हिमाचली भाषा को संरक्षण की सख्त जरूरत : भगतराम मंडोत्रा

By: Jul 29th, 2018 12:10 am

ऐसे समय में जबकि अखबारों में साहित्य के दर्शन सिमटते जा रहे हैं, ‘दिव्य हिमाचल’ ने साहित्यिक सरोकार के लिए एक नई सीरीज शुरू की है। लेखक क्यों रचना करता है, उसकी मूल भावना क्या रहती है, संवेदना की गागर में उसका सागर क्या है, साहित्य में उसका योगदान तथा अनुभव क्या हैं, इन्हीं विषयों पर राय व्यक्त करते लेखक से रूबरू होने का मौका यह सीरीज उपलब्ध करवाएगी। सीरीज की चौथी किस्त में पेश है साहित्यकार भगतराम मंडोत्रा का साहित्यिक संसार…

किसी भी रचनाकार के लिए उसका सृजन संतान की तरह होता है। उसे अपनी कृतियों में कौन सर्वाधिक प्रिय है यह निर्णय करना किंचित कठिन सा होता है। मैंने अभी तक चार काव्य संग्रहों का सृजन किया है जो क्रमशः हैं : जुड़दे पुल (हिमाचली पहाड़ी), रिहड़ू खोलू (हिमाचली पहाड़ी), परमवीर गाथा (हिंदी) और चिह्ड़ू मिह्ड़ू (हिमाचली पहाड़ी। क्योंकि ‘मेरी किताब के अंश’ के लिए इनमें से मुझे एक किताब चुननी थी तो मेरा फैसला नवीनतम पहाड़ी हिमाचली कविता संग्रह ‘चिह्ड़ू मिह्ड़ू’ के हक में हुआ। मेरी लेखन यात्रा की कहानी कुछ अजीब सी है। 15 सितंबर 1953 के दिन मेरा जन्म गांव चंबी, जयसिंहपुर, जिला कांगड़ा के एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ। पिता श्री किरपा राम जी और माता श्रीमती आसो देवी जी का मैं इकलौता बेटा था। प्राइमरी शिक्षा संघोल में और पंजाब यूनिवर्सिटी की दसवीं की परीक्षा राजकीय हाई स्कूल सरी मोलग से 1968-69 में प्रथम श्रेणी में पास की। राजकीय महाविद्यालय, धर्मशाला से 1969-1973 में कला स्नातक की डिग्री और 1996 में बरकतुल्ला विश्वविद्यालय, भोपाल से एमए अंग्रेजी साहित्य की डिग्री हासिल की। मेरे विद्यार्थी जीवन के दौरान 1962 में भारत-चीन, 1965 और 1971 में भारत-पाक युद्ध हुए। देश के सैनिकों की वीर गाथाएं पढ़-सुनकर और उनसे प्रभावित होकर मैंने फैसला कर लिया था कि नौकरी करूंगा तो भारतीय सेना की। सैनिक अफसर बनने में असफल रहा तो जुलाई 1975 में भारतीय सेना के तोपखाने में एक साधारण सैनिक के रूप में प्रवेश पा लिया। 32 वर्ष सैन्य सेवा करने के बाद मार्च 2007 में सूबेदार मेजर (ऑनरेरी लेफ्टिनेंट) के रैंक से सेवानिवृत्त हुआ। कालेज के जमाने से लिखने का शौक था, पर रेजिमेंट में जाते ही पता चला कि जो सैनिक डायरी लिखते हैं और जिनके पास कैमरा होता है उनका विवरण यूनिट मुख्यालय में रखे अलग-अलग रजिस्टरों में दर्ज रहता है। डायरी का समय-समय पर सैनिक अधिकारियों द्वारा निरीक्षण किया जाता है। यह सेना की सुरक्षा व्यवस्था के लिए अनिवार्य समझा जाता था। युद्ध जैसी स्थिति में व्यक्तिगत डायरियों और कैमरों को रेजिमेंट मुख्यालय में जमा करने का प्रावधान था। डायरी लिखना साधारण सैनिक के लिए एक बड़ा झंझट मोल लेने जैसा था। अतः कविता लिखने के शौक को दफन कर देना पड़ा। सेना में लेखन लेखक के रैंक पर निर्भर करता है। सेना से वापसी हुई। जीवन के पचपन साल पूरे किए ही थे कि सौभाग्यवश ‘आई बी’ से बुलावा आ गया। मेरे पास 5 वर्ष शेष बचे थे। सोचा 32 वर्ष सेना में गुजर गए तो ये 5 वर्ष ‘आई बी’ में यूं ही कट जाएंगे। पर जितना सोचा था, दूसरी पारी उतनी आसान नहीं थी। छोटे से प्रशिक्षण के बाद मेरी नियुक्ति झारखंड के नक्सल प्रभावित क्षेत्र में हुई। वहां अढ़ाई साल गुजारने के बाद जब मुझे अमृतसर में नियुक्ति के आदेश मिले तो प्रसन्नता हुई, पर अमृतसर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर इम्मीग्रेशन अधिकारी के तौर पर बाकी बचे हुए अढ़ाई वर्ष गुजारना टेढ़ी खीर साबित हुए। ईमानदारी से अपना काम करते रहना मेरी आदत थी जो उस उम्र में बेहद थकाने वाली थी। ऐसी हालत में कौन कविता लिखता। अंत में 60 वर्ष की आयु पार होते ही 2013 में ‘आई बी’ से सेवानिवृत्त होकर अपने लिखने के शौक को पूरा करने में जुट गया। ‘चिह्ड़ू-मिह्डू’ हिमाचली पहाड़ी में रचित मुक्तकों का संग्रह है। मुक्तक चार पदों की रचना होती है। नियमों से बंधा हर मुक्तक अपने आप में संपूर्ण और स्वतंत्र कृति होता है। इसके चार पदों में से पहला, दूसरा और चौथा पद एक जैसे तुक के साथ समाप्त होते हैं। तीसरे पद में कोई तुक नहीं होती। आरंभिक दो पदों में कवि अपनी बात कहने के लिए भूमिका घड़ता है और अंतिम दो पदों में अपनी बात का निचोड़ रखता है। हिमाचली पहाड़ी को इस समय संरक्षण की सख्त जरूरत है।

