विष्णु पुराण

By: Jul 28th, 2018 12:05 am

गर्भेषु सुखलेशोऽपि भवद्दिनुमीयते।

यदि यत्कथ्यतोमेव सर्व दुःखमय जगत्।

तदेवमति दुःखायामास्पदेऽत्र भवार्णवे।

भवतां कथ्यते सत्यं विष्णुरेकः परायणः।

माजानीय वयं वाला देही देहेषु शाश्वतः।

जरायोवनजन्माद्या धर्मा देहस्य नात्मनः।

बालोऽहं तावदिच्छातो यतिष्ये श्रेयसे युवा।

युवाहं वार्द्ध के प्राप्ते करिष्याम्यात्मनो हितम्।

बद्धोऽहं मम कार्याणि समस्तानि न गोचरे।

किं करिष्यामि मन्दात्मा समर्थेन न यत्तम।

एव दुराशया क्षिप्तमानसः पुरुषः सदा।

श्रेयसोऽभिमुख याति न कदाचित्पिपासितः।

वाल्ये क्रीडनकासक्ता यौवने विषयोन्मुखाः।

अज्ञानयन्त्यशक्या च वार्द्धक समुपस्थितम।

तस्माद्वाल्ये विवेकात्मा यतेत श्रेयसे सदा।

बाल्यायौ वनवृद्धर्द्य र्देहभावैरसंयुतः।

गर्भ में रहने के समय क्या तुम्हें सुखभास हो सकता है। संपूर्ण विश्व इसी प्रकार दुःखी रहता है। इसलिए दुःखों के परमाधार इस भवसागर में केवल एक भगवान विष्णु ही सबकी परमगति है, मेरा यह कथन नितांत सत्य है। यदि तुम कहो कि अभी तो हम बालक ही तो आत्मा सभी अवस्थाओं में रहती है। वृद्धावस्था अथवा जन्मादि तो शरीर के धर्म हैं, आत्मा के नहीं हैं। जो मनुष्य इन दुराशाओं में मत्त रहता है कि अभी मैं बालक हूं, मेरे खेलने के दिन हैं कि अभी तो मेरी युवावस्था ही है। बुढ़ापा आने पर कुछ करूंगा और जब बुढ़ापा आ गया है, तब सोचता हूं कि मेरी कर्मेंद्रियां शिथिल हो चुकी हैं। इंद्रियां कर्मों में प्रवृत्त ही नहीं होती तो क्या करूं? पहले ही सशक्त रहने पर कुछ किया जा सकता था, इस प्रकार वह अपने कल्याण मार्ग पर कभी नहीं चढ़ता, केवल भोग की तृष्णा में ही लगा रहता है। मूर्ख मनुष्य बाल्यावस्था में असमर्थ हो जाते हैं, इसलिए विवेकी मनुष्य को बाल युवा या वृद्धावस्था का विचार न करके, बाल्यावस्था से ही अपने कल्याण कार्य में लग जाना चाहिए।

तदेतद्वो तयाख्यातं यदि जानीत नानृतम।

तदस्मत्प्रीतये विष्णु स्मर्यतां बन्ध मुक्तिदः।।

प्रयासः स्मरणे कोऽस्य स्मृतो यच्छति शोभनम।

पायक्षयश्च भवति स्मरतांतमहर्निशम्।।

सर्वभूतस्थिते तस्मिन्ममंत्री दिवानिशम।

भवतां जायतामेवं सर्बक्लेशान्प्रहास्यथ।।

तापत्रयेथाभिहत यदेतदखिलं जगत।

तदा शीच्येषु भूतेषु द्वेष प्राज्ञः करोत कः।।

अथ भद्राणिभूतानि हींनशक्तिरह परम।

मुद तदापि कुर्वीत हीनशक्तिरह परम।।

वद्धवैराणि भूतानि द्वेष कुर्वन्ति चेत्तत।

सुशोच्यान्यातमोहेन व्याप्तानीति मनीषिजाम्।।

एते भिन्नदृशा विकल्पाः कथिता मया।

कृत्वास्युपगम तत्र यक्षेपः श्रूयतां मम।।

यदि तुम मेरी बात को मिथ्या नहीं समझते हो, तो मेरी संतुष्टि के लिए ही मोक्षदायक भगवान विष्णु का स्मरण करो। उस कार्य में कोई परिश्रम भी नहीं है तथा स्मरणमात्र से ही वे अत्यंत शुभ फल प्रदान करते हैं और जो उनका दिन-रात स्मरण करते हैं, उनके पापों का भी क्षय होता है। सब भूतों में स्थित उन भगवान में तुम्हारी बुद्धि दिन-रात लगी रहे और उनमें निरंतर प्रेम-वृद्धि हो तो इससे सभी क्लेश दूर हो जाएंगे। जब यह संपूर्ण विश्व त्रिताप में जल रहा है, तो इन सोचनीय प्राणियों से कौन द्वेष करना चाहेगा। यह सोचकर कि दूसरे तो आनंद में हैं, मैं ही आसक्त हूं दुख न माने, क्योंकि द्वेष करता ही हो, तो वह महामोह में फंसा हुआ, प्राणी विचारवानों की दृष्टि में सोचनीय ही है। हे दैत्य बालको! मैंने विभिन्न दृष्टिकोण तुम्हारे सामने रखे हैं।


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