बंद कमरों का साहित्यिक संवाद पूर्ण नहीं

By: Jul 15th, 2018 12:08 am

किताब के संदर्भ  में लेखक

साहित्य में शब्द की संभावना शाश्वत है और इसी संवेग में बहते कई लेखक मनीषी हो जाते हैं, तो कुछ अलंकृत होकर मानव चित्रण  का बोध कराते हैं। लेखक महज रचना नहीं हो सकता और न ही यथार्थ के पहियों पर दौड़ते जीवन का मुसाफिर, बल्कि युगों-युगों की शब्दाबली में तैरती सृजन की नाव पर अगर कोई विचारधारा अग्रसर है, तो उसका नाविक बनने का अवसर ही साहित्यिक जीवन की परिभाषा है, जो बनते-संवरते, टूटते-बिखरते और एकत्रित होते ज्वारभाटों के बीच सृजन की पहचान का मार्ग प्रशस्त करता है। यह शृंखला किसी ज्ञान या साहित्य की शर्तों से हटकर, केवल सृजन की अनवरत धाराओं में बहते लेखक समुदाय को छूने भर की कोशिश है। इस क्रम में जब हमने

डा. प्रत्यूष गुलेरी के कहानी संग्रह ‘लौट आओ पापा’ की पड़ताल की तो कई पहलू सामने आए… 

-गतांक से आगे…

दिहि : ऐसे में अगर लोग बोली (बोलियां) भूल रहे हैं, तो पुराने शब्दों के अर्थवान लोक व्यवहार की ऐसी कमी में, साहित्य को कहां तक जिम्मेदार मानते हैं?

डा. प्रत्यूष : अगर लोग बोलियां भूल रहे हैं तो इसमें हमीं कसूरवार हैं। अपनी बोली और अपनी भाषा को हमने पूर्वजों से धरोहर में पाया है। यह हमारा ही कर्त्तव्य बनता है कि उसे भावी पीढ़ी को भी उसी प्रेम और समर्पण से सौंपें। हमारे प्रदेश की सरकारों ने बहुत समय से इसे गंभीरता से नहीं लिया। हिमाचली संस्कृति तभी बची रह सकती है जब हम इसकी भाषा को बचा पाएं। इसके लिए आवश्यक है कि इसका अधिक से अधिक प्रयोग और व्यवहार सुनिश्चित किया जाए। साहित्य को इसके लिए जिम्मेदार नहीं माना जा सकता। साहित्य-सृजन में पुराने का मिटना-बिगड़ना और नए अर्थ ग्रहण करना एक सतत प्रक्रिया है। नए शब्द हर क्षेत्र में ग्रहण करने में संकोच नहीं होना चाहिए। इससे भाषा समृद्ध होती है। अन्य भाषाओं से शब्दों का यह आना सहज होना चाहिए। भाषा को वैसे भी बहता नीर कहा गया है।

दिहि : किन वरिष्ठ साहित्यकारों ने आपके व्यक्तित्व व रचना संसार को प्रभावित किया तथा जीवन की धारा में साहित्य का मिलन किस-किस रूप में हुआ?

