जब भी हाथ मिलाने को आगे बढ़ाता है तो पूरे ग्रिप से हाथ नहीं पकड़ता। दरअसल, यह सब सफाई इसलिए देनी पड़ रही है क्योंकि आज जब सुबोध से मिला तो उसने बड़ी गर्मजोशी से हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़ाया तो वह बढ़ा ही रह गया। सुबोध ने उसे दूर से आता हुआ देख लिया था। उसने निश्चय किया कि वह हाथ मिलाने से बचेगा। सब ऐसे ही यंत्रवत घटित हुआ। वह अपने से पूछने लगा कि अगर यही बीमारी उसे भी हो जाए तो क्या होगा? वह प्रायश्चित करता है। सुबोध ने निश्चय किया कि वह अगली दफा शीतल से पूरे जोश-खरोश से हाथ मिलाकर प्रायश्चित करेगा। हर सूरत रचनाकार की कृति है…अनमोल नियामत।

हमें हिंदी प्रांत मान लेना मूल समस्या

* कुल पुस्तकें : तीन दर्जन से अधिक

* शोध ग्रंथ : एक, इन पर 10 छात्रों ने शोध किए

* कुल पुरस्कार : 20

* साहित्य सेवा : 60 वर्ष

साहित्य में शब्द की संभावना शाश्वत है और इसी संवेग में बहते कई लेखक मनीषी हो जाते हैं, तो कुछ अलंकृत होकर मानव चित्रण  का बोध कराते हैं। लेखक महज रचना नहीं हो सकता और न ही यथार्थ के पहियों पर दौड़ते जीवन का मुसाफिर, बल्कि युगों-युगों की शब्दाबली में तैरती सृजन की नाव पर अगर कोई विचारधारा अग्रसर है, तो उसका नाविक बनने का अवसर ही साहित्यिक जीवन की परिभाषा है, जो बनते-संवरते, टूटते-बिखरते और एकत्रित होते ज्वारभाटों के बीच सृजन की पहचान का मार्ग प्रशस्त करता है। यह शृंखला किसी ज्ञान या साहित्य की शर्तों से हटकर, केवल सृजन की अनवरत धाराओं में बहते लेखक समुदाय को छूने भर की कोशिश है। इस क्रम में जब हमने

डा. प्रत्यूष गुलेरी के कहानी संग्रह ‘लौट आओ पापा’ की पड़ताल की तो कई पहलू सामने आए… 

दिहि : जिस पहाड़ी साहित्यिक यात्रा पर आप निकले, उसे आज कहां पाते हैं?

डा. प्रत्यूष : नहीं, अब तो हिमाचली साहित्यिक यात्रा कहिए। आपने ही अपने पत्र के माध्यम से हिमाचली अस्मिता को जगाया है। कहूं तो अत्युक्ति नहीं। शुरुआती दिनों को याद करूं तो गांव में ही गुलेर साहित्य सभा, फिर कांगड़ा साहित्य कला मंच, साहित्यकार परिषद, कांगड़ा हिंदी संगम, लोक साहित्य परिषद आदि साहित्यिक संगठनों के माध्यम से हिंदी और हिमाचली भाषा के लेखन और प्रस्तुतिकरण की प्रक्रिया से होता हुआ राज्य, अंतरराज्यीय, राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक संस्थाओं-संस्थानों के साहित्यिक कार्यक्रमों में प्रतिभागिता से संतुष्ट हूं। इस साहित्यिक यात्रा ने सात समुद्र पार आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन में न्यूयार्क, अमरीका में साहित्य अकादमी द्वारा भेजे प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य के रूप में जाने का व वहां एक सत्र में रिपोर्टर की भूमिका निभाई थी। उस प्रतिनिधिमंडल में मेरे साथ साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष, हिंदी आलोचक व कवि विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, कथाकार उदय प्रकाश, उपन्यास लेखिका मृदुला गर्ग व कवि विजय किशोर मानव भी शामिल रहे। राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक सम्मेलनों तक की यात्रा से संतुष्ट हूं। जहां तक हिमाचली का प्रश्न है तो साहित्य अकादमी (राष्ट्रीय) व राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ने भी इसमें पुस्तकें प्रकाशित कर इसे पहचाना है। यही नहीं, साहित्य अकादमी का राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली भाषा और साहित्य के लिए मुझे ‘भाषा सम्मान’ प्रदान करना इसी कड़ी का एक हिस्सा है। यात्रा तो यात्रा है जो तनिक विश्राम के पश्चात फिर जारी हो जाती है। कुछ ऐसा ही समझें।

दिहि : क्या हिमाचली बोलियों का संघर्ष खुद को भाषा के करीब चिन्हित कर पाया?

