सगुण ब्रह्म या ईश्वर
स्वामी विवेकानंद
गतांक से आगे…
जब तक तुम्हें यह अनुभूति नहीं होती, तब तक तुम्हारे लिए ईश्वर कुछ अक्षरों से बना एक शब्द मात्र है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। यह अनुभूति ही धर्म का सार है। तुम चाहे जितने सिद्धांतों, दर्शनों या नीतिशास्त्रों को अपने मस्तिष्क में ठूंस लो, पर इससे विशेष कुछ नहीं होगा, केवल तभी जब तुम जान लोगे कि तुम स्वयं क्या हो और तुमने क्या अनुभव किया है। जब निर्गुण ब्रह्म को हम माया के कुहरे में से देखते हैं, तो वही सगुण ब्रह्म या ईश्वर कहलाता है। जब हम उसे इंद्रियों द्वारा पाने की चेष्टा करते हैं, तो उसे हम सगुण ब्रह्म के रूप में ही देख सकते हैं। तात्पर्य यह कि आत्मा का विषयीकरण नहीं हो सकता, आत्मा को दृश्यमान वस्तु नहीं बनाया जा सकता। ज्ञाता स्वयं अपना श्रेय कैसे हो सकता है? परंतु उसका मानो प्रतिबिंब पड़ सकता है,चाहो तो इसे उसका विषयीकरण कह सकते हो। इस प्रतिबिंब का सर्वोत्कृष्ट रूप, ज्ञाता को ज्ञेय रूप में लाने का महत्तम प्रयास, यही सगुण ब्रह्म या ईश्वर है। आत्मा सनातन ज्ञाता है और हम उसे ज्ञेय रूप में ढालने का निरंतर प्रयत्न कर रहे हैं। इसी संघर्ष से इस जगत प्रपंच की सृष्टि हुई है। पर ये सब आत्मा के निम्नतम रूप हैं और आत्मा का हमारे लिए संभव सर्वोच्च ज्ञेय रूप तो वह है, जिसे हम ‘ईश्वर’ कहते हैं। विषयीकरण का यह प्रयास हमारे स्वयं अपने स्वरूप के प्रकटीकरण का प्रयास है। सांख्य के मतानुसार, प्रकृति यह सब खेल पुरुष को दिखला रही है और जब पुरुष को यथार्थ अनुभव हो जाएगा, तब वह अपना स्वरूप जान लेगा। अद्वैत वेदांती के मतानुसार, जीवात्मा अपने को अभिव्यक्त करने का प्रयत्न कर रही है। लंबे संघर्ष के बाद जीवात्मा जान लेती है कि ज्ञाता तो ज्ञाता ही रहेगा, ज्ञेय नहीं हो सकता, तब उसे वैराग्य हो जाता है, तब उसका स्वभाव ईश्वर जैसा हो जाता है। जैसे ईसा ने कहा है, ‘मैं और मेरे पिता एक हैं’ तब वह जान लेता है कि वह ब्रह्म से, निरपेक्ष सत्ता से एकरूप है और वह ईश्वर के समान लीला करते है। जिस प्रकार बड़े से बड़ा सम्राट भी कभी-कभी खिलौनों से खेल लेता है, वैसे ही वह भी खेलता है। कुछ कल्पनाएं ऐसी होती हैं, जो अन्य दूसरी कल्पनाओं से उद्भुत होने वाले बंधन को छिन्न-छिन्न कर देती हैं। यह समस्त जगत ही कल्पना प्रसूत है, परंतु यहां एक प्रकार की कल्पनाएं दूसरे प्रकार की कल्पनाओं से उत्थित होने वाली बुराइयों को नष्ट कर देती हैं, जो कल्पनाएं हमें यह बतलाती हैं कि यह संसार पाप, दुःख और मृत्यु से भरा हुआ है, वे बड़ी भयानक हैं, परंतु जो कहती हैं कि ‘तुम पवित्र हो, ईश्वर है, दुःख का अस्तित्व ही नहीं है, वे सब अच्छी हैं और प्रथमोक्त कल्पनाओं से होने वाले बंधन का खंडन कर देती हैं। सबसे ऊंची कल्पना, जो समस्त बंधन पाशों को तोड़ सकती है, सगुण ब्रह्म या ईश्वर की है। भगवान ये यह प्रार्थना करना कि ‘प्रभु अमुक वस्तु की रक्षा करो और मुझे यह दो, मैं तुमसे प्रार्थना करता हूं और तुम मुझे यह आवश्यक वस्तु दो, आदि- आदि यह सब भक्ति नहीं है। ये तो धर्म के हीनतम रूप हैं, कर्म के निम्नतम रूप हैं। – क्रमशः
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