शिक्षा प्रबंधन की नई तासीर

By: Jul 12th, 2018 12:05 am

शिक्षा प्रबंधन की नई तासीर समझने की कोशिश में हिमाचल के मंत्री सुरेश भारद्वाज प्रशंसा के पात्र माने जाएंगे। यह इसलिए भी कि विभाग के बीच मंत्री का होना दिखाई देता है। सरकारी स्कूलों में छात्रों की घटती संख्या को चुनौती मानकर देखा जाए, तो कई आधारभूत खामियां नजर आएंगी। कमोबेश इससे मिलती-जुलती स्थिति में सामान्य व इंजीनियरिंग कालेजों में भी छात्रों की हाजिरी कम हो रही है। ऐसे में सरकारी संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल के साथ-साथ तमाम शिक्षण संस्थानों की प्रासंगिकता का प्रश्न उठ रहा है। शिक्षा मंत्री सरकारी स्कूलों से पढ़कर निकले उस हिमाचल को बुला रहे हैं, जो अपने करियर की ऊंचाई पर यह कह सकता है कि उसके जीवन में अपने शिक्षण संस्थान की छत की अहम भूमिका रही है। बाकायदा सूचीबद्ध करके सरकारी शिक्षण संस्थानों से निकले आदर्श छात्रों को अपना दूत बनाकर सरकारी क्षेत्र अपनी हिफाजत करेगा। यह प्रयास अनूठा व प्रशंसनीय है, लेकिन हमें यह स्वीकार करना होगा कि मात्र दीवारों से कोई संस्थान नहीं बनता, बल्कि शिक्षक के चरित्र से शिक्षा परवान चढ़ती है। वर्षों पहले शिक्षक वर्ग के बीच जो प्रतिस्पर्धा व प्रतिबद्धता थी, उसके कारण स्कूल के भीतर ही एक तरह से अकादमी स्थापित हो जाती थी और जहां सरकारी अध्यापक विशेष तैयारी के जरिए छात्रों की काबिलीयत बढ़ाने के लिए अतिरिक्त समय देते थे। अब अध्यापक एक तरह की राजनीतिक पूंजी है और इसीलिए चाहकर भी सुरेश भारद्वाज अपनी पूर्व घोषित स्थानांतरण नीति से पर्दा नहीं उठा पा रहे हैं। आश्चर्य यह कि हमारे प्रयास इमारतों से विनती कर रहे हैं कि ये सरकार की छवि सुधार कर इन्हें निजी क्षेत्र के मुकाबले खड़ा कर दें, जबकि समस्या सरकारी नौकरी में आराम करती मानसिकता से जुड़ती है। दूसरा यह भी कि गलत चयन और सियासी दखल से नियुक्त होते रहे शिक्षक वर्ग के बीच एक नालायक व विशुद्ध सियासी मानसिकता का टापू तैयार हो चुका है। इस टापू पर बैठे शिक्षक केवल सियासत की खेती करते हैं, जबकि छात्र समुदाय इन्हें तिरस्कृत करके निजी स्कूलों के आश्रय में जा रहा है। हम यह प्रमाणित नहीं करते कि निजी स्कूलों के शिक्षक अधिक योग्य व दक्ष हैं, लेकिन यह जरूर कह सकते हैं कि वहां माहौल, समर्पण और जवाबदेही के साथ शिक्षा प्रदान की जा रही है। हमारा यह मत है कि सरकारी क्षेत्र को प्रतिस्पर्धा में उतरने के लिए ऐसे प्रबंधन की जरूरत है, जो हर मांग को नवाचार से पूरा करे। शहरी क्षेत्रों में असफल स्कूलों की बेशकीमती इमारतों का सदुपयोग यह नहीं कि वहां केवल प्रवासी मजदूरों के बच्चे पढ़ें, बल्कि सारी छवि को पलटने की आवश्यकता है। शहरी स्कूलों का संचालन या तो निजी क्षेत्र की भागीदारी में होना चाहिए या इन्हें सीबीएसई या आईसीएसई पाठ्यक्रम के तहत चलाना होगा। इसी तरह जो स्कूल किसी सरकारी या गैर सरकारी विश्वविद्यालय की परिधि में स्थित हैं, उन्हें ऐसे संस्थानों की गोद में दे देना चाहिए। कुछ शहरी व ग्रामीण स्कूलों को नए रोजगार या ऐसे रोजगार से जोड़ना होगा, जो छात्रों को गीत, संगीत, नृत्य, कला या खेलों के जरिए उपलब्ध हो रहा है। विभिन्न खेलों की अकादमी के रूप में अगर स्कूलों का संचालन किया जाए, तो बच्चों की अभिरुचि कल उनके करियर में तबदील हो सकती है। हिमाचल सरकार कालेजों में शिक्षा के स्तर को नए आयाम तक पहुंचाने के लिए दस उत्कृष्ट महाविद्यालयों को जिम्मेदारी सौंप रही है। रोजगार का शिखर चूमने के लिए यह कदम सराहनीय है, लेकिन ढर्रे की शिक्षा का शिविर जब तक नहीं हटता, कोई विशेष उपलब्धि हासिल नहीं होगी। लाजिमी तौर पर चयनित दस उत्कृष्ट महाविद्यालयों को किसी एक विषय का राज्य स्तरीय परिसर बना दें, तो क्वालिटी एजुकेशन की नींव सुदृढ़ होगी। इस तरह हिमाचल में बेहतरीन कालेज आफ इकॉनोमिक्स, बिजनेस कालेज, कालेज आफ आर्ट्स, कला कालेज, कालेज ऑफ डिफेंस स्टडीज, साइंस कालेज इत्यादि-इत्यादि के राज्य स्तरीय परिसर तैयार हो जाएंगे। प्रदेश में कालेज आफ फाइन आर्ट, खेल महाविद्यालय, कालेज आफ फिशरीज स्टडी, कालेज आफ फारेन लैंग्वेज तथा इसी तरह नई विधाओं की शृंखला में कई परिसर भविष्य की संभावनाएं तलाश पाएंगे।


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