राजनीति के शून्य में पिसते भारतवासी

By: Jul 26th, 2018 12:10 am

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

सरकार की कमियों पर सरकार की निंदा कर देना मात्र विपक्ष की परिभाषा नहीं है। जब तक विपक्ष देश के विकास की कोई वैकल्पिक योजना पेश नहीं करता, तब तक उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है। यह देश का दुर्भाग्य है कि सत्तापक्ष हड़बड़ी में है और विपक्ष के पास देश को देने के लिए कुछ नहीं है। यह राजनीति का शून्य है और हम भारतवासी इसे भुगतने के लिए विवश हैं। दशकों तक सत्तासीन रहा देश का सबसे बड़ा विपक्षी दल अपनी जमीन खोता जा रहा है, क्योंकि वह देश के नागरिकों से दूर हो गया है…

इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी बहुत लोकप्रिय हैं और उनके प्रशंसकों की संख्या बहुत बड़ी है। भाजपा समर्थकों के लिए वह  आज भी न केवल ‘असली हिंदू प्रधानमंत्री’ हैं, बल्कि सही अर्थों में ‘विकास पुरुष’ भी हैं। मोदी के समर्थक उनके खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हैं। आप कितने ही तर्क दे लें, कितने ही तथ्य और आंकड़े पेश करें, सारी बातचीत एक सवाल पर खत्म हो जाती है कि ‘तो क्या हम कांग्रेस को वोट दें? मुलायम को वोट दें? मायावती को वोट दें? लालू को वोट दें? सामने और है कौन जिस पर विश्वास करें?’ ऐसा नहीं है कि यह तर्क बिलकुल बेतुका है। कांग्रेस, मुलायम या लालू के साथ जहां भ्रष्टाचार का मुद्दा जुड़ा है और हिंदूवादी उन्हें वोट देने को तैयार नहीं हैं, वहीं मायावती के साथ तो यह भी समस्या है कि उनके साथ सवर्ण हिंदू भी नहीं जुड़ेंगे। कोई और नेता ऐसा नहीं है, जिसकी राष्ट्रीय स्तर पर पहचान हो।

राहुल गांधी राष्ट्रीय स्तर पर जाने जाते हैं, तो लोग अभी उनको प्रधानमंत्री पद के काबिल नहीं मानते और शेष विपक्षी दल राहुल के नेतृत्व को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। यही कारण है कि विपक्ष का महागठबंधन रेत का महल है, उसका न जीवन है न विश्वसनीयता। यह समझना आवश्यक है कि उपचुनावों में जीत से देश के मूड का पता नहीं चलता। विपक्षी दलों ने यदि एक होकर चुनाव लड़ा, तो भाजपा का गणित बिगड़ेगा अवश्य, परंतु शायद सत्ता से बाहर वह फिर भी नहीं होगी। ज्यादा से ज्यादा यह होगा कि भाजपा के पास पूर्ण बहुमत न हो और उसे भी गठबंधन सरकार बनानी पड़े। सवाल यह है कि सत्तापक्ष के लिए यह स्थिति क्यों आई? ऐसा क्या हुआ कि सन् 2014 में मोदी ने अभूतपूर्व बहुमत हासिल किया था, लेकिन आज वह एक-एक सीट के लिए चिंता कर रहे हैं।

यह सच है कि प्रधानमंत्री मोदी ने कई अभिनव काम किए हैं। वह आधार कार्ड परियोजना के मुखर विरोधी थे, लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने न केवल इसे जारी रखा, बल्कि इसके अभिनव प्रयोग के जरिए बहुत सी चोरियों को रोका। सबसिडी में, मनरेगा में, अस्थाई कर्मचारियों की नियुक्ति में, सस्ते राशन जैसी कितनी ही सुविधाओं में लूट मची हुई थी। इन सब सुविधाओं को आधार कार्ड से जोड़ देने पर चोरियां रुक गईं। यह एक अभिनव प्रयास था और इसका श्रेय सिर्फ मोदी को है। प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने योजनाओं की बाढ़ ला दी। प्रधानमंत्री जन-धन योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना, प्रधानमंत्री सुकन्या समृद्धि योजना, सांसद आदर्श ग्राम योजना, राष्ट्रीय ग्राम स्वराज अभियान, दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, मेक इन इंडिया, स्वच्छ भारत अभियान, नमामि गंगे परियोजना, स्मार्ट सिटी मिशन, प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना, प्रधानमंत्री जन औषधि योजना आदि-आदि। यह एक लंबी सूची है। प्रधानमंत्री मोदी ने कई योजनाओं की घोषणा बिना किसी होमवर्क के कर दी। उसके पीछे अगर उनका कोई विजन था, तो उनके अधीनस्थों को उस विजन से कुछ भी लेना-देना नहीं था।

