गिरि-पार क्षेत्र की हाटी लोक संस्कृति का संरक्षण

By: Aug 7th, 2018 12:05 am

प्रकाश शर्मा

लेखक, सिरमौर से हैं

इस सांस्कृतिक अवनति का कारण सामुदायिक चेतना में आई कमी के साथ-साथ हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था भी है, जो लोक कलाओं के संरक्षण का सामयिक प्रशिक्षण दे पाने में असमर्थ रही है। वास्तव में शिक्षा क्षेत्र में बढ़ते बाजारीकरण ने ऐसी संभावनाओं को ही समाप्त कर दिया है। अपनी पहचान को जिंदा रखने के लिए संरक्षण के पथ पर लौटना ही होगा…

संस्कृति विचार, ज्ञान, भावना और परंपराओं का ऐसा समन्वित रूप है, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होता रहता है। संस्कृति की बृहद अवधारणा का ही एक पक्ष है-लोक संस्कृति। जो प्रायः ग्रामीण अंचलों व क्षेत्रीय समाज की सामुदायिक चेतना को इंगित करती है। इसके उपादानों में लोक गीत, लोक कथा, लोक संगीत, लोक नृत्य, लोक साहित्य, लोक कला, लोक मंच जैसे बहुआयामी पक्ष शामिल हैं। किंतु  वैश्वीकरण के इस दौर में दुनिया का एक बड़ा हिस्सा वैश्विक ग्राम की संकल्पना को साकार करने में जुटा है और गांवों से आबादी का संक्रमण तेजी से शहरों की ओर हो रहा है। लोक संस्कृति ने भी भौगोलिक सीमाओं को तोड़ा है और उसका प्रसार ग्रामों से आगे करीबी कस्बों व शहरों तक हुआ है।

कारण विश्व ग्राम से संबद्ध आधुनिकतावाद ने क्षेत्रीय संस्कृतियों के आचार-व्यवहार, परंपराओं, रीति-रिवाजों को पिछड़ेपन के प्रतीक ‘रिचुअल्स’ मान कर उन्हें आधुनिकता विरोधी घोषित कर दिया है। हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले के गिरि-पार क्षेत्र की हाटी लोक संस्कृति भी ऐसे परिवर्तनों से अछूती नहीं है  तथापि, यह समुदाय पिछले कुछ समय से उत्तराखंड के समीपवर्ती क्षेत्र जौनसार बावर की तर्ज पर जनजातीय क्षेत्र का दर्जा प्राप्त करने की कवायद के चलते चर्चा में रहा है। क्षेत्रीय जनों का विचार है कि उनकी लोक संस्कृति, मेले, त्यौहार, धार्मिक मान्यताएं, विश्वास, सामाजिक व आर्थिक पिछड़ापन साथ लगते जौनसार बावर के जौनसारा समुदाय से मिलता-जुलता है। अतः एक जैसी सांस्कृतिक, भौगोलिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के चलते यदि जौनसारा समुदाय को 1967 से जनजातीय क्षेत्र का दर्जा प्राप्त है, तो हाटी समुदाय भी ऐसा ही अधिकार रखता है। लोगों का मानना है कि जनजातीय दर्जा प्राप्त होने से हाटी लोक संस्कृति को नई पहचान मिलने के साथ-साथ केंद्र सरकार से विकास कार्यों के लिए अतिरिक्त मदद भी मिलेगी। क्षेत्र के विद्यार्थियों को शिक्षण संस्थानों में शिक्षा प्राप्त करने के लिए आर्थिक सहायता मिलेगी। इसके अलावा, रोजगार के अवसरों का सृजन होगा और क्षेत्र के चहुंमुखी विकास का मार्ग प्रशस्त होगा। जनजातीय दर्जा प्राप्त होने के परिणामस्वरूप विविध विश्वविद्यालयों के ट्राइबल स्टडीज के विभागों के तत्त्वावधान में क्षेत्र की संस्कृति के विविध पहलुओं पर व्यापक शोध-कार्य किए जाने की संभावना है, जिससे हाटी लोक-संस्कृति का परिचय देश व दुनिया के दूसरे हिस्सों को भी मिल सकता है।

