यूनिवर्सिटियों की रैंकिंग कीजिए

By: Jul 24th, 2018 12:07 am

डा. भरत झुनझुनवाला

लेखक, आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणीकार हैं

इस समस्या का समाधान यह हो सकता है कि उच्च शिक्षा को सरकार द्वारा अवश्य अनुदान दिया जाए, लेकिन यह अनुदान केवल यूनिवर्सिटी पर सरकार के स्वामित्व के आधार पर न दिया जाए, बल्कि शिक्षण संस्था के कार्य की गुणवत्ता के आधार पर दिया जाए। जैसे देश की सभी सरकारी एवं प्राइवेट यूनिवर्सिटियों की रैंकिंग की जा सकती है। देखा जा सकता है कि इनके प्रोफेसरों ने कितने पर्चे छापे, उनमें से कितने विदेशी पत्रिकाओं में छपे, कितनी कान्फ्रेंस की गई इत्यादि। इस प्रकार के रैंक के आधार पर जो शिक्षण संस्थाएं ऊंचे रैंक पर आएं, उन्हें सरकार अनुदान दे…

देश में सरकार द्वारा उच्च शिक्षा संस्थाओं, जैसे यूनिवर्सिटी आदि को धन का आवंटन वर्तमान में यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन द्वारा किया जाता है। सरकार ने मन बनाया है कि यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन को समाप्त करके इसके स्थान पर उच्च शिक्षा नियामक आयोग बनाया जाए। यह तो रही नाम बदलने की बात। मुख्य विषय यह है कि क्या नए आयोग द्वारा उच्च शिक्षा की मौलिक समस्याओं को हल किया जाएगा अथवा पुराने पानी को नई बोतल में ही पेश किया जाएगा?

उच्च शिक्षा की मुख्य समस्या जवाबदेही का अभाव है। सरकारी यूनिवर्सिटियों में प्रोफेसरों को छूट होती है कि वे कक्षा लें या न लें, रिसर्च करें या न करें, अथवा यूनिवर्सिटी आएं या न आएं। एक केंद्रीय यूनिवर्सिटी के कुलपति ने मुझे बताया कि प्रोफेसरों द्वारा दिन में एक कक्षा भी पढ़वाना बहुत कठिन हो गया है। उच्च शिक्षा के इस खस्ता हाल का मुख्य कारण है कि उच्च शिक्षा को हम सार्वजनिक माल के रूप में देखते हैं। अर्थशास्त्र में दो प्रकार के माल माने जाते हैं। एक प्राइवेट माल माना जाता है, जैसे-मोबाइल फोन, कपड़ा, जूता इत्यादि। इन वस्तुओं को उपभोक्ता स्वयं बाजार से व्यक्तिगत स्तर पर हासिल कर सकता है और इसमें सरकारी दखल की आवश्यकता नहीं होती है। दूसरा पब्लिक यानी सार्वजनिक माल माना जाता है, जैसे-पुलिस व्यवस्था, मुद्रा, सेना इत्यादि। इन सेवाओं को उपभोक्ता अपने व्यक्तिगत स्तर पर हासिल नहीं कर सकता है। जैसे-अगर आप चाहें कि आप अपना नोट छापें, तो उस नोट की प्रमाणिकता नहीं होती है। इसलिए इन सार्वजनिक माल को उपलब्ध कराना सरकार की प्रमुख जिम्मेदारी है। अब प्रश्न है कि उच्च शिक्षा प्राइवेट माल है या पब्लिक माल? उच्च शिक्षा के दो पक्ष हैं। एक पक्ष यह है कि छात्र द्वारा उच्च शिक्षा उसी प्रकार खरीदी जाती है, जैसे व्यक्ति नाई से बाल कटाने की सेवा अथवा टैक्सी चालक से यात्रा की सेवा हासिल करता है।

उच्च शिक्षा का दूसरा पक्ष है कि यद्यपि शिक्षा छात्र विशेष द्वारा हासिल की जाती है, लेकिन शिक्षित छात्र का समाज को लाभ मिलता है। जैसे किसी छात्र ने बैचलर आफ इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त की, तो उसके द्वारा जो इंजीनियरिंग के आविष्कार किए जाएंगे, उसका लाभ पूरे समाज को होता है। इसलिए उच्च शिक्षा प्राइवेट माल होने के बावजूद विशेष गुणवत्ता वाला प्राइवेट माल माना जाता है और उच्च शिक्षा के इस सामाजिक प्रभाव को देखते हुए, सरकार द्वारा इसे अनुदान किया जाता है। अर्थात मूल रूप से उच्च शिक्षा प्राइवेट माल है और इसमें सरकार की दखल अनिवार्य नहीं है। आज वैश्विक स्तर पर हार्वड जैसी यूनिवर्सिटी तथा अपने देश में एमिटी जैसी यूनिवर्सिटी प्राइवेट क्षेत्र में अच्छा कार्य कर रही हैं। इससे प्रमाणित होता है कि उच्च शिक्षा में सरकारी दखल जरूरी नहीं है, लेकिन उच्च शिक्षा के सामाजिक सुप्रभाव को देखते हुए सरकार इसे बढ़ावा देना चाहती है और इसे अनुदान देती है। सरकार के इस मन्तव्य का लाभ उठाकर हमारी यूनिवर्सिटियों को प्रचुर मात्रा में धन उपलब्ध हो रहा है, साथ ही इस धन का दुरुपयोग हो रहा है। प्रोफेसर न तो पढ़ाना चाहते हैं, न ही रिसर्च करना चाहते हैं। शिक्षा का कथित सामाजिक सुप्रभाव तो केवल अपना वेतन उठाने का एक बहाना है। इस समस्या का समाधान यह हो सकता है कि उच्च शिक्षा को सरकार द्वारा अवश्य अनुदान दिया जाए, लेकिन यह अनुदान केवल यूनिवर्सिटी पर सरकार के स्वामित्व के आधार पर न दिया जाए, बल्कि शिक्षण संस्था के कार्य की गुणवत्ता के आधार पर दिया जाए। जैसे देश की सभी सरकारी एवं प्राइवेट यूनिवर्सिटियों की रैंकिंग की जा सकती है।