डा. प्रत्यूष : मैंने अपनी जवानी में प्रेम चंद, जैनेंद्र, गुलेरी, अश्क, शिवानी, राजेंद्र पाठक, कमलेश्वर, मोहन राकेश, द्विजेंद्रनाथ निर्गुण, विष्णु प्रभाकर आदि कथाकारों की कहानियों को पढ़ा है। राजपाल एंड संज की बड़े कथाकारों की ‘मेरी प्रिय कहानियां’ सीरीज की पुस्तकों को 5/-रुपए प्रति पुस्तक अपने निजी पुस्तकालय के लिए खरीदा था। बाद में ज्ञानरंजन, काशीनाथ, उदयप्रकाश, संजीव की कहानियों को भी पढ़ता रहा हूं। कवियों में निराला की कविता सबसे प्रिय रही। स्वच्छंद कविता के लिए निराला मेरे आदर्श रहे। प्रत्यूष उपनाम भी मैंने निराला की एक कविता से छठी-सातवीं में पढ़ते अपने साथ जोड़ लिया था। भाई पीयूष गुलेरी से इस पर मुहर भी लगाई थी। हिमाचली कविता में रूप सिंह फूल, सागर पालमपुरी, सुदर्शन कौशल, पीयूष गुलेरी, लाल चंद प्रार्थी मेरे आदर्श रहे। समकालीनों में डा. व्यथित, पीयूष गुलेरी, प्रेम भारद्वाज, पवनेंद्र पवन, भगत राम मुसाफिर, शेष अवस्थी, खेमराज गुप्त सागर, नंदेश, जयदेव किरण, नरेंद्र अरुण, संसार चंद प्रभारी साथ-साथ चलते-लिखते रहे। जीवन की धारा में साहित्य का मिलन हिंदी, डोगरी, पंजाबी, हिमाचली और हरियाणवी भाषाओं के साहित्य से होता रहा, इतना कहूंगा। हां, साहित्य अकादमी में रहते हुए देश की 22 मान्यता प्राप्त भाषाओं के साहित्यकारों और साहित्य के गवाक्ष भी खुले। साहित्यिक मंच भी साझा किए। इसे ही जीवन की धारा में साहित्य से मिलन का आशय समझा जाए।

दिहि : साहित्य के आलोच्य पक्ष में आपके तर्क और स्वयं की निगरानी में अपनी रचनाओं की समीक्षा को कितना लाजिमी मानते हैं। क्या आलोचना सतही व कायर होती जा रही है या प्रकाशन की प्रशंसक बनकर यह साहित्य की दलाली पर उतर आई है?

डा. प्रत्यूष : साहित्यकार को अपने लिखे को स्वयं की कसौटी पर भी कसने का मैं हकदार हूं। इसके लिए मैं साहित्यकार के नाते समकालीनों के साहित्य को पढ़ने का हिमायती हूं। मेरे पास दर्जनों पत्र-पत्रिकाएं और पुस्तकें आती रहती हैं। सबको पढ़ना तो टेढी खीर है, पर मोटी-मोटी नजर या कह लो मुंह मार लेता हूं। पसंद की रचनाएं अथवा लेखक जरूर पढ़ लिए जाते हैं। अपनी रचनाओं की खुद समीक्षा तो कठिन बात है, वह तो कोई दूसरा ही अथवा पाठक ही कर सकता है। हां, कई बार अपनी कोई रचना स्वयं को बेहतर और कोई हल्की भी लगती है। जरूरी नहीं है कि आपका सबका सब रचा बढि़या हो। रचना की गुणवत्ता तो आलोचना की कसौटी पर ही पता चल सकती है। उसके लिए आपका यह कहना सही है कि आज की आलोचना भी सतही और कायर होती जा रही है। हम अच्छे लिखे का भी जान-बूझकर नोटिस लेना नहीं चाहते। अपने लिखे को ही सर्वोत्तम मान लेने वाले बहुत से लेखक हैं। साहित्य के दलाल भी प्रकाशकों के माध्यम से साहित्य की दलाली कर रहे हैं। एक-दूसरे के लिखे को प्रचारित, प्रसारित व प्रशंसित कर रहे हैं। इसमें लेखक भी प्रकाशक बन रहे हैं और प्रकाशक भी लेखकों का चोला पहनकर साहित्य की दलाली में सहज शामिल हो रहे हैं। यह साहित्य के लिए सही नहीं। बहुत से कम लेखक हैं जिन्हें समुचित रायल्टी प्रदान की जा रही है, नहीं तो प्रकाशक ही मलाई चाट जाते हैं।

दिहि : नेशनल बुक ट्रस्ट की अपनी पारी में, हिमाचली परिप्रेक्ष्य और राष्ट्रीय संदर्भों में कितने सेतु बना पाए?

