नहीं भूलती अजातशत्रु अटल से वह मुलाकात

By: Aug 17th, 2018 12:04 am

कारगिल युद्ध के बाद एक बार फिर अटलबिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री चुने गए थे। अटल जी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने थे। वह सर्दियों की एक गुनगुनी दोपहर थी। प्रधानमंत्री के साथ पत्रकारों को दोपहर के भोजन पर आमंत्रित किया गया था। आयोजन तत्कालीन लोकसभा सांसद विजय कुमार मल्होत्रा के आवास पर किया गया था। एसपीजी के सुरक्षाकर्मियों ने प्रधानमंत्री वाजपेयी और पत्रकारों के बीच एक मोटी रस्सी खींच दी थी, ताकि पत्रकार एक फासले पर ही रहें। इंतजार खत्म हुआ। प्रधानमंत्री के काफिले ने उस बंगले में प्रवेश किया। प्रधानमंत्री पत्रकारों से बातचीत करने आए तो अचानक चौंक उठे। उनकी आंखों,चेहरे के भावों और हवा में उठी अंगुलियों से साफ था कि अटलजी खुश नहीं थे। मैं उन लम्हों का चश्मदीद साक्ष्य था। मैंने देखा कि प्रधानमंत्री वाजपेयी ने एसपीजी के एक अधिकारी को बुलाया और उनके कान में कुछ कहा। नतीजतन एकाएक वह रस्सी हटाई गई और दोनों पक्षों का फासला भी मिटा दिया गया। अटलजी कहने लगे कि ‘मैं भी पत्रकार रहा हूं। सूचना के इन सिपाहियों से क्या खतरा हो सकता है? आज मैं कारगिल के साथ-साथ कुछ और खास बातें भी करना चाहता हूं।’ प्रधानमंत्री और पत्रकारों की कुर्सियां इतना करीब थीं कि बिना माइक के ही सवाल पूछे गए। उससे पहले अटलजी ने कुछ पत्रकारों को उनके नाम से संबोधित किया और खाने की प्लेट में कुछ लेने का आग्रह करते रहे। उसी भोज के अवसर पर प्रधानमंत्री वाजपेयी ने कहा था-‘हम सब कुछ बदल सकते हैं, लेकिन अपना पड़ोस नहीं बदल सकते। हमें उसी के साथ जीना-रहना है। बेशक पाकिस्तान के कुछ तत्त्वों ने हमारी पीठ में छुरा घोंपा है, लेकिन भूलना नहीं चाहिए कि वह हमारा ही हिस्सा रहा है।’ अटलजी ने ‘पड़ोस’ वाली बात कई और मौकों पर भी कही। मैंने एक पत्रकार के तौर पर लोकसभा में और उसके बाहर अटलजी के प्रधानमंत्रीकाल (1998-2004) को देखा और कवर किया है। वह ऐसे प्रधानमंत्री थे, जो पूरी तरह ‘अजातशत्रु’ थे। संसद भवन में चौतरफा सुरक्षा के  बैरिकेड लगे होने के बावजूद वह निस्संकोच पत्रकारों से मिलते और बात करते थे। सूचनाओं और खबरों की कई ग्रंथियां अटलजी ने ही खोलीं। प्रधानमंत्री के तौर पर कई बार उनके भाषण ऐसे होते थे, मानो वह प्रतिपक्ष के नेता हों! लेकिन सदन में जब तक वह बोलते थे, तब तक निःशब्द खामोशी रहती थी। अटलजी ने हमेशा शब्दों और मर्यादाओं की शालीनता रखी। बेशक उनके भाषणों और कथनों में हास्य-व्यंग्य का पुट होता था, लेकिन उसकी भी एक सीमा रही है। मुझे संसद पर  आतंकी हमले का वह दिन (13 दिसंबर,2001) आज भी याद है, जब प्रधानमंत्री वाजपेयी ने विपक्ष की नेता सोनिया गांधी को फोन कर उनका हालचाल पूछा था। सोनिया गांधी तब अपने आवास 10 जनपथ के भीतर थीं। इसके पहले सोनिया और जयललिता की राजनैतिक सांठगांठ के कारण जब अटल सरकार लोकसभा  में मात्र एक वोट से गिर गई थी, तब भी अटलजी के चेहरे पर एक गहरी मुस्कान थी। उन्होंने सदन में कांग्रेस की ओर संकेत करते हुए कहा था-‘आज आप हम पर हंस रहे हैं, कल सारा देश आप पर हंसेगा।’ तुरंत वह राष्ट्रपति भवन चले गए थे और अपना इस्तीफा सौंप दिया था।  बेशक अटलबिहारी वाजपेयी हमारे बीच नहीं रहे हैं, लेकिन भाजपा और संसद की कार्यवाही कवर करने वाले पत्रकार उन्हें हमेशा याद करते रहेंगे। उनकी कविताएं याद आएंगी, चुटकियां होंठों पर मुस्कान बिखेरती रहेंगी और भाजपा मुख्यालय में दिवाली, मकर संक्रांति, होली के अवसरों पर वे मिष्ठान्न भी याद आएंगे, जिन्हें अटलजी भी बड़े शौक से खाते थे। लेकिन वह पल भी नहीं भूल सकते, जब अटलजी व्हील चेयर पर लोकसभा के प्रवेश द्वार पर अचानक दिखाई दिए थे। आंखें भीग गई थीं। 2009 के दौर में जब उनकी स्मृति ही लुप्त हो गई, वह किसी को पहचानते नहीं थे, एक जिंदा पाषाण बनकर रह गए थे, दरअसल तभी उनका पटाक्षेप हो गया था। आज तो अटलजी का पार्थिव अंत हुआ है। वह ‘स्मारक’ बनकर हमेशा प्रासंगिक बने रहेंगे।


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