भारत-अमरीका के बिगड़ते संबंध

By: Jul 9th, 2018 12:10 am

कुलदीप नैयर

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं

ऐसा बताया जाता है कि अमरीका ने भारत से कहा है कि वह इरान से तेल का आयात न करे। नई दिल्ली ने स्पष्ट किया है कि वह वाशिंगटन को बता चुकी है कि हमारा इरान से तेल आयात करने को लेकर दीर्घावधि समझौता है, क्योंकि इस देश ने हमें विश्वास दिलाया है कि वह अपेक्षाकृत सस्ते दामों पर तेल की नियमित आपूर्ति करेगा। भारत और अमरीका में जो समझ थी, वह अचानक ट्रंप के कारण तिरोहित हो गई है, जिन्होंने अमरीकी राज्य सचिव तथा भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के बीच बातचीत को रद कर दिया है। स्वाभाविक रूप से नई दिल्ली को इस तरह के दबाव ने नाराज किया है…

एक ऑटोक्रेट वास्तव में लोकतांत्रिक प्रणाली को उखाड़ सकता है। यह वही है जो अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कर रहे हैं। वह साथ ही एक साम्राज्यवादी ताकत में स्वयं को बदलने की कोशिश भी कर रहे हैं। भारत की अमरीका के साथ अच्छी समझ है तथा दोनों लोकतांत्रिक देश अस्त-व्यस्त विश्व में अपनी राह साथ मापते रहे हैं। अमरीका जहां सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र का प्रतीक है, वहीं भारत सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है। ऐसा बताया जाता है कि अमरीका ने भारत से कहा है कि वह इरान से तेल का आयात न करे। नई दिल्ली ने स्पष्ट किया है कि वह वाशिंगटन को बता चुकी है कि हमारा इरान से तेल आयात करने को लेकर दीर्घावधि समझौता है, क्योंकि इस देश ने हमें विश्वास दिलाया है कि वह अपेक्षाकृत सस्ते दामों पर तेल की नियमित आपूर्ति करेगा। भारत और अमरीका में जो समझ थी, वह अचानक ट्रंप के कारण तिरोहित हो गई है, जिन्होंने अमरीकी राज्य सचिव तथा भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के बीच बातचीत को रद कर दिया है। स्वाभाविक रूप से नई दिल्ली को इस तरह के दबाव ने नाराज किया है।

फिर भी उसका विश्वास है कि दोनों देशों के बीच वार्ता से मतभेद सुलझा लिए जाएंगे। इस बीच अमरीका के राज्य सचिव माइक पांपेओ ने विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से बात की तथा अपरिहार्य कारणों के चलते 2 प्लस 2 वार्ता को स्थगित करने पर दुख तथा निराशा व्यक्त की। उन्होंने भारत की विदेश मंत्री को समझाने की कोशिश भी की तथा दोनों इस बात पर सहमत हुए कि जल्द से जल्द वार्ता करने के लिए सुविधाजनक तिथियों की पहचान की जाएगी। हालांकि इस घटनाक्रम कि संयुक्त राष्ट्र में अमरीकी राजदूत निक्की हैले ने कई मसलों पर भारत के उच्च स्तरीय नेतृत्व से बात की, पर अमरीका की ओर से कुछ भी औपचारिक रूप से नहीं कहा गया। फिर भी यह तब काफी स्पष्ट हो गया, जब राज्य विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने संकेत दिया कि इरान पर अमरीका जो कुछ करने की सोच रहा है, उसमें कोई छूट नहीं मिलेगी। यूरोप और एशिया में अपने सहयोगियों को संदेश देने के अलावा स्टेट एंड ट्रेजरी डिपार्टमेंट के अधिकारियों की इंट्रा-एजेंसी टीम भारत, चीन व अन्य देशों का आने वाले हफ्तों में दौरा कर अमरीका के विचारों से अवगत कराएगी। कुछ सालों से इरान व भारत एक समझ विकसित कर चुके हैं, जहां तेल कूटनीति ने विशेष लाइन को डिक्टेट नहीं किया। दोनों देशों ने भारत द्वारा उत्पादित वस्तुओं के विनिमय में तेल की आपूर्ति के संबंध में एक दीर्घावधि समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। हालांकि अमरीका ने पहले इरान के खिलाफ प्रतिबंध लगाए थे, यह भारत को इरान के साथ संबंधों को पुनः परिभाषित करने के लिए राजी नहीं कर पाया। यहीं पर चीजें छोड़ दी गई थीं। अब ट्रंप अपने शब्दों की व्यापकता चाहते हैं।

