संस्कृति विरुद्ध सियासी टिप्पणियां
क्या संस्कृति के खिलाफ राजनीतिक टिप्पणियों का उद्वेग सही है या हिमाचली टोपी-नाटी पर चल रहे प्रहसन को हम इसी परिप्रेक्ष्य में स्वीकार कर लें। विपक्षी नेता के रूप में अपना आगाज कर रहे मुकेश अग्निहोत्री ने मुख्यमंत्री के साथ नाटी युद्ध छेड़कर, उन हवाओं में घर्षण पैदा किया है जिनके फलक पर हिमाचली संस्कृति स्थापित है। नाटी डालते मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के संदर्भों में सामाजिक जीवंतता व उत्साह को हम सियासी दृष्टि से अलग भी कर लें, लेकिन ऐसे सांस्कृतिक आक्षेप को जायज नहीं ठहराया जा सकता। हिमाचली राजनीति के बदलते अंदाज के अपने मायने हो सकते हैं और अग्निहोत्री को यह अधिकार हासिल है कि वह मुख्यमंत्री से सीधे सवाल करें, लेकिन नाटी को सियासत में घसीटना उस भौगोलिक अस्मिता का अपमान होगा जहां नृत्य की भाषा में राजा और रंक एक समान लयबद्ध होते हैं। क्या मुख्यमंत्री को हिमाचली अर्थ में सांस्कृतिक नेतृत्व नहीं करना चाहिए। गीत-संगीत और नृत्य में मुख्यमंत्री की रुचि से हिमाचली परंपराओं का संरक्षण सुदृढ़ होता है, तो यह सैकड़ों कलाकारों और असंख्य कला प्रेमियों के लिए एक उपलब्धि होगी। पूर्व मुख्यमंत्री एवं सांसद शांता कुमार का साहित्य प्रेम जब हिमाचली रंगों में प्रवाहित हुआ, तो गिरिराज जैसे प्रभावशाली साप्ताहिक का उदय हुआ और कमोबेश अलग-अलग बिंदुओं पर केंद्रित अन्य सरकारी प्रकाशन भी सामने आए। स्व.वाईएस परमार, लाल चंद प्राथी व नारायण चंद पराशर अगर पहाड़ी बोलियों के प्रति सरोकार न रखते, तो हिमाचल का वर्तमान रचना कर्म अपनी माटी के इतना करीब न होता। दूसरी ओर पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल का खेलों के प्रति अनुराग न होता, तो हिमाचल की वर्तमान खेल अधोसंरचना आज दिखाई न देती। यह दीगर है कि राजनीति का वर्तमान ढर्रा नेताओं की क्षमता को महज आलोचना की दुश्वारी बना रहा है और इसीलिए छींटाकशी में गाहे-बगाहे हम हिमाचली संस्कृति को ही परोक्ष में गाली देने लगे हैं। मुख्यमंत्री की आलोचना में नाटी को अगर संकीर्णता की दृष्टि से देखा जाएगा, तो कल भांगड़ा भी कमोबेश बदनाम होगा। दरअसल पिछले कुछ समय से सियासी टिप्पणियों ने न केवल हिमाचली संस्कृति के विरुद्ध माहौल पैदा किया, बल्कि मर्यादा का उल्लंघन भी किया। हिमाचली टोपी को रंग की बदौलत अपमानित करने की जोरआजमाइश हम धूमल बनाम वीरभद्र सिंह के बीच देख चुके हैं और यह भी कि कब किस नेता ने विपरीत रंग के कारण टोपी को ही ठुकरा दिया। हिमाचली टोपी की विरासत हमारी संस्कृति है, फिर भी नेताओं ने इसे छीनकर सियासी बना दिया। टोपी के बाद अब नाटी के बहाने मुख्यमंत्री पर टिप्पणी करने के बजाय विपक्षी नेता को मूल्य आधारित आलोचना करनी चाहिए, जबकि कांग्रेस के भीतर भी आपसी द्वंद्व ने भाषाई शालीनता को तहस-नहस करना शुरू कर दिया है। वीरभद्र सिंह जिस अदा से ‘मकरझंडू’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं, वह राजनीति की विकराल होती शब्दावली ही मानी जाएगी। उच्च्कोटि का नेता केवल राजनीतिक ताकत से स्वीकार्य नहीं होता, बल्कि अपने भाषाई स्तर तथा आलोचना के अर्थ में देखा जाता है। सियासी बयानबाजी अगर सांस्कृतिक प्रतीकों को अखाड़ा बनाएगी, तो समाज के आईने छोटे हो जाएंगे। सांस्कृतिक बिखराव पर अड़ी हिमाचली सियासत को यह समझ लेना चाहिए कि परस्पर विरोधी व अपमानित संवाद से न तो समाज को चेहरे पसंद आएंगे और न ही सियासी प्रदर्शन। हिमाचली समाज कब तक राजनीतिक विकरालता को स्वीकार करते हुए नेताओं की अवांछित टिप्पणियों पर ताली बजाता रहेगा, जबकि इसे मालूम है कि मूल्यों के राजनीतिक उद्देश्यों में नफरत के दंश प्रदेश के हित में कदापि नहीं हैं।
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