अगर इसे सहेजने-संवारने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए तो यह निकट भविष्य में विलुप्त हो जाएगी। रिटायर होने के उपरांत मैंने पहाड़ी में लिखने की सोची और जनता तक पहुंचने का माध्यम फेसबुक को चुना। धीरे-धीरे पाठकों की संख्या बढ़ती रही। मैंने देखा कि लोग सहज ढंग से पहाड़ी नहीं पढ़ पाते क्योंकि पहाड़ी लेखक उसके उच्चारण में पहाड़ीपन के गुण लाने के लिए कई मात्राएं और अर्धव्यंजन लगाकर शब्दों को जटिल बना देते हैं जिन्हें जोड़ कर पढ़ने में समय लगता है और बोरियत होती है। मुझे लगा कि हम इसे आसान ढंग से भी लिख सकते हैं। हिंदी में ‘भाई’ और पंजाबी में भाई शब्द की रचना एक जैसी है, पर उच्चारण में भिन्नता है। इस भिन्नता को स्पष्ट करने के लिए पंजाबी में कुछ भी अतिरिक्त जोड़ा-तोड़ा नहीं गया। शब्द रचना वही होने पर भी हमने पंजाबी उच्चारण को हिंदी उच्चारण से भिन्न कर दिया क्योंकि हम जानते थे कि हम पंजाबी पढ़ रहे हैं। इसी तरह हमें पहाड़ी शब्दों का पहाड़ी की तरह उच्चारण करना चाहिए और उन्हें बिना किसी जरूरत के जटिल व बोझिल बनाने से परहेज करना चाहिए। इसका मैंने अपने लेखन में प्रयोग किया जिसके परिणाम अच्छे रहे। मेरी रचनाओं को प्रतिदिन पढ़ने वालों की प्रत्यक्ष संख्या औसतन 100-150 हो गई। वैसे भी जब तक पहाड़ी का मानकीकरण नहीं हो जाता तब तक हमें पहाड़ी वर्तनी के वाद-विवाद में नहीं पड़ना चाहिए क्योंकि पहाड़ी शब्दों और उनके उच्चारण में हर पांच-सात मील के बाद अंतर आता रहता है। पाठकों तक पहुंच के मापदंड के अनुसार मेरे हिसाब से कविता के दो वर्ग होते हैं। पहले वर्ग में कवियों द्वारा कवियों और विद्वानों के लिए लिखी गई कविता आती है जिसमें क्लिष्ट भाषा और जटिल बिंबों का प्रयोग होता है। दूसरे वर्ग में आम जनता के लिए उनकी ही भाषा मे लिखी कविता आती है। दोनों प्रकार की रचनाओं का लक्ष्य एक ही है। अगर पहाड़ी में पहले वर्ग में आने वाली कविता रची जाए तो पाठक निःसंदेह दूर हो जाएंगे। मैंने अपने लेखन में इस बात का ध्यान रखा क्योंकि मेरा उद्देश्य पहाड़ी प्रेमियों को जोड़े रखना रहा है।

