बाढ़ में डूबने को है देश
डा. भरत झुनझुनवाला
लेखक, आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणीकार हैं
इस कठिन परिस्थिति का सामना करने की सरकार की रणनीति है कि भाखड़ा एवं टिहरी जैसे नए बांध बनाए जाएं। जैसे कि लखवार व्यासी तथा पंचेश्वर में प्रस्तावित हैं। पहाड़ में होने वाली वर्षा के पानी को इन डैमों में जमा कर लिया जाए। वर्षा धीरे-धीरे हो अथवा ताबड़तोड़ हो इससे डैम की भंडारण क्षमता में कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। बाद में इस पानी का उपयोग खेती के लिए किया जा सकता है। साथ-साथ बाढ़ का नदियों के दोनों तटों पर बंधे बना दिए जाएं, जिससे नदी का पानी नहर की तरह अपने रास्ते चले और बाढ़ का रूप न ले…
बाढ़ का प्रकोप जारी है। वैज्ञानिकों का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग से वर्षा की कुल मात्रा पूर्ववत रहेगी, परंतु वर्षा के पैटर्न में बदलाव आएगा। गर्म हवा की पानी धारण करने की शक्ति अधिक होती है। जब गर्म बादल बरसते है तो ताबड़तोड़ ज्यादा पानी गिरता है। इसके बाद सूखा पड़ जाता है जैसे 120 दिन के मानसून में तीन दिन भारी वर्षा हो और शेष 117 दिन सूखा पड़ा रहे। वर्षा के पैटर्न में इस बदलाव का हमारी खेती पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। जैसे धान की फसल को लगातार 120 दिन पानी की जरूरत होती है। उतना ही पानी 3 दिन में बरस जाए तो शेष दिनों में फसल सूख जाएगी। वर्षा के पैटर्न मे बदलाव का दूसरा प्रभाव बाढ़ पर पड़ेगा। पानी धीरे-धीरे बरसता है तो वह भूमिगत एक्वीफरों में समा जाता है जैसे वर्षा का आधा पानी एक्वीफर में रिस गया और आधा नालों एवं नदियों में बहा। ताबड़तोड़ बरसने पर वही पानी एक्वीफरो में नही रिस पाता है और पूरा पानी नालों एवं नदियों को बहता है। इससे बाढ़ आती है।
इस कठिन परिस्थिति का सामना करने की सरकार की रणनीति है कि भाखड़ा एवं टिहरी जैसे नए बांध बनाए जाएं। जैसे कि लखवार व्यासी तथा पंचेश्वर में प्रस्तावित हैं। पहाड़ में होने वाली वर्षा के पानी को इन डैमों में जमा कर लिया जाए। वर्षा धीरे-धीरे हो अथवा ताबड़तोड़ हो इससे डैम की भंडारण क्षमता में कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। बाद में इस पानी का उपयोग खेती के लिए किया जा सकता है। साथ-साथ बाढ़ का नदियों के दोनों तटों पर बंधे बना दिए जाएं, जिससे नदी का पानी नहर की तरह अपने रास्ते चले और बाढ़ का रूप न ले।
सरकार की नीति फेल होगी क्योंकि डैम में केवल पहाड़ी वर्षा का पानी रोका जा सकता है। मैदानों की ताबड़तोड़ वर्षा का पानी तो बाढ़ का रूप लेगा ही। गंगा के कैचमेंट में पहाड़ी हिस्सा 239 हजार वर्ग किलोमीटर का है जबकि मैदानी हिस्सा इससे तीन गुना 852 हजार वर्ग किलोमीटर का है। अतः मैदानी वर्षा के पानी का नुकसान तो होगा ही। दूसरी समस्या है कि स्टोरेज डैमों की आयु सीमित होती है। टिहरी हाइड्रोपावर कारपोरेशन द्वारा कराए गए दो अध्ययनों के अनुसार टिहरी झील 140 से 170 वर्र्षों में पूरी तरह गाद से भर जाएगी। तब इसमें पहाड़ी वर्षा के पानी का भंडारण नही हो सकेगा।