डा. प्रत्यूष : नेशनल बुक ट्रस्ट की पारी से आपका आशय नहीं समझ पाया। इसमें मैं किसी भी भूमिका में नहीं रहा। हां, उनके एक लेखक की हैसियत में सबसे पहले 1998 में नवसाक्षर कार्यशाला में मेरी दो कहानियों की छोटी पुस्तकें ‘गुलेर का राजा हरिचंद’ और ‘आधी पूंछ वाला राक्षस’ छपीं। उसके बाद 2009 में मेरे ‘बाल गीत’ आए, इसके तीन संस्करण छपे। हां, साहित्य अकादमी का जब मैं पहली बार 2007 तक सदस्य रहा तो नेशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष प्रोफेसर विपिन चंद्रा से मिला। उन्होंने मेरे साथ हिमाचली में बात की तौ मैं खुश हुआ। उन्होंने बताया कि वे मूलतः गरली-परागपुर से हैं, तो मैंने उनसे आग्रह किया कि आप हिमाचली में भी पुस्तकें छापकर अपनी मातृभाषा की सेवा करें। उन्होंने 2006 में धर्मशाला में एक बैठक रखकर स्थानीय लेखकों को पुस्तकें तैयार करने के लिए प्रेरित किया। उसके परिणामस्वरूप हिमाचली भाषा में पहली बार कविता, कहानी, लोक कथाओं और नाटकों की किताबें प्रकाश में आईं। कई हिमाचली लेखक नेशनल बुक ट्रस्ट से जुड़े हैं और एक सिलसिला अब चल निकला है। पुस्तक मेलों और उनके कई राष्ट्रीय कार्यक्रमों में हिमाचली लेखक शामिल हो रहे हैं। यह राष्ट्रीय संदर्भों में किसी सेतु से कम नहीं। बहुत से लेखकों की अलग-अलग विषयों में पुस्तकें छप कर आना हिमाचली प्रतिभा को पहचाना जाना है या लेखकों का अपने आपको प्रमाणित करना भी। नाम गिनाने लगूं तो दर्जन के करीब हिमाचली लेखक राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से जुड़े होंगे। साहित्य अकादमी से भी हिमाचली लेखकों की पुस्तकें छपना राष्ट्रीय संदर्भों के बनाए गए सेतु ही तो हैं।

दिहि : बाल साहित्य की खिड़की से सृजन की किरणों को पाना मुश्किल होता जा रहा है या नन्हें दिमाग तक पहुंचने की मेहनत से, लेखक समुदाय ने कोई अक्षम सरहद बना ली?

डा. प्रत्यूष : बाल साहित्य की खिड़की से सृजन की किरणों को पाना मुश्किल है यह तो मैं नहीं मानता। साहित्य तो साहित्य है, उसे दर्जों में नहीं बांटा जा सकता। चरित्र निर्माण के लिए बच्चों को बचपन में ही बालोपयोगी साहित्य की लत पड़नी चाहिए। बाल साहित्य रचना कोई भी आसान काम नहीं। लेखकों को बालक के मानसिक धरातल तक पहुंचना पड़ता है, तब कहीं जाकर सार्थक सृजन संभव होता है। आपके इस मत से सहमत हूं कि लेखक समुदाय ने अपने दायरे बांध लिए हैं। बाल साहित्यकार भी नन्हे बच्चों को सब कुछ परोस रहे हैं, जो उनकी आवश्यकता नहीं। बाल कविताओं, कहानियों और नाटकों में बहुत से बाल साहित्यकार नए-नए प्रयोग कर रहे हैं। रचनाएं पुरस्कृत-सम्मानित नहीं हो रहीं अपितु लेखकों का नाम बिक रहा है। यह देखा जाता है कि कौन सा लेखक किस संस्थान का संपादक रहा, किस पत्रिका को निकालता रहा है, प्रकाशक ये सब देखकर छाप देते हैं। दायरे के  लेखकों का ही नोटिस लिया जाना इसी साजिश का एक अंग है।

दिहि : बंद कमरों के साहित्यिक संवाद में तैरती लेखकीय विचारधाराओं से अछूता पाठक, अगर साहित्यिक प्रकाशनों से किनारा कर रहा है तो इन बंद दरवाजों की कुंडी कौन और किस प्रकार खोलेगा?