‘चिह्ड़ू-मिह्ड़ू’ में मैंने अपने क्षेत्र में प्रयोग होने वाले लगभग तमाम पहाड़ी शब्दों का अधिक से अधिक प्रयोग किया है ताकि उन्हें सहेज कर रखा जा सके। इनमें कुछ ऐसे शब्द भी हैं जो अब प्रचलित नहीं, पर मेरे बचपन में बोले जाते रहे हैं। मेरे लेखन का उद्देश्य पहाड़ी का संरक्षण व संवर्धन है। इस संग्रह में मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं को छूने वाले 300 मुक्तक हैं। ये मुक्तक मानव के आचार-व्यवहार, प्रकृति, समाज, संस्कृति, स्त्री, सेना, हिमाचल प्रदेश इत्यादि मुद्दों को एक विशेष नजरिए से स्पर्श करते हैं। ये मुक्तक ‘चिह्ड़ू-मिह्ड़ू’ जैसे हैं। जिस को भी लकडि़यों की आग सेंकने का अनुभव हो, वह चिह्ड़ू-मिह्ड़ू की महत्ता से अपरिचित नहीं होगा :

सुच्चे   संस्कारां  दे  झरोखे  हन।

सजरी होआ  दे  सर्द  झोंके हन।

चिह्ड़ू-मिह्ड़ू  हल्के-फुल्के छैल

सुथरेयां   सोचां  दे  भरोठे  हन।

हिमाचल प्रदेश का भौगोलिक व प्राकृतिक सौंदर्य तथा देवी-देवताओं के मंदिर किसी को भी आकर्षित करने में सक्षम हैं। प्रदेश वासियों का सरल स्वभाव, रहन-सहन और खानपान अपने आप में अद्वितीय हैं। चिह्ड़ू-मिह्ड़ू ने इस पहलू को कुछ इस तरह प्रतिबिंबित किया है :

एत्थी  नदियां  दे  गहरे  फेर  हन।

सड़कां   दे   टेढ़े-मेढ़े   घेर  हन।

कुत्थी हरियां  तां कुत्थी चिट्टियां

इस हिमाचले च धारां भतेर हन।

जगह-जगह देवतयां दे मिलदे थान।

कुदरती  नजारेयां  दी   इत्थू  खान।

असां दे हिमाचले दी कोई रीस नीं

सोहणियां  नारां  कनें बांके जुआन।

नशाखोरी समाज के लिए आजकल अभिशाप बनती जा रही है। फूल सदृश युवा पीढ़ी को नशे की आग जला कर सूरत से बेशक्ल और जिंदगी की दौड़ से बेदखल करती जा रही है। चिह्ड़ू-मिह्ड़ू नशे से सावधान रहने का संदेश देते हैं :

नशे   दे  फेरें  पोणा  नीं।

अपणा आपा डबोणा नीं।

जेहड़ा इहिंयां नि होया

नशा  करी सैह होणा नीं।

इसजो पकड़ना होंदा असान।

ये  फिरी  छुटदा  नि  बेईमान।

दूर रैहणा इसते अडे़यो

नशा इक दिन लई लैंदा जान।  

– शेष अगले अंक में

लेखक का लक्ष्य

हमें पहाड़ी शब्दों का पहाड़ी की तरह उच्चारण करना चाहिए और उन्हें बिना किसी जरूरत के जटिल व बोझिल बनाने से परहेज करना चाहिए। इसका मैंने अपने लेखन में प्रयोग किया जिसके परिणाम अच्छे रहे। मेरी रचनाओं को प्रतिदिन पढ़ने वालों की प्रत्यक्ष संख्या औसतन 100-150 हो गई।


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