डा. प्रत्यूष : हिमाचली बोलियों का संघर्ष तो मत कहें, यह हिमाचली भाषा को एक मुकम्मल स्वरूप देने में सहायक हैं। हमारी बोलियां ही हिमाचली भाषा की ताकत हैं। कोई भाषा बिना बोलियों के संभव नहीं। यह अलग बात है कि इनमें से कोई बोली अपने भौगोलिक तटबंध तोड़ती अन्य बोलियों में अपनी उपस्थिति या ताकत दर्ज करती है। वह आसानी से बड़े भू-भाग में बोली जाती है और समझी भी जाती है। उसमें शिष्ट साहित्य की रचना होती है। वह अपनी सामर्थ्य काव्यों, खंडकाव्यों व महाकाव्यों में प्रदर्शित भी करती है। यह चिंता का प्रश्न हो सकता है कि कुछ हिमाचली अपनी बोलियों में बात करना शर्म समझते हैं। ऐसे में कांगड़ी, कुल्लवी, कहलूरी, चंबयाली, मंडियाली, सिरमौरी बहुत आगे निकल चुकी हैं। यह सत्य है कि जब किसी भाषा को संवैधानिक मान्यता मिल जाती है तो वह खुद-ब-खुद, खुद को चिन्हित कर लेती है। ‘बोडो’ और ‘संथाली’ भाषाओं के उदाहरण हमारे सामने हैं।

दिहि : हिमाचल के भाषाई स्रोत के रूप में लोक साहित्य की राज्य स्तरीय पहचान में क्या एकरूपता संभव है और यह होगा कैसे?

डा. प्रत्यूष : हिमाचल के भाषाई स्रोत तो लोक साहित्य में मौजूद हैं। हमारा लोक साहित्य देश की अन्य समृद्ध भाषाओं के अनुरूप ही समृद्ध है। एक क्षेत्र के लोकगीत अन्य क्षेत्रों में भी उतने ही लोकप्रिय हैं, जितने अपने क्षेत्र में। लोकगीत ही क्या, यहां के लोकनृत्यों की भाव-भंगिमाएं, मुद्राएं और नृत्य शैलियों में भी समानताएं देखने को मिलती हैं। विविधता हमारी शान है। हिमाचली भाषा का नक्शा इन्हीं रंगों से सजना-संवरना निश्चित है। लोकगाथाएं, मुहावरे, लोकोक्तियां, कहावतें और लोककथाओं का भरपूर खजाना यहां मौजूद है। इनका दस्तावेजीकरण  व भावी पीढि़यों के लिए संरक्षित कर लेना परमावश्यक है।

दिहि : डोगरी के रूप में देश ने एक भाषा को अंगीकार किया, तो हिमाचल क्यों अपनी एक भाषा की लय नहीं पकड़ पाया। क्या यहां के लेखक समुदाय ने भी विभिन्न बोलियों की दीवारों के पीछे झंडे बुलंद किए या क्षेत्रवाद की मानसिकता ‘हिमाचली भाषा आंदोलन’ पर सवार हो गई?

