राहुल को ‘टोपी’ कबूल

By: Jul 13th, 2018 12:05 am

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पार्टी महाधिवेशन में सार्वजनिक मंच से खुद को ‘खानदानी हिंदू’ बताया था। किसी को आपत्ति नहीं। राहुल गांधी ने गुजरात चुनाव के दौरान 27 मंदिरों, उप्र चुनावों में 14 मंदिरों और कर्नाटक विधानसभा चुनाव में 19 मठ-मंदिरों में अपने आराध्यों के दर्शन किए। पूजा-पाठ भी किए, रुद्राक्ष माला भी धारण की और कांग्रेस ने अपने अध्यक्ष के ‘जनेऊधारी’ होने का खूब प्रचार भी किया। किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? फिर 2018 में रमजान के पाक महीने के दौरान इफ्तार पार्टी का आयोजन किया गया, तो राहुल गांधी ने 5-7 सेकेंड के लिए ‘मुस्लिम टोपी’ भी कबूल की और पहनने के बाद उतार भी दी। संविधान ने धार्मिक आस्था और आजादी का अधिकार दिया है, तो किसी को आपत्ति का क्या अधिकार है? कभी ‘जनेऊधारी’, तो कभी ‘टोपीधारी’, क्या राहुल गांधी ‘इच्छाधारी’ हैं? यह महज एक सवाल है, हमारी भी आपत्ति नहीं है। अब कांग्रेस अध्यक्ष ने करीब 20 करोड़ मुस्लिम आबादी में से करीब 30 मुस्लिम बुद्धिजीवी छांटे हैं और उनसे मुलाकात कर विमर्श किया है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने उन बुद्धिजीवियों से अपने ‘मन की बात’ साझा की है और उनके ‘मन की बात’ की थाह लेने की कोशिश की है। जितने बौद्धिक राहुल गांधी हैं, उतने ही इन मुस्लिम बुद्धिजीवियों को माना जा सकता है। कारण, इनमें ज्यादातर चेहरे ऐसे थे, जो खुद को ‘मुसलमान’ नहीं मानते और न ही मुस्लिम आबादी उन्हें अपना नुमाइंदा मानती रही है। बेशक इन कथित बौद्धिकों के नाम ‘मुस्लिम’ हैं। हमारा दावा है कि ये बुद्धिजीवी एक भी लोकसभा सीट पर कांग्रेस के संभावित उम्मीदवार की चुनावी जमानत तक नहीं बचा सकते, चुनावी जीत हासिल करना तो बहुत दूर की कौड़ी है। सवाल है कि फिर सलमान खुर्शीद और नदीम जावेद सरीखे कांग्रेस नेता ऐसे सूत्रधार क्यों बने, जिस बैठक से कांग्रेस या राहुल गांधी को किसी भी चुनावी फायदे के आसार नहीं हैं। हमें फिर भी इन मुलाकातों पर कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि लोकतांत्रिक देश में कोई भी किसी से मुलाकात कर सकता है, बातचीत कर सकता है, बशर्ते वह साजिशन न हो। लेकिन सवाल यह भी है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में करीब 38 फीसदी मुसलमानों ने कांग्रेस को वोट दिए, अब भी मुस्लिम वोट बैंक कांग्रेस समर्थक है, लेकिन यह भी सियासी हकीकत है कि यह वोट बैंक कई सियासी पार्टियों के बीच बंट चुका है और भाजपा की तरफ भी ध्रुवीकृत हो रहा है, फिर भी किस सियासत के तहत राहुल गांधी के सलाहकारों ने यह रणनीति तय की थी? बैठक में मुस्लिम इतिहासकार, फिल्मी गीतकार और अभिनेत्री, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता, योजना आयोग की पूर्व सदस्य, पूर्व आईएएस अधिकारी, सांसद बगैरह ने शिरकत की थी, जो अपने कुनबे को भी कांग्रेस को वोट देने को बाध्य नहीं कर सकते, तो फिर ऐसी रणनीति के सहारे 2019 के सपने कैसे देखे जा सकते हैं? सवाल यह भी है कि आजादी के 70 सालों के दौरान मुसलमान कांग्रेस से बंधे हुए रहे हैं और वोट बैंक की तरह इस्तेमाल होना उनकी मजबूरी रही है, फिर भी ज्यादातर कांग्रेस सरकारों के बावजूद उनका विकास क्यों नहीं हुआ? उनकी अशिक्षा और कंगाली समाप्त क्यों नहीं हो पाई? वे आज भी पिछड़े, दकियानूसी और दबे-कुचले, वंचित क्यों हैं? कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार के दौरान सच्चर कमेटी की ऐतिहासिक रपट पेश की गई थी, लेकिन उसकी 15-सूत्रीय सिफारिशों को लागू क्यों नहीं किया जा सका? कमोबेश मुसलमान कांग्रेस से ये सवाल तो पूछें कि आखिर कब तक इस्तेमाल किया जाता रहेगा? शायद मुसलमानों को शाहबानो का केस याद नहीं होगा। 1986 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि 70-साला शाहबानो को गुजारा-भत्ता दिया जाए, लेकिन राजीव गांधी सरकार के दौरान कांग्रेस की संसद में ताकत प्रचंड थी, लिहाजा संसद में प्रस्ताव पारित करा सुप्रीम कोर्ट के आदेश को निरस्त कर दिया गया। कांग्रेस की बुनियादी मुस्लिम सोच यही है, क्योंकि ‘तीन तलाक’ पर चर्चा के दौरान राहुल गांधी ने लोकसभा में बयान तक नहीं दिया और राज्यसभा में बिल लटकवा दिया। हमें इस दोगलेपन पर आपत्ति है, लिहाजा ऐसी बौद्धिक मुलाकातें ‘ढकोसला’ ही हैं। फिर भी राहुल गांधी अपनी राजनीति करने को स्वतंत्र हैं। इतना साफ लगता है कि कांग्रेस का एक बार फिर ‘साफ्ट हिंदुत्व’ पर विश्वास उठ गया है, लिहाजा वह पुरानी राह पर लौट चली है!


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