डा. प्रत्यूष : आप बहुत सही कह रहे हैं कि आज साहित्यिक संवाद बंद कमरों में हो रहा है। जो कवि सम्मेलन, लेखक संगोष्ठियां खुले में, मेले-उत्सवों में आयोजित होती थीं किसी समय, वे अब बंद पड़ी हैं। मेलों और उत्सवों में गायकी के नाम पर, हास्य कविता के नाम पर क्या परोसा जा रहा है, यह चिंताजनक है। ऐसा होने से पाठक और श्रोता अच्छे साहित्य से किनारा करता जा रहा है। पुस्तक न्यास भारत सरकार अब भी पुस्तक मेलों में लेखक संवाद, कविता संवाद, कथा संवाद खुले में जारी रखे हुए है, जबकि अन्य प्रादेशिक व राष्ट्रीय संगठनों का दायरा बंद दरवाजों तक सिमट कर रह गया है। कुछ साहित्यिक संगठन और संस्थाएं निजी तौर पर बंद दरवाजों की कुंडियां खोलने का काम कर रहे हैं। देश-विदेशों में ऐसे आयोजन प्रतिवर्ष अपना परचम फैला रहे हैं। मुद्रित शब्द कहिए या पुस्तकों का भविष्य मिटने वाला नहीं, भले ही जितनी भी साजिशें किसी तरफ से भी खड़ी क्यों न की जा रही हों। पुस्तकों और प्रकाशनों की आवश्यकता बनी रहेगी। अखबारों को ही लीजिए, हिमाचल में किसी समय ‘दिव्य हिमाचल’ ही इकलौता पत्र था और अब कितने ही अखबार यहां से छपने शुरू हो गए हैं। अगर पाठकों ने अखबारों से किनारा नहीं किया तो पुस्तकों-प्रकाशनों से भी किनारा किया जाने वाला नहीं, यह निश्चित है। आज भी पुस्तकों की क्रेज खत्म नहीं हुई, कम जरूर हुई है।

दिहि : आज के दौर की राजनीतिक समझ में क्या हिमाचल से कोई दूसरा नारायण चंद पराशर या लाल चंद प्रार्थी सरीखा दिखाई दे रहा है?

डा. प्रत्यूष : आज के दौर की राजनीतिक समझ में हिमाचल से कोई दूसरा लाल चंद प्रार्थी या नारायण चंद पराशर सरीखा राजनेता कम से कम मुझे तो नजर नहीं आ रहा है। यह सच है कि किसी समय में मुख्यमंत्री डा. यशवंत सिंह परमार,  लाल चंद प्रार्थी और नारायण चंद पराशर सरीखे नेताओं के समय में हिमाचल की सब कलाओं का मान-सम्मान था। आधी रात्रि तक गेयटी थियेटर क्या, राज्य स्तरीय मेलों, उत्सवों, कालेजों में कवि-सम्मेलन, साहित्यिक संगोष्ठियां, गीत-संगीत और नृत्यों के दौर होते देखे गए हैं। मंत्री ही क्या, मुख्यमंत्री तक इनमें भागीदारी निभाते रहे। हमारे यहां कोई विधायक भी आज के दौर में साहित्यिक अभिरुचि वाला दिखाई नहीं देता। यही कारण है कि हम इतने वर्षों से हिमाचली भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल कराने के लिए चिल्लाते आ रहे हैं। मुद्दा थोड़े दिन गर्म होता है और फिर सदा के लिए ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। अब इस सरकार से साहित्यकार उम्मीदें पाले बैठे हैं। क्या पता कल तक कोई राजनेता साहित्यिक और सही मायनों में संस्कृति-प्रेमी पैदा हो जाए। ‘दिव्य हिमाचल’ ने तो समय-समय पर इस मुद्दे को अखबार में उठाया है और अपनी बेबाक टिप्पणियों और संपादकीयों में भी उजागर किया है। किसी हिमाचली भाषा-प्रेमी और हिमाचली संस्कृति पारखी राजनेता की संभावना भविष्य के गर्भ में ही है अब तक।

(समाप्त) 