डा. प्रत्यूष : डोगरी भाषा के पास डा. कर्ण सिंह जैसे राजनेता का नेतृत्व व संरक्षण प्राप्त था। इसे वर्षों पहले साहित्य अकादमी से मान्यता मिली थी। मान्यता के कारण साहित्य अकादमी में डोगरी भाषा बोर्ड के माध्यम से विकास को गति मिली। यही नहीं, डोगरी में रामनाथ शास्त्री, परमानंद अलमस्त, दीनूभाई पंत और मधुकर जैसे लेखकों ने भी इसे समृद्ध किया। डोगरी संस्था ने भाषाई आंदोलन के माध्यम से कालांतर में इसे आठवीं अनुसूची में शामिल करा लिया। यह दुर्भाग्य है हमारा कि हम हिमाचली पहाड़ी भाषा भाषी होने के कारण ही पंजाब से कटकर हिमाचल में मिलाए गए थे। तत्कालीन राजनेताओं में हिमाचल निर्माता डा. यशवंत सिंह परमार व लाल चंद प्रार्थी इसके पैरोकार थे। डा. परमार अकसर कहा करते थे- हिमाचली-पहाड़ी भाषा उतनी पुरानी है, जितने पुराने हमारे पहाड़ हैं। इसे उसका उचित दर्जा दिला के रहेंगे। यह नहीं है कि हिमाचल ने अपनी एक भाषा की लय को नहीं पकड़ा है। एक लय न होती तो हमारा पंजाब का यह क्षेत्र हिमाचल में क्यों मिलता। सच तो यह है कि हमें अहिंदी क्षेत्र होते भी हिंदी क्षेत्र प्रांत मान लिया गया, जबकि पड़ोसी पंजाब अहिंदी क्षेत्र रहा। साहित्यिकों को ही नहीं, हमें राजनीतिक तौर पर भी इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। अहिंदी क्षेत्रों को मिलने वाले लाभों से हम हिमाचली भाषा-भाषी वंचित रह रहे हैं। बोलियों की दीवारों के पीछे कोई झंडे बुलंद नहीं किए गए। जिस-जिस बोली में साहित्य-सृजन होता रहेगा, वह निरंतर विकास को प्राप्त होगी। जिस बोली को बोलने में हम शर्म महसूस नहीं करेंगे, उसका झंडा खुद-ब-खुद बुलंद होता चलेगा। यह मत कहें कि क्षेत्रवाद की मानसिकता ‘हिमाचली भाषा आंदोलन’ पर सवार हो गई। हमारे रहनुमाओं की नीयत ठीक नहीं। भाषा का आंदोलन लेखकों का ध्येय नहीं। लेखकों का धर्म तो साहित्यसृजन है। आठवीं अनुसूची की बात छोडि़ए या हिमाचली के रूप में देश ने एक भाषा को अंगीकार नहीं किया, अपने प्रदेश की सरकार ने भी आज तक कहां हिमाचल विश्वविद्यालय या केंद्रीय विश्वविद्यालय में हिमाचली भाषा का विभाग खोलकर या स्कूलों में पढ़ने-पढ़ाने के संकल्प को उठाया। यह काम तो खुद प्रदेश सरकार का था। कई बार कोशिशें तो की गईं, पर टायं-टायं फिस होती रहीं।

दिहि : सही अर्थों में हिमाचली भाषा के मंच पर आप किन योद्धाओं को देखते हैं और इसे अंजाम तक पहुंचाने के लिए अभी और क्या करना होगा?

डा. प्रत्यूष : सही अर्थों में हिमाचली भाषा के मंच पर उन योद्धाओं को याद किया जा सकता है, जिन्हें अपनी मातृभाषा मां बोली से प्यार था, तब जब हिमाचली भाषा की बात करना दूर की कौड़ी थी। यह बात रियासती राज की कर रहा हूं, तब भी वंशावलियों, बही-खातों, करारनामों व राजाओं के कोर्ट-कचहरी के कई फैसलों में हिमाचली पहाड़ी प्रयोग किए जाने के उदाहरण मौजूद हैं। 16वीं शताब्दी में गुलेर के राजा विक्रम की रानी की गीतियां, 17वीं व 18वीं शताब्दी में गुलेर के कवि रुद्रदत, कांशी राम व चंबा के भ्यानी दास, नूरपुर के गंभीर राय रचित छंद हिमाचली पहाड़ी के प्रारंभिक नमूने हैं। यही नहीं, महाभारत के पर्वों की टीकाएं तक हिमाचली में हैं।

आगे चलकर पहाड़ी गांधी बाबा कांशी राम, सोमनाथ सिंह सोम, रूप सिंह फूल, लाल चंद प्रार्थी, चंद्रशेखर बेवस, भवानी दत्त शास्त्री, काहन सिंह जमाल, हरि प्रसाद सुमन, कांशी राम आत्रेय, डा. वंशी राम, मौलूराम ठाकुर, सागर पालमपुरी, सुदर्शन कौशल, शेष अवस्थी और संसार चंद प्रभाकर आदि अनेकानेक नाम गिनाए जा सकते हैं, जो हिमाचली भाषा के योद्धा रहे हैं। बोलियों को भाषाई स्वरूप देने में डा. पीयूष गुलेरी, नरेंद्र ऊरुप, गौतम व्यथित, डा. प्रत्यूष गुलेरी, वंशी राम शर्मा, मौलू राम ठाकुर, जयदेव किरण, भगत राम मुसाफिर, चंद्रमणि वशिष्ठ, पहाड़ी मृणाल, परमानंद शर्मा व नवीन हलदूणवी अग्रगण्य हैं। हिमाचली भाषा को आठवीं अनुसूची मिले, उस अंजाम तक पहुंचाने के लिए मीडिया, अखबारों, राजनेताओं, लेखकों, समाजसेवियों व जनता को अपने-अपने ढंग से भागीदारी डालनी होगी। हिमाचली भाषा हमारे प्रदेश की संस्कृति की संवाहक है। संस्कृति की बुनियाद उस प्रदेश की भाषा होती है, जो मां का न हुआ तो किसी का भी नहीं हो सकता। अतः मातृभाषा हिमाचली को उसका उचित दर्जा मिले, उसके लिए सब को एक होना पड़ेगा। राजनेताओं को विधानसभा और सरकारी-गैर सरकारी मंचों पर अपनी भाषा में बोलकर भाषण देकर हीनता की ग्रंथी से ऊपर उठना होगा। मैं तो कहूंगा कि अपनी हिमाचली में अखबार शुरू करने का जोखिम भी तो कोई उठाकर भाषा की सेवा कर सकता है।

