वनरोपण के साथ संरक्षण भी जरूरी

By: Jul 18th, 2018 12:10 am

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालयन नीति अभियान

इसलिए बेहतर यह होगा कि लोगों को समय-समय पर रोजगार देने और जरूरी काम निपटाने वाली विशेष व्यवस्था बनाई जाए। भले ही इसके लिए अलग कानून बनाना पड़े और ऐसी स्वयंसेवी भर्तियों पर 240 दिन में वर्कचार्ज करने की कानूनी बाध्यता को समाप्त करना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि कुछ भी करके राखा व्यवस्था को लागू करना चाहिए…

भारत वर्ष में आजादी के बाद 1950 से ही वनों के महत्त्व को समझते हुए हर वर्ष वनरोपण और संवर्धन को एक आंदोलन का रूप देने के प्रयास आरंभ हो गए थे। इसके लिए हर वर्ष बरसात में वन महोत्सव मनाकर वनरोपण का कार्य किया जाने लगा, जो आज तक जारी है। दुर्भाग्य से यह कार्य धीरे-धीरे एक कर्मकांड का रूप लेता गया, जिसे पूरा करना, फोटो खिंचवाना और भूल जाना ही हर वर्ष की एक रस्म बन गया। वन संरक्षण की कसमें खाना भी एक जरूरी कर्मकांड बन गया। यह सब तो ठीक है, किंतु उन कसमों को पूरा करने के लिए भी कुछ व्यवस्था करनी होती है, जो व्यावहारिक हो। वैसे तो पूरा का पूरा वन विभाग इसीलिए है, किंतु जमीनी स्तर पर कई छिद्र होते हैं, जिन्हें केवल उस स्तर पर कार्य करने वाले कर्मचारी ही समझते हैं। किंतु इस स्तर के कर्मचारियों की नीति निर्धारण में कोई भूमिका नहीं होती है, विशेषकर वन विभाग जैसे पुलिस संस्कृति वाले विभाग में तो इस तरह के संवाद की और भी कम संभावना होती है। परिणामस्वरूप संरक्षण कार्य की सारी जिम्मेदारी सबसे निचले स्तर के कर्मचारी, गार्ड पर आ जाती है। गार्ड की बीट इतनी बड़ी होती है कि उसमें वह संरक्षण कार्य को प्रभावी रूप से कर ही नहीं सकता। विशेषकर जब उसे और भी कई तरह के विभागीय कार्य करने होते हैं। वन विभाग ने जनरल तो बहुत बढ़ा लिए हैं, किंतु वन में असली संरक्षण कार्य करने वाली फौज तो गायब ही है। एक समय वह था जब केवल एक चीफ कंजर्वेटर से वन विभाग का कार्य चलता था, जंगल तो आज से ज्यादा ही थे। आज पांच-पांच प्रिंसिपल चीफ कंजर्वेटर तो हमने बना लिए हैं, किंतु मौके पर वन संरक्षण का असली काम करने के लिए, हमारे पास रखवाली करने के लिए राखा रखने के पैसे नहीं हैं।

अस्सी के दशक में जब चिपको आंदोलन का दौर था, तब परती भूमि विकास बोर्ड ने हिमाचल के देहर घाटी, साल घाटी और गढ़वाल के हेंवल घाटी में हरित हिमालय योजना द्वारा कुछ जन सहभाग से वनरोपण की योजना बनाई। उसके लिए सलाहकार के रूप में हमें भी सहयोग करने के लिए बुलाया गया। उस समय केंद्र में गीता कृष्णन जी पर्यावरण सचिव थे। परियोजना निर्माण के समय हमने यह बात उठाई कि अंग्रेजों के समय जिला कांगड़ा में लागू ‘राखा व्यवस्था’ को इस योजना में स्थान दिया जाए, तो सफलता दर में बहुत लाभ हो सकता है।

