हत्यारी भीड़ पर कानून

By: Jul 19th, 2018 12:05 am

भीड़ की हिंसा किसी की हत्या करे, उसकी सजा फांसी होनी चाहिए। भीड़तंत्र आतंकवाद के शासन की तरह है। असहिष्णुता, वैचारिक प्रभुत्व और पूर्वाग्रह को किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं, बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। कानून को नागरिक अपने हाथों में नहीं ले सकता। जीने का मौलिक अधिकार भी कोई छीन नहीं सकता। भीड़तंत्र को देश का कानून रौंदने की इजाजत नहीं दी जा सकती। भीड़ की हिंसा से देश प्रभावित हो रहा है। किसी भी दूसरे के सम्मान को चोट पहुंचाने का किसी का भी अधिकार नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने ये कठोर टिप्पणियां हिंदू-मुसलमान के मद्देनजर नहीं, बल्कि इनसानियत की हिफाजत के संदर्भ में की हैं। शीर्ष अदालत ने सिर्फ चार सप्ताह का वक्त दिया है। उसने संसद को कानून बनाने का निर्देश दिया है और इसी अवधि में केंद्र-राज्य सरकारों को भीड़ की हिंसा के खिलाफ कानून लागू करने को कहा है। संसद का मानसून सत्र शुरू हो चुका है, लिहाजा प्रत्येक सांसद पर दबाव होगा कि भीड़तंत्र  को काबू करने के मद्देनजर कानून बनाया जाए। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां और झारखंड के पाकुड़ा में स्वामी अग्निवेश की भीड़ द्वारा जमकर पिटाई एक साथ सामने आए हैं। अभी तक असम में 15, झारखंड में 11, महाराष्ट्र में 10, आंध्र-तेलंगाना में 8, त्रिपुरा में 3, मेघालय में 8, नगालैंड में 2, बंगाल में 4, उप्र में 4, राजस्थान में 4 मौतें सिर्फ भीड़ की हिंसा के कारण हुई हैं। ये कुछ आंकड़े बताने का मकसद है कि लगभग पूरे देश में हत्यारी भीड़ के उग्र प्रदर्शन जारी हैं। किसी राज्य-विशेष पर उंगली नहीं उठाई जा सकती। अलबत्ता अग्निवेश पर हमला करने वाले भाजपा युवा मोर्चे और विद्यार्थी परिषद के बेलगाम नौजवान बताए जा रहे हैं। हमें यकीन है कि हम न तो भेडि़यातंत्र का हिस्सा हैं, न ही हिंदुस्तान को ‘तालिबान’ बनाया जा सकता है और न कोई सरकार या राजनीतिक पार्टी ‘कत्ल के लाइसेंस’ बांट सकती है। हम महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी और गांधी का महान अहिंसक देश हैं। भीड़ का कोई चरित्र और चेहरा नहीं होता। भीड़ और अफवाहों के आधार पर हिंसक होना और इनसानियत को लहूलुहान करना एक प्रवृत्ति है, जो बीते कुछ सालों में बढ़ी है। इसके लिए सिर्फ भाजपा-संघ परिवार पर दोष नहीं मढ़ा जा सकता, क्योंकि कानून-व्यवस्था राज्य का मामला है। बीते एक दशक के दौरान हिंसक भीड़ ने 86 से ज्यादा हत्याएं की हैं और करीब 300 लोग घायल हुए हैं। इस पूरे परिप्रेक्ष्य में सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप कर हमारे देश और समाज पर मेहरबानी की है, लेकिन अफसोस है कि भीड़तंत्र पर कानून बनाना सरकार की तय विधायी सूची में नहीं है। अलबत्ता कांग्रेस समेत विपक्षी दलों ने भीड़ की हिंसा पर चर्चा करने का आग्रह जरूर किया है। यदि संसद में इस मुद्दे पर व्यापक चर्चा होती है, तो क्या उसी आधार पर बिल तैयार किया जा सकता है? देश और विषय के विशेषज्ञों और अपार जनसमूह के अभिमत को जाने बिना एक सर्वसम्मत कानून कैसे बनाया जा सकता है? सवाल यह भी है कि सिर्फ कानून के जरिए हिंसक भीड़ पर काबू पाया जा सकता है? क्या ऐसे कानून का खौफ भीड़तंत्र या भेडि़यातंत्र के लिए संभव होगा? कर्नाटक में किसी को पीट-पीट कर मार दिया जाता है, महाराष्ट्र में धुले, असम की गुवाहाटी, औरंगाबाद, तमिलनाडु यानी देश के हिस्से-हिस्से में किसी को बच्चा चोर के शक में, किसी को गोमांस के आरोप में या किसी को लव जेहाद के मद्देनजर पीट-पीट कर मार दिया जाता रहा है। क्या एक केंद्रीय कानून ऐसी प्रवृत्तियों वाली भीड़ को रोक सकता है? आईपीसी में अब भी कुछ धाराएं हैं, जिनके तहत कार्रवाई की जा सकती है, लेकिन सैकड़ों की भीड़ के सामने पुलिस के कुछ ही जवान क्या कर सकते हैं? अधिकांश मामलों में हत्या होने के बाद पता चलता है। पुलिस या कोई भी बल भीड़ के आगे-पीछे नहीं चल सकता। इन हत्याओं की नाजुकता को लेकर राज्य सरकारों के दृष्टिकोण भी भिन्न रहे हैं। कानून के बावजूद क्या किया जा सकता है? बहरहाल संसद कानून बनाने की पहल तो करे। कांग्रेस समेत विपक्ष मोदी सरकार का सहयोग करे, संसद में गतिरोध न हो और कमोबेश इस मुद्दे पर बहिष्कार या बहिर्गमन न हो। ध्यान रहे कि सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना भी नहीं की जा सकती।


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