स्वच्छ भारत अभियान के शुरुआती दिनों में शहर के जिस कोने में नेता इकट्ठे होते थे, वहां उनके आने से कुछ समय पहले ही कूड़ा बिखराया जाता था। कुछ जगहों पर तो हाथ में झाड़ू लेकर सफाई करने निकले नेतागणों के झाड़ुओं ने जमीन को छुआ तक नहीं। गंगा की सफाई के लिए बाकायदा एक मंत्रालय खुला, लेकिन गंगा में गंदगी और बढ़ गई। प्रधानमंत्री ने गांवों के विकास के लिए बहुत सी योजनाओं का ऐलान किया, फर्क कहां पड़ा? गांवों के विकास की एक योजना के तहत विभिन्न सांसदों ने कुछ गांव ‘गोद’ लिए। खुद प्रधानमंत्री मोदी ने भी अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी के चार गांव गोद लिए, लेकिन उन्होंने चार साल में अपनी सांसद निधि से एक भी पैसा इन गांवों के विकास के लिए खर्च नहीं किया। अपनी ही घोषित योजना के प्रति जब प्रधानमंत्री का ही रवैया ऐसा होगा, तो वह अपने सांसदों से इस बारे में क्या पूछताछ करेंगे? मोदी की सभी योजनाओं का कमोबेश यही हाल है।

बिना किसी पूर्व तैयारी के सिर्फ घोषणाएं कर देने से विकास नहीं होता, नुकसान जरूर होता है, जैसा कि नोटबंदी और जीएसटी में हुआ। हमारी समस्या और भी ज्यादा बड़ी है। आज के विपक्षी दल कभी शासक दल थे। तब उनका कामकाज मोदी से भी कहीं अधिक निराशाजनक था, बेलगाम भ्रष्टाचार था, अनिर्णय की स्थिति थी, गठबंधन सरकार में शामिल छोटे-बड़े दल देश को लूट रहे थे और तत्कालीन प्रधानमंत्री अपनी खुद की ईमानदारी पर गर्व कर रहे थे। इन विपक्षी दलों की विश्वसनीयता इसलिए नहीं है, क्योंकि उनके सत्तासीन रहने के दौरान जनता ने उनका भ्रष्टाचार और निकम्मापन दोनों देखा है। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर धर्म की राजनीति इन्हीं लोगों ने शुरू की, जब उन्होंने अल्पसंख्यक कल्याण के नाम पर उन्हें वोट बैंक का रूप दे दिया। यही नहीं, इतने सालों का शासन का अनुभव होने के बावजूद अब विपक्ष में रहते हुए उनके पास देश के विकास की कोई योजना नहीं है। सरकार की कमियों पर सरकार की निंदा कर देना मात्र विपक्ष की परिभाषा नहीं है।

जब तक विपक्ष देश के विकास की कोई वैकल्पिक योजना पेश नहीं करता, तब तक उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है। यह देश का दुर्भाग्य है कि सत्तापक्ष हड़बड़ी में है और विपक्ष के पास देश को देने के लिए कुछ भी नहीं है। यह राजनीति का शून्य है और हम भारतवासी इस राजनीतिक शून्य को भुगतने के लिए विवश हैं। दशकों तक सत्तासीन रहा देश का सबसे बड़ा विपक्षी दल अपनी जमीन खोता जा रहा है, क्योंकि वह देश के नागरिकों से दूर हो गया है। रैलियां करने, भाषण देने या सरकार की आलोचना कर लेने से किसी का पेट नहीं भरता। सत्ता में होने के बावजूद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह देश के सभी राज्यों के दौरे में व्यस्त हैं, वे अपने कार्यकर्ताओं से मिल रहे हैं, लेकिन राष्ट्रीय विपक्षी दल कांग्रेस की ओर से कार्यकर्ता मिलन का कोई सघन अभियान शुरू भी नहीं हुआ है। लगता भी नहीं है कि वह ऐसा कोई अभियान जल्दी शुरू करेगी। सच तो यह है कि कांग्रेस की तुलना में बहुत से प्रादेशिक दल अपने कार्यकर्ताओं से कहीं ज्यादा जुड़े हुए हैं। यह खेद का विषय है कि देश का आम नागरिक वस्तुतः एक कमजोर और उपेक्षित अल्पसंख्यक जैसा जीवन जी रहा है, क्योंकि वह किसी संगठित वोट बैंक का हिस्सा नहीं है। राजनीति में आज वोटर की नहीं, वोट बैंक की कीमत है। यह राजनीति का एक और शून्य है और हम इसे भुगतने के लिए विवश हैं। इस स्थिति से बचने का एक ही तरीका है कि देश के नागरिक खुद को वोटर मानें, वोट बैंक न बनें, वरना राजनीति का शून्य बना रहेगा और देश का विकास रुका रहेगा।

ईमेलः indiatotal.features@gmail.com


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