-विनोद कुमार

* कुल पुस्तकें : तीन दर्जन हिंदी, एक दर्जन हिमाचली

* शोध ग्रंथ : एक, इन पर 10 छात्रों ने शोध किए

* कुल पुरस्कार : 20

* साहित्य सेवा : 50 वर्ष

‘मां पुराण’ नामक कविता से संदेश दे रहे डा. प्रत्यूष

मां! बहुत कुछ याद आ रहा है

तुम्हारे अचानक चले जाने के बाद

अचानक चले जाते हैं

सुना था, जब अपने पर बीती

तो हकीकत लगी

पिछली सात को मिला था

आठ को लौटा

सब सामान्य था, इस बार भी

हां, समझाती बुझाती रहीं

हर बार की तरह-

मरने पर क्या करना तुम सब

जिसे हम सुनना नहीं चाहते थे

सुनाती रहीं फिर भी

अपनी धुन में

बहू , पोत-बहू से भी

वह कहा, जो अनकहा रहा था

कानों में टंकारता रहेगा-

सब की सेवा करना

कभी नहीं फिर किसी को

किसी भी तरह से जीवन में

मेरे न रहने पर भी

घर को घर बनाए रखना

लड़ने भिड़ने का नहीं

सब के पास सब कुछ तो है

क्या नहीं पुरखों की पूंजी

संस्कारों की इमानत

खुर्द-बुर्द मत करना।

माता की मन्नत चढ़ाते देख हमें

प्रसाद हल्वे का, कहा-

माता से एक सुक्खन यह करो

मेरा बेटा गोपाल

तंदरुस्त हो जाए

मां जगदम्बा उसे ठीक कर दे

उठा ले मुझे, अब जीकर क्या करना है

मेरी उम्र उसे लग जाए।

अर्थी मत सजाना

कर सकोगे सब तो यह करना

मरते वक्त मुंह मेरे में रख देना

तुलसी -दल, पंच रत्न

गंगा-जल की चंद बूंदें

गले में गटका देना

कानों की बालियां

और हाथों की चूडि़यों से

किसी को भी छूने मत देना

यह ध्यान रखना

मेरी मृत देह पर से।

रोना- चिल्लाना मत हद से

कर लिया जो जिंदे जी

तुम सब ने वह कम तो नहीं

पछताना मत बताया नहीं था

सब से कहती थी मां

अलग-अलग यह

सब उत्तर-कर्म करना

त्यों जैसे होते हैं

नहीं कोई शार्टकट

दिनों में आने वालों को लगे

उत्सव सजा है हर दिन

आठ की रात वह हुआ

जो तुमने चाहा था मां

नौ का जन्मदिन नहीं मनाया गया

पर एक दिन पहले दिया

पांच सौ के नोट का शगुन

मैने बटुए में संभाल कर रख लिया है

तुम्हारी आखिरी आशीष की निशानी

तब तक जब तक सांस रहेंगे शेष।

मां! तूने अपनी लम्बी उम्र की पारी में

रिश्ते कायम किए अपनों से नहीं

बेगानो से भी उन्हें निभाया

कच्चे नहीं पक्के धागों की गांठ देकर

सौंप दिया सबको सुरक्षित

रिश्तों को रिश्तों से पुकारो

चाचा, ताऊ, दादा- दादे-दादियां

चाची, नानी-मौसी, बुआ

नाम दो न

मुंह की जुबान बिगाड़ो मत

बुड्ढा, बुड्ढी, छोरू-छोकरू, जबरे बुलाकर

किसी की उम्र न पूछो

सबके गुआं (अंग) चलते देखकर

अचरज नहीं, भगवान की मेहर मानो

वरदान मानो, यह कहा।

गीता-पाठी, संगीत रामायण दिवानी

सिमरनी के मनके मन से जपती रही

पकड़ जपी की ढीली न होने दी

ठोसती रहीं रामायण गीता की कथाएं

कानों में हमारे बचपन में

जलो नहीं, किसी को उठता देख

गिरते को उठाओ

गुजर गया वक्त भूल जाओ

वर्तमान भरपूर जियो

कल फिर खरा होगा

यह मंत्र दिया हर किसी को

लिखो, लिखा मुझको सुनाओ

सुधारती रहीं कब नहीं

कविता, कहानी बहुत कुछ

चाचा गुलेरी जी के कदमों पर चलो

अपना यूनिट, परिवार नहीं

घर, वंश गांव के प्यार की

पिलाई जीवन-घुटी

तुम्हारे चाहने पर भी

बीमार पड़े अग्रज गोपाल के

आदेश पर छः को गुंजन में

सजाई गई कवि गोष्ठी पर

पढ़ी गई कविताओं, कवियों का

वीडियो दिखा न सका

 


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