तेल और गैस के क्षेत्र में पारस्परिक सहयोग के महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों के बीच भारत व इरान ने व्यापकता आधारित सहयोग को प्रोमोट करने के लिए संयुक्त मशीनरी को भी विकसित किया है। दोनों पक्ष रक्षा के क्षेत्र में सहयोग के लिए भी राजी हुए हैं, जिसके तहत कई दौरे किए जाएंगे तथा इसमें प्रशिक्षण को भी शामिल किया गया है। समझौते के अनुसार भारत व इरान का रक्षा सहयोग किसी तीसरे देश के खिलाफ लक्षित नहीं है। द्विपक्षीय व्यापार व आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देने के लिए प्रयास करने पर भी सहमति बनी है। इसके अंतर्गत गैर-तेल व्यापार और आधारभूत परियोजनाओं में निवेश भी होगा। चाबहार बंदरगाह को विकसित करने, चाबहार-फहराज-बाम रेलवे लिंक तथा सहमति के स्थलों पर मैरीन आयल टैंकिंग टर्मिनल विकसित करने पर भी सहमति बनी हुई है। भारत में ढांचागत परियोजनाओं में इरान का निवेश व सहभागिता भी बढ़ाई जाएगी। नई दिल्ली को अपने हितों का भी ध्यान रखना होगा। वाशिंगटन के कहने पर ही उसने इरान से आयात में कमी की है, जो उसके साथ एक एडजस्टमेंट की तरह है। परंतु भारत अब इससे आगे नहीं जा सकता है, क्योंकि इससे उसे नुकसान ही होगा। अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलकर आतंकवाद के खिलाफ साझा लड़ाई लड़ने का पहले ही संकल्प प्रकट कर चुके हैं तथा दोनों देशों के मध्य मित्रता  और पारस्परिक सहयोग के आधार भी प्रतिस्थापित कर चुके हैं। अमरीका यह बात भी कह चुका है कि वह चीन की ओर से पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में चलाई जा रही आर्थिक गतिविधियों पर भारत की चिंताओं से सहमत है, लेकिन अब वह अपने सामान्य रुख से बाहर होता चला जा रहा है। ट्रंप ने जब अपना चुनाव प्रचार किया था, तब उन्होंने भारत को अपना सच्चा मित्र कहा था। उन्हें इस बात को भी याद रखना होगा। उन्होंने उस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व भारतवासियों के प्रति संजीदगी दर्शाते हुए एक नए सहयोगी वातावरण की अपेक्षा जाहिर की थी। मोदी को उन्होंने उस वक्त वैश्विक नेता की संज्ञा दी थी। इसी कारण दोनों देशों की जनता के बीच कुछ सकारात्मक भावनाएं विकसित हुई थीं और भारतीय जनता ने उनकी जीत की कामना भी की थी। इससे पहले का समय भी देखें तो अमरीका में जॉन एफ. कैनेडी, बिल क्लिंटन व बराक ओबामा जैसे नेता हुए हैं जो भारत के प्रति मैत्री भाव रखते थे या रखते हैं। उन्होंने भारत की रणनीतिक व विकासात्मक आवश्यकताओं में मदद की दिशा में थोड़े प्रयास किए। वे इस विचार के थे कि पाकिस्तान को गलत रुख अपनाने पर घेर भी सकते थे। नई दिल्ली ने उनसे कभी यह अपेक्षा नहीं की कि वे कुछ ऐसा करेंगे जो पाकिस्तान के पक्ष में लगे, लेकिन राष्ट्रपति ट्रंप अमरीका की पुरानी नीति से अलग होते दिखाई दे रहे हैं। दोनों देशों ने आतंकवाद के खिलाफ साझा लड़ाई लड़ने का जो संकल्प लिया है, वह नई दिल्ली के लिए एक बड़ी कूटनीतिक जीत है। दूसरी ओर पाकिस्तान के लिए यह बड़ा झटका है, जो हिजबुल के आतंकवादियों को स्वतंत्रता सेनानियों के रूप में विभूषित करता रहता है। राष्ट्रपति ट्रंप की निजी टिप्पणी है, ‘दोनों देश आतंकवाद के शिकार रहे हैं, अतः आतंकवाद व कट्टरवाद के खिलाफ दोनों का सहयोग प्राकृतिक है। दोनों देश कट्टरवादी इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ साझा लड़ाई लड़ेंगे। दोनों देशों के बीच सुरक्षा सहयोग भारत व अमरीका दोनों के लिए महत्त्वपूर्ण है।’ दोनों देशों के बीच मित्रता आगे बढ़ रही थी।

मोदी ने अमरीका का भी दौरा किया तथा ट्रंप ने अपनी पुत्री इवांका को भारत दौरे पर भेजा। मोदी ने भी अपने तौर पर घोषित किया कि अमरीका, भारत का प्रमुख सहयोगी है। भारत के सामाजिक व आर्थिक बदलावों में उसकी भूमिका प्रमुख रहेगी, लेकिन हाल में जो कुछ हुआ है, वह अमरीका की अलग तस्वीर पेश कर रहा है। अमरीकी राष्ट्रपति के साथ अपनी पहली बैठक में मोदी ने तुरुप का पत्ता चालाकी से चला था। केंद्र में सत्ता पर काबिज होने के बाद मोदी की पार्टी ने धीरे-धीरे राज्यों पर कब्जा जमाने में भी सफलता हासिल कर ली। अब मोदी को जो चाहिए, वह है पूरी अंतरराष्ट्रीय मान्यता। ऐसी स्थिति में जबकि चीन खुले रूप से पाकिस्तान का समर्थन कर रहा है, अमरीका से भारत के सद्भावना वाले संबंध अधिक कारगर सिद्ध हो सकते थे। प्रधानमंत्री मोदी अथवा उनकी पार्टी भाजपा इस बात को झुठला नहीं सकते हैं। ऐसी स्थिति में तथा अगले साल आम चुनावों को देखते हुए मोदी अमरीका के साथ नरम रुख अपना सकते हैं। उन्हें मतदाताओं को भी कोई संदेश देना होगा। ऐसा करना ठीक रहेगा या गलत, यह आगामी लोकसभा चुनाव के आने वाले परिणामों से स्पष्ट हो जाएगा।

ई-मेल : kuldipnayar09@gmail.com


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