काम के साथ एक होना ही समाधि

By: Aug 4th, 2018 12:05 am

गुरुओं, अवतारों, पैगंबरों, ऐतिहासिक पात्रों तथा कांगड़ा ब्राइड जैसे कलात्मक चित्रों के रचयिता सोभा सिंह पर लेखक डा. कुलवंत सिंह खोखर द्वारा लिखी किताब ‘सोल एंड प्रिंसिपल्स’ कई सामाजिक पहलुओं को उद्घाटित करती है। अंग्रेजी में लिखी इस किताब के अनुवाद क्रम में आज पेश हैं ‘समाधि’ पर उनके विचार …

-गतांक से आगे…

जब आप अपने काम के साथ एक हो जाते हैं तो आप समाधि में होते हैं। घंटे अथवा समय की लंबाई निश्चित करना तथा निश्चित विशेष स्थल पर अपना दिमाग फिक्स करना आदि का कोई अर्थ नहीं है। जिस चीज की जरूरत है, वह है प्रार्थना, ध्यानप्रार्थना अथवा समाधि के जरिए अपने भीतर के बोध को जगाना। जितनी संजीदगी से आपने उस विशेष क्षण में अंतरात्मा से बात की, जिस हद तक आपने इसके अनुभव की मदद से अपने को गाइड करने के लिए अपनी अंतरात्मा को जगाया, वही आपकी प्रार्थना है तथा आपकी प्रार्थना सुनी जाएगी। अपनी प्रार्थना कहने के लिए आपको किसी विशिष्ट स्थल पर जाने की जरूरत नहीं है। आप कहीं भी अपनी प्रार्थना कर सकते हैं, चाहे आप बिस्तर में हों या नहा रहे हों। महत्त्वपूर्ण चीज यह है कि इसके जरिए हमें अपने घाटे, समस्याओं तथा लाभों तक को जीतने के लिए जीवन को लचीलापन प्राप्त करना होता है। हमें बुद्धिमानी प्राप्त करनी होती है ताकि अगर रास्ते में किसी कुत्ते से सामना हो जाए, तो उस स्थिति का हम कोई हल निकाल सकें और अपने आप को बचा सकें। हमें अपना विजन विकृत होने से बचाना है तथा उग्र नहीं होना है, उसने ऐसा कहा, उसने वैसा कहा, इस ओर ध्यान नहीं देना है।

दूसरों का जब हम आकलन करें तो हमें पूर्वाग्रह से शून्य होना है। आपको अपने भीतर से सद्गुणों को बाहर निकालना है। स्वामी रामतीर्थ के भाषण से प्रभावित लोगों में से कितने उनके जैसे बनने के योग्य हो गए? हम परंपराओं का अनुसरण करते हैं। स्वामी अथवा कोई संत आता है, उसका भाषण सुना जाता है, उसके पांव भी छुए जाते हैं, तब हम विच्छिन्न हो जाते हैं तथा उस पर वाद करते हैं जो कुछ स्वामी ने कहा होता है। वास्तविकता यह है कि आदमी ने अपना सेंटर खो दिया है तथा वह स्वामी, भाषण व किताबों में अपना सुपोर्ट खोजता रहता है। वास्तव में कुछ भी नहीं खो गया है। देखना यह है कि आपके मनुष्य निर्मित कितने कानून ईश्वर की ओर से बनाए गए कानूनों से सुसंगति रखते हैं? एक डाक्टर अपने मरीज को इस योग्य बनाता है कि वह मनुष्य निर्मित कानून को ईश्वर निर्मित कानून से सुसंगत बना सके। ऐसा मरीज के उपचार के लिए किया जाता है। अगर वह डाक्टर के निर्देशों का अनुकरण करता है तो वह ठीक हो जाता है। अगर ऐसा नहीं करता है तो वह अपनी असावधानी अर्थात भगवान के बनाए कानून को किनारे कर दोबारा बीमार हो जाता है। परिस्थितियों की अपनी भूमिका होती है। अगर मैं आपके अभिभावकों से जन्मा होता और मेरा वातावरण आपके जैसा होता तो मैं आपकी तरह होता।

आपके मेरा जैसा होने के लिए जरूरी था कि आप मेरे अभिभावकों से जन्मे होते तथा मेरे जैसा वातावरण आपको भी मिला होता। परिस्थितियों के अलावा हमारा सही मार्ग हमारे साथ है तथा यह हमारी प्राकृतिक कानूनों के साथ एडजस्टमेंट है। व्यवहार में पूरी तरह प्राकृतिक होना संभव नहीं है तथा कुछ हद तक हमें एडजस्ट करना ही होगा।

प्रश्न यह है कि हम किस सीमा तक प्राकृतिक हो सकते हैं? धार्मिक स्थल, धर्मोपदेश तथा समाधि की जरूरत नहीं है। ये आपकी मदद नहीं करेंगे। आप अन्यों को कहते हैं, ‘हम अमरनाथ गए। हमें कई परेशानियां व असुविधाएं हुईं, लेकिन यह हमारी अच्छी किस्मत है कि हम पवित्र गुफा को देख सके।’ आप केवल अपने अहम का पोषण करते हैं। अहम के साथ आप कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं।

                               -क्रमशः


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