उन्होंने हमें तत्कालीन उप सचिव वन के साथ मामला रखने के लिए कहा, किंतु हम उप सचिव महोदय को इस मुद्दे पर सहमत करने में असफल रहे। उनका कहना था कि ये लोगों के हित का काम है, इसलिए लोग कम से कम संरक्षण की जिम्मेदारी तो संभालें। उन्होंने यह बात समझने से इनकार कर दिया कि पहाड़ में पशुओं का दबाव इतना अधिक है कि लगातार निगरानी के बिना अच्छा परिणाम प्राप्त करना संभव नहीं। योजना चली, कई जगह परिणाम भी बहुत अच्छे आए, योजना को डीआरडीए की निगरानी में पंचायतों द्वारा लागू करवाया गया। आज भी उस योजना के सफल वन देखने लायक हैं, किंतु उसकी कार्यविधि की जांच करने पर हमने पाया कि जिन प्रधानों या कुछ मामलों में रकबा प्रबंधन समितियों ने किसी तरह राखा स्वयंसेवक रखकर काम किया था, उनके परिणाम अन्य से कई गुणा अच्छे थे। किंतु बात आई-गई हो जाती है, हमारा प्रशासनिक ढांचा पिछले अनुभवों से सीखने का प्रयास कम ही करता है। इसके लिए कोई मान्य व्यवस्था भी शायद ही उपलब्ध होगी। विभाग में अच्छे लोग आते हैं, अच्छा काम करके चले भी जाते हैं, किंतु उनके अनुभव संकलन कहां हो पाते हैं? इस वर्ष भी 15 लाख पौधे लगाने का स्वागत योग्य लक्ष्य पूरा होने को है, किंतु रखवाली व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं आ पाया है। 15 लाख पेड़ लगाने के लिए लगभग 1500 हैक्टेयर में रोपण हुआ। 25000 रुपए प्रति हैक्टेयर की दर से इस पर 3 करोड़ 75 लाख रुपए खर्च हुए।

यदि प्रति 10 हैक्टेयर एक राखा रखा जाए, तो 150 राखे रखने पड़ेंगे, जिन्हें यदि 1500 रुपए प्रति मास मानदेय दिया जाए, तो पांच वर्ष में 1 करोड़ 35 लाख रुपए खर्च होंगे। एक पेड़ जो पर्यावरण सेवाओं के रूप में लाखों रुपए के बराबर सेवा करता है, ऐसे 15 लाख पेड़ों की रक्षा के लिए यह कोई बड़ी रकम नहीं है। जबकि हम कई गैरजरूरी कामों पर अरबों रुपए बहा  देते हैं। प्रचलित व्यवस्था के तहत भी पांच वर्षों तक रखरखाव के लिए इन रकबों को कुछ राशि दी जाती है, जो पहले वर्ष 30 प्रतिशत, दूसरे वर्ष 20 प्रतिशत, तीसरे वर्ष 15 प्रतिशत और बाद के दो वर्ष 5 प्रतिशत प्रति वर्ष के हिसाब से रखरखाव राशि दी जाएगी। कुल मिलाकर यह राशि 2 करोड़ 43 लाख हो जाती है। इसमें से ही 1 करोड़ 35 लाख राखों को देकर कुछ राशि अन्य मरम्मत कार्यों के लिए भी बच जाएगी।

इसमें अड़चन केवल इच्छाशक्ति और हायर एंड फायर नीति के अभाव की है। इस तरह की हायर एंड फायर भर्ती की व्यवस्था पहले करना आसान था, जब 240 दिन काम पर रखने के बाद वर्कचार्ज करने की मजबूरी वाला फैसला नहीं आया था। अब यह व्यवस्था इस डर से सभी विभागों ने बंद कर दी है, ताकि वर्कचार्ज करने के झंझट से बचा जा सके, क्योंकि इससे अनावश्यक बोझ बजट पर पड़ता है। काम खत्म होने के बाद ऐसे लोगों को बिना काम वेतन देना भी आसान काम नहीं है। इसलिए बेहतर यह होगा कि लोगों को समय-समय पर रोजगार देने और जरूरी काम निपटाने वाली विशेष व्यवस्था बनाई जाए। भले ही इसके लिए अलग कानून बनाना पड़े और ऐसी स्वयंसेवी भर्तियों पर 240 दिन में वर्कचार्ज करने की कानूनी बाध्यता को समाप्त करना चाहिए। राखों को अतिरिक्त प्रोत्साहन के रूप में 10 हैक्टेयर की राखी करने पर 5 पेड़ उसकी पसंद के इनाम के रूप में दिए जा सकते हैं और रकबे में 10 प्रतिशत घास अतिरिक्त दिया जा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि कुछ भी करके राखा व्यवस्था को लागू करना चाहिए। इससे कुछ रोजगार पैदा होने के साथ-साथ वन संरक्षण कार्य में गुणात्मक सुधार निस्संदेह आ सकेगा। इसमें अतिरिक्त आर्थिक बोझ भी नहीं पड़ेगा, केवल खर्च करने की व्यवस्था ही बदलनी होगी।


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