दिहि : क्या हिमाचली कहानी का प्रतीकात्मक होना केवल पर्वत-पहाड़ तक ही सीमित रहा है या संघर्ष का हिमाचली पक्ष इसके जरिए मानव इतिहास के अनसुलझे पन्ने खोल पाया?

डा. प्रत्यूष : हिमाचली कहानी का प्रतीकात्मक होना केवल पर्वत-पहाड़ तक ही सीमित रहा, यह कहना सही नहीं है। पर्वत-पहाड़ के दुख, संघर्ष और विकटता को हिमाचली कथाकारों ने समकालीन कथाकारों की सशक्त पंक्ति में अपने आपको शामिल करने में सफलता पाई है। द्विवेदी युग में गुलेरी, प्रेमचंदोत्तर युग में यशपाल, निर्मल वर्मा सरीखे हिमाचली कथाकारों ने हिंदी कहानी को समय-समय पर दिशा दी है। आज के हिंदी कथाकारों में भी हिमाचल ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। बहुत से कथाकार हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बना चुके हैं, नाम गिनवाने लगा तो कोई छूट जाएगा। त्यों तो साहित्येतिहास लेखकों ने भी उनके नाम और योगदान को देखते हुए सदैव आंखें मूंदी हैं। हिमाचली पक्ष, हिमाचली रंग और संस्कार कहानी ने व्यंजित किए हैं, इसमें कोई शक नहीं।

दिहि : अगर सृजनात्मक लेखन की परिभाषा में हिमाचली लेखकों की ऊर्जा का मूल्यांकन हो, तो आपका अपना मत व पक्ष क्या होगा?

डा. प्रत्यूष : जहां तक सृजनात्मक लेखन की परिभाषा में हिमाचली लेखकों की ऊर्जा का प्रश्न है तो वह मैं पहले ही कह चुका हूं किन्हीं अन्य प्रदेश के लेखकों से कमतर किसी भी तरह नहीं है। वर्तमान में देखें तो राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में हिमाचल के लेखक खूब छप रहे हैं। यह सिर्फ कथा साहित्य की बात नहीं है, कविता, उपन्यास, लघुकथा, बाल साहित्य में भी बहुत से लेखक सक्रियता से साहित्य कर्म में जुटे हैं। हां, नाटक विधा में अकाल की स्थिति जरूर महसूस की जा सकती है।

दिहि : पहाड़ी गीतों में नए साहित्य की ऊर्जा एक तरह से शून्य हो गई है या हिमाचली साहित्यकार परिवेश के सांस्कृतिक पक्ष से न्याय ही नहीं कर रहा?

डा. प्रत्यूष : हिमाचली गीतों में नए साहित्य की ऊर्जा एक तरह से शून्य हो गई है, यह तो मत कहें, यहां के गायक अब लोकगीतों की पृष्ठभूमि में नए गीत भी गड़ रहे हैं। कई कैसेटें, सीडी, डीवीडी मार्केट में आ रही हैं। हमारे संस्कृति-कर्मियों को इस क्षेत्र में इनका स्तर और शुद्ध स्वरूप की रक्षा करनी होगी। फूहड़पन और अश्लीलता, जो गीतों और नृत्यों में परोसी जा रही है, उस पर अंकुश लगना जरूरी है। हिमाचली फिल्मों के निर्माण से पहाड़ी गीतों में नए प्राण फूंके जा सकते हैं। नए गीतों की रचना से हिमाचली साहित्य भी समृद्ध होगा। नए गीत स्वरबद्ध हो भी रहे हैं। यह काम आकाशवाणी को करना चाहिए।

-विनोद कुमार


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App