शिमला की इमारतें गुनहगार

By: Jul 18th, 2018 12:05 am

विकास की मंजिलें शिमला में कितनी गुनहगार हो चुकी हैं, इसका अर्थ हम एनजीटी के ताजा फैसले की कड़क भाषा से जान सकते हैं। एनजीटी ने ऊंची इमारतों की ठिगनी हो चुकी करतूतों का हिसाब करते हुए सरकार की पुनर्विचार याचिका को खारिज कर दिया, यानी अब शिमला में निर्माण की ऊंचाई अढ़ाई मंजिल के दायरे में फिर से निर्धारित हुई है। जाहिर है हिमाचल सरकार को सुप्रीम कोर्ट जाना पड़ेगा, ताकि नागरिकों के एक बड़े वर्ग को राहत मिल सके। सरकार की चिंता यह है कि एक बार अढ़ाई का पहाड़ा मंजूर हो गया, तो न जाने कितनी छतों की गिनती हो जाएगी और उस स्थिति में नकारात्मक विकास शुरू हो सकता है। शिमला की जिंदगी को समझने के लिए यह जरूरी है कि हम सबसे पहले पर्यावरण के संघर्ष को भी अंगीकार करें। राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल के फैसले का अहम क्षेत्र पर्यावरण संरक्षण है, जबकि सरकार के लिए दुविधा मानव बस्तियों में उगे अवैध विकास को लेकर ही रही है। यह सफर यहीं खत्म नहीं होगा, बल्कि शिमला के भविष्य के प्रारूप को भी इंगित कर रहा है और उन निशानियों को भी देखेगा, जिनकी वजह से यह शहर विश्व की धरोहर है। एनजीटी के सबक वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि हिमाचल ने शहरीकरण की दौड़, मानसिकता, संभावना और क्षमता को पूरी तरह से न तो समझा और न ही इसके अनुरूप तैयारी की। शिमला अपने वजूद के आसपास कई तरह की जंग देख रहा है और जहां धरोहर शहर, राजधानी का गौरव, शहरीकरण की रफ्तार और व्यापार की हर चाल अलग-अलग तरह से संबोधित हैं। सरकार के तर्कों में पर्यावरण से अलगाव पढ़ने के साथ-साथ एनजीटी अगर उन मान्यताओं पर विचार करता जिन पर शिमला मानवीय जरूरतों का बसेरा है, तो विकल्पों का मार्ग भी प्रशस्त होता। यह शहर अपने वर्तमान को भविष्य की स्मार्ट सिटी में बदलने की कसरतों में शरीक है, तो उन तमाम परियोजनाओं को भी समझना होगा, जिन पर चलकर कहीं तो गंतव्य मिलेगा। एनजीटी का फैसला बेशक यथार्थ के सच और अस्तित्व की अनिवार्यता की लिखावट है, फिर भी यह तय होना चाहिए कि तमाम बंदिशों के उस पार अगर शिमला को अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करना है, तो उसका नया नक्शा क्या होगा और उसे निर्धारित करने की वित्तीय व्यवस्था क्या होगी। किसी इमारत की नींव पर अधिक मंजिलें खड़ा करने का वैध-अवैध तरीका केवल कानूनी तर्क ही तय कर सकते हैं या शहरीकरण के संबोधन तथा आर्थिक हिसाब से किफायती निर्माण की वजह जायज सी मानवीय उत्कंठा है। बढ़ती आबादी में परिवारों का विस्तार अगर अपने पुश्तैनी मकान की नींव पर सीढ़ी लगाएगा, तो ईंटों का हिसाब कुछ और मंजिलें जोड़ लेगा। ऐसे में शिमला के अवैध कब्जों की समीक्षा में कई परिभाषाएं पुनः गढ़नी होंगी। मसलन नए शिमला में रहने की परिभाषा और वैध-अवैध को नए नजरिए से आंकने का तरीका अब पूर्णता स्पष्ट करना होगा। यह दीगर है कि यदि शिमला को अढ़ाई मंजिल के अवतार में देखना है, तो विकास के विस्थापन को फिर से कहां बसाया जाए। क्या शिमला के भविष्य को संवारने के लिए ‘राजधानी विकास क्षेत्र’ के तहत एक साथ कई उपग्रह नगरों को विकसित करने की योजना पर गंभीरता से विचार करना होगा या यह भी कि कुछ अनावश्यक कार्यालयों, बोर्ड व निगमों के मुख्यालयों को अन्य जिलों में स्थानांतरित करने का वक्त आ चुका है। शिमला की सरकारी इमारतों के बदन पर चढ़ी मंजिलों का क्या होगा और इस तरह क्या उच्च न्यायालय की अपनी इमारत का वजन शिमला के वजूद पर नश्तर की तरह नहीं रहेगा। क्या हाई कोर्ट की अतिरिक्त खंडपीठ की स्थापना के लिए एनजीटी का वर्तमान फैसला कोई निर्देश दे रहा है, ताकि शिमला का कुछ बोझ इस तरह भी तो कम हो। इसमें दो राय नहीं कि शिमला पर कंकरीट का बोझ, यातायात का दबाव और सरकारी कार्यालयों का विस्तार रोकना पड़ेगा। शिमला एक शहर नहीं, बल्कि शहरी शिष्टाचार, विशिष्ट व्यवहार, धरोहर मूल्य, सामाजिक संरचना का अपनी तरह का एकमात्र प्रतीक है। जाहिर है शिमला को इस रूप में न तो कहीं अन्यत्र शिफ्ट किया जा सकता है और न ही इसकी जगह कोई और शहर ले सकता है। लिहाजा राजधानी को बदलने की मांग अनर्गल है। फिर भी शिमला के स्वरूप में आए खोट तथा कायदे-कानून की अवहेलना से जो दंश इसे मिले हैं, उन्हें दूर करना होगा। शिमला के अलावा अन्य शहरी कस्बों में वैध-अवैध की पैमाइश में मिल रही बदनामी से अगर मुक्त होना है तो टीसीपी कानून की समीक्षा तथा इसे सशक्त करने की जरूरत है।


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