शिक्षा की दुरावस्था को राजनीति जिम्मेदार

By: Jul 13th, 2018 12:10 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

मैं कामना करता हूं कि हमारे यहां भी इस तरह के संस्थान खड़े किए जा सकते हैं तथा शिक्षा का मापदंड इतना ऊंचा उठाया जा सकता है कि अन्य राज्यों व देशों से छात्र पढ़ाई करने के लिए यहां आने लगें। एक बार मैंने एक पूर्व मुख्यमंत्री को हिमाचल में अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन महाविद्यालय खोलने का सुझाव दिया था। इससे टैलेंट को यहां आकर्षित किया जा सकता था, किंतु इसमें कोई रुचि नहीं ली गई। मैंने एक बार तत्कालीन योजना आयोग उपाध्यक्ष प्रणब मुखर्जी से भी इस तरह के संस्थान हिमाचल में खोलने की गुहार लगाई थी…

हिमाचल एक छोटा राज्य है जो गरीबी हटाने की दिशा में बढि़या काम कर रहा है। यह अतिरिक्त बिजली उत्पादन कर रहा है, साथ ही वनों के अधीन क्षेत्र को भी यह बढ़ा रहा है। वास्तव में यह प्रदूषण को नियंत्रित करने तथा एक बेहतर वातावरण के सृजन में बढि़या काम कर रहा है। इसके पास ऐसी वन संपदा है जो न केवल मौसमी विनाश की ज्वालाओं को बुझाती है, बल्कि यह उत्तराखंड व जम्मू-कश्मीर राज्यों के साथ मिलकर उत्तर भारत के फेफड़ों को साफ करने की धाराओं के रूप में भी काम करता है। कई साल पहले मैंने सरकार को सुझाव दिया था कि वह उन पड़ोसी राज्यों पर सैस लगाए जो मैदानों में बसे हैं। वनों के संरक्षण एवं पोषण के लिए ऐसा किया जाना था। वन दूसरे राज्यों को आवश्यक वातावरण उपलब्ध करवाते हैं। लेकिन हिमाचल को उद्योग के लिए भूमि का प्रयोग कर ज्यादा कमाई करने तथा जनता को रोजगार देने के लिए व्यापार शुरू करने से वंचित कर दिया गया। राज्य सरकार और राजनीतिक दलों की ओर से इस संबंध में कोई गंभीर अभियान भी नहीं चलाया गया। राज्य के लिए राजस्व का एक अन्य क्षेत्र है अच्छे शैक्षणिक संस्थानों का होना। इनके जरिए हम गुणवत्ता वाली शिक्षा के लिए हाई एंड अभिभावकों को आकर्षित कर सकते हैं। उत्कृष्टता वाले संस्थान थोड़े ही हैं जिन्हें ब्रिटिश राज में प्रोत्साहित व संरक्षित किया गया।  बिशप कॉटन, सनावर व सेंट मेरी जैसे संस्थान कुछ ऐसे हैं जिनकी इस संबंध में मिसाल दी जा सकती है। हालांकि जो लोग खर्चीली शिक्षा प्रणाली वहन करने के योग्य हैं, वे अपने बच्चों को पढ़ने के लिए दूसरे राज्यों अथवा विदेश भेज रहे हैं। मेरी अपनी पोतियों में से एक दिल्ली में, जबकि दूसरी किंग्स कालेज लंदन में पढ़ाई कर रही है।

अगर हमारे पास भी इस तरह के शैक्षणिक संस्थान होते, तो वे यहीं पढ़ाई कर सकती थीं। लेकिन मैं कामना करता हूं कि हमारे यहां भी इस तरह के संस्थान खड़े किए जा सकते हैं तथा शिक्षा का मापदंड इतना ऊंचा उठाया जा सकता है कि अन्य राज्यों व देशों से छात्र पढ़ाई करने के लिए यहां आने लगें। एक बार मैंने एक पूर्व मुख्यमंत्री को हिमाचल में अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन महाविद्यालय खोलने का सुझाव दिया था। इससे टैलेंट को यहां आकर्षित किया जा सकता था, किंतु इसमें कोई रुचि नहीं ली गई। मैंने एक बार तत्कालीन योजना आयोग उपाध्यक्ष प्रणब मुखर्जी से भी इस तरह के संस्थान हिमाचल में खोलने की गुहार लगाई थी। उनकी ओर से मुझे एक पत्र भी मिला था जिसमें आयोग की ओर से प्रारंभिक रूप से इसके लिए पांच करोड़ रुपए दिए जाने की पेशकश की गई थी, किंतु किसी ने इसमें रुचि नहीं ली। मैंने दिल्ली में फोर स्कूल आफ मैनेजमेंट की स्थापना की थी, जो भारत के टॉप टेन कालेजों की सूची में शामिल रहा। मुझे धीरे-धीरे पता चला कि हिमाचल के नेता बोनसाई कांप्लेक्स से प्रभावित हैं जो यह सोचते हैं कि इस तरह के संस्थान उनके प्रभाव से बाहर रहेंगे, इसीलिए वे इन्हें खोलने में कोई रुचि नहीं रखते। हम बड़ा कुछ नहीं सोचते हैं तथा टॉप पोजीशन प्राप्त करने में पीछे रहते हैं। नए मुख्यमंत्री को इस तरह की परिपाटी को तोड़ना होगा। यह भी एक तथ्य है कि हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय की रैंकिंग 172 से गिरकर 121 रह गई है। यह एक बड़ी गिरावट है।

