श्रावण अष्टमी मेला चिंतपूर्णी

By: Aug 18th, 2018 12:10 am

चिंतपूर्णी धाम हिमाचल प्रदेश में स्थित है। यह स्थान हिंदुओं के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। यह 51 शक्तिपीठों में से एक है…

हिमाचल प्रदेश के शक्तिपीठों में इन दिनों श्रावण अष्टमी मेलों की धूम है। चामुंडा देवी, बज्रेश्वरी देवी, ज्वालाजी, श्री चिंतपूर्णी व नैनादेवी के कपाट सुबह ही भक्तों के लिए खोल दिए जाते हैं। चिंतपूर्णी धाम हिमाचल प्रदेश में स्थित है। यह स्थान हिंदुओं के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। यह 51 शक्तिपीठों में से एक है। यहां पर माता सती के चरण गिरे थे। इस स्थान पर प्रकृति का सुंदर नजारा देखने को मिलता है। यहां पर आकर माता के भक्तों को आध्यात्मिक आंनद की प्राप्ति होती है। माता चिंतपूर्णी धाम में 12 से 19 अगस्त तक श्रावण अष्टमी का पावन मेला पूरे हर्षोल्लास से मनाया जा रहा है। जिसमें देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु पहुंचते हैं। श्रावण की संक्रांति वाले दिन से ही मां के भक्तजनों की भारी भीड़ उमड़ने लगती है और  भारी बारिश में भी भक्तजन अपनी पूरी आस्था दिखाते हुए कतारों में खड़े होकर मां के दरबार तक पहुंचने के लिए अपनी बारी का इंतजार करते हैं। मां के भक्तजन ढोल की थाप पर भंगड़ा डालते हुए हाथों में मां का झंडा लिए हुए दरबार की तरफ  बढे़ चले जाते हैं। मां के दरबार पर माथा टेकने के बाद श्रद्धालु सैकड़ों साल पुराने लगे वृक्ष पर अपनी मनोकामना पूरी करने को लेकर मौली बांधते हैं।  देवी मां के इस प्रसिद्ध धाम का संबंध एक पौराणिक कथा से भी जोड़ा जाता है। देव असुर संग्राम में राक्षसराज शुंभ और निशुंभ नामक असुरों ने आदिशक्ति मां के चंडिका तथा काली रूपी स्वरूपों का सामना करते हुए चंड-मुंड नामक सैनापतियों के मारे जाने के बाद रक्तबीज राक्षस को, जिसे वरदान प्राप्त था कि युद्ध में उसके रक्त के जितने कतरे नीचे गिरेंगे, उनमें से उतने ही राक्षस पैदा हो जाएंगे को अपनी सेना में शामिल कर लिया। मां जगदंबा ने इस परिस्थिति से निपटने के लिए अपनी दो योगनियों जया और विजया को आदेश दिया कि वह इस असुर का रक्त जमीन पर गिरने से पहले ही सोंख जाएं, ताकि असुरों का नाश हो सके। तत्पश्चात आदिशक्ति मां ने अपने नवशक्ति रूपों में अदम्य जोरदार संग्राम किया और जया और विजया को उस राक्षस का रक्त तेजी से सोंखना पड़ा। इसके बाद जया और विजया अपनी सुध-बुध खो बैठीं और राक्षस के मिट जाने के बाद भी अपनी रक्त पीपासा को काबू न कर सकीं और मां से रक्त मांगने लगीं। ममतामयी मां भगवती अपनी दुलारियों की त्रास न सह सकी और महाशक्ति ने त्याग की वह मिसाल कायम कर दी, जो शायद कहीं और ढूंढी न जा सके। भगवती मां ने स्वयं अपनी गर्दन अपने धड़ से काट डाली और उन में से दो रक्त धाराएं बह निकली, जो उन दोनों योगनियों के मुख में स्वयं जा गिरी। साथ ही प्रभु माया से एक तीसरी अमृतधारा बह निकली जो मां के कांतिमुख में प्रवाह करने लगी। तभी से इस देवी को छिन्नमस्तिका मां भी कहा जाता है। मंदिर के मुख्य द्वार पर प्रवेश करते ही सीधे हाथ पर आपको एक पत्थर दिखाई देगा। यह पत्थर माईदास का है। यही वह स्थान है, जहां पर माता ने भक्त माईदास को दर्शन दिए थे। भवन के मध्य में माता की गोल आकार की पिंडी है। जिसके दर्शन भक्त कतारबद्ध होकर करते हैं।


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