बैंकिंग घोटालों से त्रस्त पब्लिक 

By: Jul 20th, 2018 12:05 am

अनुज कुमार आचार्य

लेखक, बैजनाथ से हैं

भारत में सरकारी इदारों में भ्रष्टाचार का इतिहास वर्षों पुराना रहा है। अपने स्वार्थ एवं महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति हेतु नैतिक मूल्यों एवं आदर्शों से समझौता कर सुख-सुविधाओं की पूर्ति और धन लाभ हेतु अनैतिक आचरण के नित नए किस्से अखबारों एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया की सुर्खियां बने रहते हैं। आजादी के बाद से ही हम स्विस बैंकों में जमा कालेधन की बातें सुनते आ रहे हैं, लेकिन मजाल है जो आज 70 वर्षों बाद भी कोई फूटी कौड़ी वहां से वापस देश में आई हो। भारत में आज हालात इतने वीभत्स हो चुके हैं कि सभी अपनी-अपनी झोलियों को भरने में जुटे हुए हैं, गरीब और देश जाए भाड़ में। पिछले कुछ वर्षों से देश में बैंकों की भूमिका बढ़ी है। एक तरफ तो बैंकिंग सेक्टर में सेवारत कर्मचारियों पर काम का बोझ 2 गुना बढ़ा है, तो वहीं बैंकिंग सेक्टर में घोटालों की बाढ़ सी आ गई है। पिछले 5 सालों में ही बैंकों में 23 हजार 866 घोटाले उजागर हुए हैं। आज बैंकों का एनपीए आठ लाख चालीस हजार करोड़ रुपए तक जा पहुंचा है, जिसमें से 90 फीसदी हिस्सा सरकारी बैंकों का है, जबकि बैंकिंग घोटालों की रकम एक लाख करोड़ तक जा पहुंची है। निष्पादित परिसंपत्तियां बैंकों द्वारा दी गई वह ऋण राशि होती हैं, जिसकी वसूली करने में बैंक नाकाम रहते हैं। यह ऋण भी अमूमन तथाकथित बड़े रसूखदारों एवं बिजनेसमैन घरानों को दिया जाता है, जैसे-विजय माल्या, नीरव मोदी और मेहुल चौकसी आदि। यहां यह बात भी विचारणीय है कि बैंकों के एनपीए के लिए जिम्मेदार कथित बड़े लोगों का कुछ भी नहीं बिगड़ता है, क्योंकि वह बैंकों का रुपया हजम कर विदेशों में जा बैठते हैं और बैंक फिर अपने छोटे कर्जदारों की छाती पर चढ़ बैठते हैं। ऐसा भी देखने में आता है कि बड़े बैंक अधिकारियों द्वारा ब्रांच मैनेजरों पर दबाव बनाकर छोटे ग्राहकों पर कई तरह की बाध्यताएं थोप दी जाती हैं। यहां तक कि त्रैमासिक, वार्षिक एवं न्यूनतम बैलेंस रखने के नाम पर भी ग्राहक की जानकारी के बिना उनके खातों से सैकड़ों रुपए की निकासी कर ली जाती है और अपना घाटा पूरा करने का प्रयास किया जाता है। 1988 में भारतीय संसद द्वारा पारित भ्रष्टाचार निरोधक केंद्रीय कानून तो है, लेकिन कितने लोग आज तक इस कानून की पकड़ में आए हैं? सवाल उठता है कि यदि मान भी लें कि बैंक घोटालों के लिए सभी कर्मचारी जिम्मेदार नहीं हैं, तो फिर भी वे कौन सी नीतियां हैं जिनके अनुपालन के चलते लगातार घोटाले हो रहे हैं? पहले बैंक कर्मचारियों से गलत काम करवाए जाते हैं, फिर उन्हीं पर सख्ती भी की जाती है। आज की तारीख में अधिकतर बैंक अधिकारियों को देर रात तक बैंकों में काम करते हुए देखा जा सकता है। देश के बैंक घोटालों में 92 फीसदी मामले लोन से जुड़े होते हैं, लेकिन असली गुनहगार पकड़ से बाहर ही रहते हैं। ऊपर से राजनीतिज्ञों द्वारा ऐसे मामलों में राजनीति की जाती है। विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि बैंकिंग तंत्र में ऊंचे पदों पर बैठे बड़े ओहदेदारों को मिलने वाले वेतन-भत्ते इतने मामूली हैं कि वह गलत तरीकों से कारपोरेट जगत को खुले हाथों से ऋण लुटाते हैं। विशेषज्ञों के अनुसार बड़े उद्योगपतियों को दिए जाने वाले सौ रुपए के ऋण में से यदि 19 डूब रहे हैं, तो वहीं आम आदमी के मात्र 2 रुपए, लेकिन बेंकों द्वारा यह 2 रुपए भी वसूल लिए जाते हैं। मतलब साफ है कि व्यवस्था को चलाने में आम जनता ही महत्त्वपूर्ण योगदान दे रही है। आम आदमी या सरकारी कर्मचारी को लोन लेना हो, तो बैंकों द्वारा दस्तावेजों के नाम पर तरह-तरह की कसरत करवाई जाती है। यदि एक किस्त भी जमा करने में देरी हो जाए, तो बैंकों से फोन आने शुरू हो जाते हैं, लेकिन बड़े घरानों को दो-तीन दिन में ही करोड़ों रुपए का कर्ज स्वीकृत हो जाता है। क्या कारण है कि बैंक खातों का नियमित ऑडिट होने के बावजूद सालों-साल घोटाले पकड़ में नहीं आते हैं? अब वक्त आ गया है कि आम नागरिकों का व्यवस्था के प्रति भरोसा बहाल हो, इसके लिए प्रत्येक स्तर पर भ्रष्टाचार पर नकेल कसी जाए और दोषियों को दंड दिया जाए।

 


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