चुनावों की भट्ठी में दहकता देश
सुरेश कुमार
लेखक, योल से हैं
यही तो राजनीति है कि चार तक जनता से घुटने टिकाओ और पांचवें साल खुद घुटने टेक दो, तो सत्ता फिर आपकी। ऐसे देश कैसे आगे बढ़ेगा। राजनीति अगर लोकतंत्र के लिए होती, तो ठीक था, पर अब यह भीड़तंत्र बन चुकी है…
वक्त की आदत है कि कैसा भी हो गुजर ही जाता है। हम तो बस गवाह बनते हैं। हमारी गवाही यही कि कुछ दशक पहले जुम्मा-जुम्मा राजनीति हुआ करती थी और इक्का-दुक्का नेता। पर वक्त ने राजनीति को इतना परवान चढ़ा दिया कि आज जर्रा-जर्रा राजनीति है और नेता तो कुकुरमत्तों की तरह उग आए हैं। आज भी याद है कि पहले बहुत कम सुनने को मिलता था कि चुनाव होने वाले हैं, पर आज तो जब भी समाचार सुनो या अखबार पढ़ो, तो बस यही पढ़ने-सुनने को मिलता है कि फलां राज्य में चुनाव या लोकसभा चुनाव या राज्य सभा चुनाव होने वाले हैं। दो में से एक बात तो सच है कि या तो वक्त तेजी से निकल रहा है या चुनाव जल्दी-जल्दी हो रहे हैं। चुनाव चाहे एक या दो साल बाद होने हों पर राजनीतिक दल पहले से ही तैयारियां श्ुरू कर देते हैं। जैसे अभी लोकसभा चुनावों के लिए लगभग एक साल बचा था, तो राजनीतिक दलों ने देश को पहले ही चुनावों के रंग में रंग दिया। रणनीति बनना शुरू हो गई है। सत्ता पक्ष अगले पांच साल हथियाने को हर हथकंडा अपना रहा है और विपक्ष (जो अब कांग्रेस नहीं बल्कि कई दलों का झुरमुट है) कैसे न कैसे यह सत्ता भाजपा से हथिया कर कुर्सी पर काबिज होना चाहता है। फिक्र सत्ता पक्ष को भी है क्योंकि चुनावों से पहले कई वादे किए थे, पर पूरे न हो सके। कई नारे दिए थे, पर अधूरे ही रहे। राजनीति भी कैसी कि देश के विकास पर बहस नहीं, हार पर बहस नहीं, बहस होती है घोटालों पर, बोफोर्ज और राफेल डील पर। हर एक पार्टी एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने की ज्यादा कोशिश करती है ताकि जनता पर उसका नकारात्मक प्रभाव पड़े और वोटों का पलड़ा उसकी तरफ झुक जाए। राजनीति इतनी ज्यादा कि किसी भी राज्य का चुनाव हो, तो देश के प्रधानमंत्री वहां धुआंधार रैलियां करते हैं। अब तक का अनुभव तो यही कि या तो प्रधानमंत्री देश से बाहर होते हैं या फिर किसी राज्य की चुनावी रैली को संबोधित कर रहे होते हैं। देश में अब जर्रा-जर्रा राजनीति है यह बात तो सच है। राजनीति चाहे निर्भया कांड पर हो या सीमा पर शहीदों की शहादत पर। यह राजनीति चाहे किसानों पर हो या जवानों पर। जब निर्भया कांड हुआ तो मंत्रियों की उच्चस्तरीय कमेटी बंद कमरे में इस जघन्य हत्याकांड पर सख्त कानून बनाने पर मंथन कर रही थी और उसी समय टीवी चैनलों पर न्यूज फ्लैश हो रहा था कि मुंबई में युवती के साथ सामूहिक दुष्कर्म के बाद हत्या। बंद कमरों में बैठ कर कानून बनाता है सत्ता पक्ष और बाहर कैंडल मार्च कर के राजनीति करता है विपक्ष और पीडि़ता को कुछ भी नहीं मिलता। मिलता है तो बस मुआवजा या फिर लोकप्रियता। लोकप्रियता भी ऐसी जो लाज लुटने के बाद मिलती है। सियासत का एक और उदाहरण, सीमा पर जब पाकिस्तानी हमारे सैनिकों के सिर काटकर ले गए, तो दो दिन तक टीवी पर न्यूज फ्लैश होती रही कि गृहमंत्री संसद में बयान देंगे। और दो दिन बाद बयान आया कि हम पािकस्तान को मुंह तोड़ जवाब देंगे और आज तक राजनाथ सिंह को वह मौका ही नहीं मिला और हमारे कितने ही सैनिक शहीद हो गए। फिर सियासत हुई सर्जिकल स्ट्राइक पर। सत्ता पक्ष ने अपनी पीठ थपथपाई और ढिंढोरा पीटा कि हम ने दुश्मन को उसके घर में घुस कर मारा। बहुत वाहवाही हुई और नतीजा यह निकला कि उसके बाद हमारे कई सैनिक उन्होंने मार दिए।
राजनीति का एक रंग तब भी देखने को मिला जब दिल्ली में केजरीवाल किसी जनसभा को संबोधित कर रहे थे और शायद किसानों के कल्याण की बातें हो रही थी और उसी समय किसी किसान ने वहीं पेड़ पर लटक कर खुद को फांसी लगा दी और केजरीवाल महोदय पता लगने के बाद भी 77 मिनट तक भाषण देते रहे। यही तो राजनीति है कि मरने वाला तो मर गया खुद तो जिओ। कैसा देश है मेरा जहां किसान तो कर्ज के बोझ से आत्महत्या कर लेता है और माल्या और नीरव मोदी जैसे बैंकों का पैसा सरेआम लेकर विदेश भाग जाते हैं। सरकार कालाधन लाने की बातें करती रही और वे सफेद धन ही लेकर चले गए। कहने को भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र, पर यहां चुनाव लोकतंत्र के लिए नहीं कुर्सी के लिए होते हैं, सत्ता के लिए होते हैं। आंकड़ों में बेशक भारत उन्नति कर रहा है, पर हकीकत यही है कि आज भी देश की 20 फीसदी जनता फुटपाथ पर भूखे पेट ही सोती है। पहले देश में ज्यादा राजनीति नहीं थी तो दूसरे मुल्क भारत को विश्व गुरु मानते थे और आज प्रधानमंत्री घूम-घूमकर बता चुके हैं कि भारत कैसा है, पर कोई मानता नहीं।
Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also, Download our Android App