मीडिया में अकसर यह खबरें आती रहती हैं कि यूनिवर्सिटी राजनीति के जंजाल में फंसती जा रही है। छात्रों के आंदोलनों व अकादमिक ठहराव के कारण भी अकसर यह विश्वविद्यालय चर्चा में रहता है। मैंने यूनिवर्सिटी के स्तर तथा कार्यशैली में गिरावट को लेकर कई शिक्षकों से बातचीत की। सभी इस बात से सहमत थे कि राजनीति ने हिमाचल में शिक्षा की यह दुर्दशा की है। इस संबंध में निरंतर रूप से केंद्रीय विश्वविद्यालय की मिसाल दी जाती है। इस मामले में नेताओं की राजनीति व वर्चस्व की जंग के कारण अभी तक इतने वर्षों बाद भी यह तय नहीं हो पाया है कि इसे कहां पर बनाया जाना है। प्रदेश को जब यह विश्वविद्यालय मंजूर हुआ था, तो उसी के साथ उत्तराखंड को भी सेंट्रल यूनिवर्सिटी दी गई थी। उत्तराखंड में विश्वविद्यालय को पूरे ढांचे के साथ सफलतापूर्वक काम करते हुए कई वर्षों हो गए हैं, किंतु हिमाचल में अभी यूनिवर्सिटी की लोकेशन ही तय नहीं हो पाई है जिससे अकादमिक जगत में निराशा व्याप्त हो गई है। हिमाचल में स्कूली शिक्षा की बात करें तो उसकी स्थिति सबसे बुरी है। इसके बारे में मैं पहले भी निरंतर रूप से टिप्पणियां कर चुका हूं। हिमाचल में यह बात आम हो गई है कि जब भी कोई मुख्यमंत्री किसी क्षेत्र या गांव का दौरा करता है तो वहां के लोग प्राइमरी, मिडल अथवा हाई स्कूल की मांग कर देते हैं। मतदाताओं को लुभाने के लिए नेता लोग स्पॉट पर ही स्कूल देने की घोषणा कर देते हैं, चाहे इसके लिए पात्रता न भी बनती हो।

स्कूल तो खुल जाते हैं किंतु कई-कई वर्षों तक वहां आधारभूत ढांचे व शैक्षणिक स्टाफ की पर्याप्त व्यवस्था नहीं की जाती है जिसके कारण खामियाजा छात्रों को भुगतना पड़ता है। स्कूल की जरूरत का अध्ययन किए बिना तथा विशेषज्ञों की राय लिए बिना इस तरह के स्कूल खोल दिए जाते हैं। मैंने जब कई गांवों का दौरा किया तो वहां के लोगों ने पर्याप्त शैक्षणिक स्टाफ न होने का रोना रोया। हिमाचल में इस समय 200 स्कूल ऐसे हैं जहां छात्रों की संख्या 10 से भी कम है। मैंने एक स्कूल ऐसा भी पाया जहां बच्चे की माता मिड डे मील अटेंडेंट है, जबकि पिता टीचर है। सरकारी स्कूलों की बदतर हालत के कारण पिछले पांच वर्षों में करीब दो लाख छात्रों ने स्कूलों से किनारा किया है। नए मुख्यमंत्री को इस तरह की परिपाटी को बंद करना चाहिए तथा विशेषज्ञों की सहमति पर ही स्कूलों को खोलने की अनुमति देनी चाहिए। हमें ऐसे स्तरीय शैक्षणिक संस्थान खोलने होंगे जो अन्य राज्यों व देशों से भी छात्रों को पढ़ाई के लिए आकर्षित कर सकें। शिक्षा के लिए एक बेहतर विजन वाली ठोस नीति बनानी होगी। क्या प्रदेश के नए मुख्यमंत्री हिमाचल को एक शिक्षा हब बनाने के लिए बेहतर कार्य कर पाएंगे?

बस स्टैंड

पहला यात्री : हिमाचल सरकार गवर्नेंस में सुधार के लिए आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का प्रयोग क्यों करना चाहती है?

दूसरा यात्री : क्योंकि उन्होंने नेचुरल इंटेलीजेंस का स्टॉक पूरी तरह खत्म कर डाला है।

 ई-मेल : singhnk7@gmail.com


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