देखा जा सकता है कि इनके प्रोफेसरों ने कितने पर्चे छापे, उनमें से कितने विदेशी पत्रिकाओं में छपे, कितनी कान्फ्रेंस की गई, इन कान्फ्रेंस में कितने विदेशी प्रोफेसर आए, संस्था ने कितनी आय फीस अथवा कंसल्टेंसी अथवा रिसर्च प्रोजेक्ट से अर्जित की और संस्था में कितने विदेशी स्टूडेंट हैं। इस प्रकार के रैंक के आधार पर जो शिक्षण संस्थाएं ऊंचे रैंक पर आएं, उन्हें सरकार अनुदान दे और जिनकी रैंक न्यून हो उनके अनुदान में कटौती करे। ऐसा करने से सरकारी यूनिवर्सिटियों की जवाबदेही स्वतः स्थापित हो जाएगी और सरकार द्वारा दिया गया अनुदान उन्हीं यूनिवर्सिटियों को जाएगा, जो वास्तव में पढ़ा रही हैं अथवा रिसर्च कर रही हैं। यह अनुदान प्राइवेट यूनिवर्सिटियों को भी दिया जाना चाहिए। जहां तक शिक्षा के देश के ऊपर सुप्रभाव का सवाल है, वह सरकारी अथवा प्राइवेट यूनिवर्सिटी का बराबर पड़ता है। देश को चाहिए अच्छे वैज्ञानिक तथा अच्छे विद्वान। देश को इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि वह विद्वान सरकारी यूनिवर्सिटी में पढ़ा है अथवा प्राइवेट यूनिवर्सिटी में, बल्कि प्राइवेट यूनिवर्सिटी को अनुदान ज्यादा दिया जाना चाहिए। कारण यह है कि सरकारी यूनिवर्सिटी को जमीन तथा बिल्डिंग के लिए सरकार ने पहले ही बड़ी मात्रा में अनुदान दे रखा है। इसलिए उनकी ज्यादा जवाबदेही बनती है। उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे प्राइवेट यूनिवर्सिटी की तुलना में अच्छा काम करेंगे। अतः सरकार को चाहिए कि प्राइवेट यूनिवर्सिटियों को भी सरकारी यूनिवर्सिटियों के बराबर रैंक करे और उन्हें भी समतुल्य मात्रा में अनुदान दे। सरकार के अनुदान में इस फेरबदल से एक प्रभाव यह होगा कि यूनिवर्सिटियों द्वारा छात्रों से वसूल की गई फीस में वृद्धि की जा सकती है। यूनिवर्सिटियों का प्रयास रहेगा कि अच्छे प्रोफेसरों की नियुक्ति करें और जिन्हें अच्छे वेतन भी देने पड़ेंगे। फीस में इस वृद्धि का दुष्प्रभाव होगा कि गरीब एवं आम छात्र के लिए यूनिवर्सिटियों में पढ़ना कठिन हो जाएगा, जो कि हमारी सामाजिक समरसता के ऊपर आघात होगा।

इस समस्या का उपाय यह है कि विश्वविद्यालयों को दिए जाने वाले अनुदान की आधी रकम को विश्वविद्यालयों को उपरोक्त रैंक के आधार पर आवंटित कर दिया जाए, शेष आधी रकम को विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने वाले छात्रों को वाउचर के माध्यम से बांट दिया जाए। पूरे देश में नीट की तर्ज पर एक परीक्षा की जाए और इस परीक्षा में जो श्रेष्ठ एक प्रतिशत छात्र हों, उन्हें 25 हजार रुपए प्रतिमाह का वजीफा दिया जाए, जिससे वे अपनी पसंद के सरकारी या प्राइवेट स्कूल की फीस अदा कर सकें। जो दो से दस प्रतिशत की रैंक में आएं, उन्हें दस हजार रुपए प्रतिमाह का वजीफा दिया जा सकता है। ऐसा करने से जो आर्थिक रूप से कमजोर और शैक्षिक रूप से अच्छे छात्र होंगे, वे वजीफा के आधार पर उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकेंगे। सरकार द्वारा उच्च शिक्षा नियमित आयोग बनाने का स्वागत है। इसे गठित करना एक सार्थक कदम होगा, यदि उपरोक्त परिवर्तन किए गए अन्यथा यह कदम पुराने पानी को नई बोतल में पैक करना मात्र बनकर रह जाएगा।

ई-मेल : bharatjj@gmail.com


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