उल्लेखनीय है कि सिरमौर जिले के हाटी समुदाय का भौगोलिक क्षेत्र गिरि, यमुना और टौंस नदियों के बीच स्थित है। एक प्रचलित विचार के अनुसार, इस क्षेत्र के लोग समूहों में जाकर अपनी फसलों व सामान को बेचने के लिए नजदीकी स्थानों व बाजारों में हाट लगाया करते थे। हाट लगाने के कारण बाहरी लोगों द्वारा इन्हें ‘हाटी’  नाम से अभिहित किया जाने लगा। यद्यपि यह समुदाय जौनसार बावर की तर्ज पर जनजातीय क्षेत्र का दर्जा प्राप्त करने की लगभग सभी योग्यताएं रखता है तथा वर्तमान में अधिकतर लोगों का मूल विचार, विशिष्ट संस्कृति की आड़ में सरकारी नौकरियों में आरक्षण प्राप्त करना मात्र रह गया है, और सामुदायिक चेतना के विकास का लक्ष्य गौण हो गया है। जबकि प्राथमिक प्रश्न आरक्षण के स्थान पर सांस्कृतिक प्रतीकों व विशिष्टता के संरक्षण का होना चाहिए, ताकि समाज लंबे समय तक अपनी अस्मिता को बचाए रख सके। वैसे भी ‘आरक्षण’ संरक्षण की गारंटी नहीं है। आरक्षण जनजातीय पहचान तो दिला सकता है, किंतु चेतना का विकास उसकी परिधि से बाहर है। वह तो सामुदायिक प्रयासों से ही संभव है। हाटी समुदाय की वर्तमान स्थिति पर दृष्टिपात करें, तो यह कहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि यह समुदाय अपनी विशिष्ट संस्कृति को एक सीमा तक सहेजने में सफल रहा है। बूढ़ी दीवाली, माघी, खोड़ा, बिशू व हरियालटी जैसे त्यौहार आज भी अपनी परंपरा को बनाए हुए हैं। तीज-त्यौहारों के अवसर पर पारंपरिक पकवान बेढोली, पटांडे, सुतोले, शाकुली, अस्कली, सिडकू, मूड़ा आज भी लोगों द्वारा उतने की चाव से खाए जाते हैं। आज भी विवाह के अवसर पर विवाह वाले घर में गांव के प्रत्येक घर की एक महिला  की काम में मदद करने के लिए जाने की परंपरा जीवित है। तथापि आधुनिकता की अंधी दौड़ में सांस्कृतिक हृस को दर्शाने वाले लक्षण भी मुखर हो चले हैं। उदाहरण के लिए सिंहटू, भड़ाल्टू, जैसे नृत्य शरद ऋतु की तावली नाटी, वसंत ऋतु में बिशू मेले के अवसर पर किए जाने वाले ठोडा व रासा नृत्य की परंपराएं समाप्ति की कगार पर हैं। लोक नाटकों के मंचन भी कम ही देखने को मिलते हैं। बोलियां अपने परंपरागत शब्द खो रही हैं। सामाजिक परिवेश टूट रहा है, संयुक्त परिवार बिखर रहे हैं। इस सांस्कृतिक अवनति का कारण सामुदायिक चेतना में आई कमी के साथ-साथ हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था भी है, जो लोक कलाओं के संरक्षण का सामयिक प्रशिक्षण दे पाने में असमर्थ रही है। वास्तव में शिक्षा क्षेत्र में बढ़ते बाजारीकरण ने ऐसी संभावनाओं को ही समाप्त कर दिया है।

अपनी पहचान को जिंदा रखने के लिए संरक्षण के पथ पर लौटना ही होगा, जिसके लिए सामुदायिक व सरकारी दोनों ही स्तरों पर प्रयास करने होंगे। हाटी संस्कृति के संरक्षण को लेकर बनाए गए विविध मंच इस दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इस कार्य में जिला भाषा एवं संस्कृति विभाग महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, जिसके तत्वावधान में विविध सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन के साथ-साथ संस्कृति के क्षेत्र में सराहनीय योगदान देने वाले लोगों को सम्मानित करके भी किया जा सकता है। आशा है, उपरोक्त प्रयासों को कार्यरूप में परिणत कर हाटी लोक संस्कृति की विशिष्टता को कायम रखा जाएगा।


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