वासंती-वासंती बना दें
Aug 5th, 2018 12:05 am
कविता
वे माहिया
मैं चैत की लाल टहनी सी
कच्ची कोंपल, नाजुक-नाजुक शर्मिली सी
ये सांवली सी धूप
मां के आंचल सी ममतामयी तपिश देती
बहकी-बहकी हवा
किसी अच्छी पड़ोसन सी भली लगती
हौले-हौले चलती हरियाली
बचपन की किसी प्यारी सखी सहेली सी
खुशबू किसी मेले सी दूर-दूर तक फैली
आवाज देती मानो
मनमौजी जैसी दोपहर
नई-नई लगी यारी-दोस्ती की तरह तरोताजा
सारा माहौल नई दुल्हन के
सतरंगे अपनों जैसा
प्यार, मोहब्बत से लवरेज
उनींदा सा
धीमे-धीमे चढ़ते नशे जैसा
वसंत के रंग-रूप में अब सराबोर हों
इसे संभाले, संहजें, बांटें
जीवन के हर क्षण को,
हर राग-अनुराग को
वासंती-वासंती बना दें।
हंसराज भारती, बसंतपुर, सरकाघाट, मंडी
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