नदी के दोनों तटों पर बनाए गए बंधों में भी गाद की समस्या है। नदी द्वारा बंधों के बीच गाद जमा कर दी जाती है। शीघ्र्र ही नदी का पाट ऊंचा हो जाता है, तब बंधों को और ऊंचा किया जाता है। कुछ समय बाद नदी अगल- बगल की जमीन से ऊपर बहने लगती है जैसे मेट्रो की ट्रेन जमीन से ऊपर चलती है। लेकिन बंधों को ऊंचा करते रहने की सीमा है। ये टूटेंगे जरूर और तब नदी का पानी झरने जैसे गिरता और फैलता है। बाढ़ और भयावह हो जाती है।
डैमों एवं बांधों से सिंचाई भी प्रभावित होती है। डैम में पानी रोक लेने से बाढ़ कम फैलती है। जब तक बांध टूटते नहीं, तब तक ये भी बाढ़ के पानी को फैलने नहीं देते हैं। बाढ़ के पानी न फैलने से भूमिगत एक्वीफरो में पानी नहीं रिसता है। पानी सिंचाई के लिए उपलब्ध नहीं होता है। 4-5 साल बाद बांधों के टूटने पर पानी का पुनर्भरण अवश्य होता है परंतु तब तक एक्वीफर सूख चुके होते हैं। सिंचाई में जितनी वृद्धि डैम में पानी के भंडारण से होती है, उससे ज्यादा हानि पानी के कम पुनर्भरण से होती है। अंतिम परिणाम नकारात्मक होता है। लेकिन यह दुष्परिणाम वर्तमान में नही दिख रहा है चूंकि हम पूर्व मे भूमिगत एक्वीफरो में संचित पानी का अति दोहन कर रहे हैं। जैसे दुकान घाटे में चल रही हो, परंतु पुराने स्टाक को बेच कर दुकानदार जश्न मना रहा हो ऐसे ही हमारी सरकार बांध और बंधे बनाकर जश्न मना रही है।
सरकार को अपनी नीतियों में बदलाव करना होगा अन्यथा हम सूखे और बाढ़ की दोहरी मार में डूब जाएंगे। मैदानों में ताबड़तोड़ बरसते पानी का उपयोग भूमिगत एक्वीफर के पुनर्भरण के लिए करना होगा। किसानों को प्रोत्साहन देकर खेतों के चारों तरफ ऊंची मेढ़ बनानी होगी, जिससे वर्षा का पानी खेत में टिके और भूमि में रिसे। साथ-साथ नालों में विशेष प्रकार के ‘‘रिचार्ज’’ कुएं बनाने होंगे, जिनसे जमीन में पानी डाला जाता है। गांव तथा शहर के तालाबों को साफ करना होगा जिससे इनमें पानी इकट्ठा हो और भूमि में रिसे। दूसरे, बड़े बांधों को हटाना होगा। इन बांधों की क्षमता सूई की नोक के बराबर है। जैसे टिहरी बांध मे 2.6 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी का भंडारण करने की क्षमता है। इसकी तुलना में उत्तर प्रदेश के भूमिगत एक्वीफरों की क्षमता 76 बिलियन क्यूबिक मीटर पर लगभग 30 गुना है। टिहरी को हटा दें और बाढ़ को फैलने दें तो टिहरी से ज्यादा पानी भूमिगत एक्वीफरों में समा सकता है। यूं भी टिहरी जैसे बांधों की आयु सीमित है। तीसरे, नदियों के किनारे बनाए गए सभी बांधों को हटा देना चाहिए। बाढ़ को लाना नदी का स्वभाव है। बाढ़ से मनुष्य को आत्मसात करना चाहिए। कुछ वर्ष पहले गोरखपुर में बाढ़ का अध्ययन करने का अवसर मिला था। लोगों ने बताया कि पूर्व में बाढ़ का पानी फैल कर पतली चादर जैसे बहता था। गांव ऊंचे स्थानों पर बनाए जाते थे और सुरक्षित रहते थे। धान की ऐसी प्रजातियां लगाई जाती थीं जो बाढ़ में भी अनाज पैदा करती थीं। बाढ़ के साथ जीने की पुरानी कला को अंगीकार करना होगा अन्यथा हम भीषण बाढ़ मे डूब जाएंगे और भीषण सूखे में भूखे मरेंगे।
ई-मेल : bharatjj@gmail.com
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