श्री विश्वकर्मा पुराण

By: Aug 11th, 2018 12:04 am

सज्ज्न निरंतर प्रभु में अपनी भक्ति को स्थिर रखते हैं और जैसे एक मकान बनाने वाला अपने मकान की स्थिरता के लिए नींव को ज्यादा से ज्यादा मजबूत बनाता है, उसी प्रकार मोक्ष की इच्छा वाले मनुष्य भी प्रभु में अपनी भक्ति को दृढ़ करते हैं और सब प्रभु के नाम पर ही छोड़ देते हैं…

इस प्रकार दुख आदि सब उससे दूर भागते हैं और वह प्राणी पर्वत के समान दृष्टि वाला होता है तथा सब विषयों के प्रति वैराग्य उत्पन्न होकर केवल एक ही प्रभु के विषय उसका चित्त स्थिर भक्ति को पाता है। इस प्रकार एक प्रभु के ही विषय में जिसका चित्त स्थिर होता है, उस प्राणी की आत्मा अत्यंत निर्मल हो जाती है तथा प्रकृति से परे हुई ऐसी वह आत्मा सब भेदों से दूर सूक्ष्म और स्वयं प्रकाश होती है, जैसे राख डालने से अंगार ठंडा पड़ जाए और राख को हटा देने से फिर वह अंगार प्रकाशित होने लगे।

उसी तरह से आत्मा भी विषय आदि में से चित्तकि आसक्ति टूटते ही प्रकाशवान होने लगती है और इससे जो मनुष्य ब्रह्मात्म पाने की इच्छा करता हो अथवा विराट में मिलकर इस तरह जन्म-मरण के फेरों से छुटकारा दिलाने वाली मोक्ष की इच्छा रखता हो, उस मनुष्य के लिए इस तरह की प्रभु की भक्ति ही श्रेष्ठ मार्ग है। सब लोग इस प्रकार मानते हैं कि मनुष्य को विषयों में आसक्ति हो और उनमें ही रचा-पचा रहे, तो उससे उस आत्मा को बस बंधन और उसका विषयों के प्रति संग उसे धीरे-धीरे प्रभु की भक्ति में आसक्ति करेगा।

इस तरह प्रभु की भक्ति में उसकी आसक्ति होगी। इस तरह प्रभु की भक्ति में लीन होने वाले मनुष्य से मोक्ष जरा भी दूर नहीं। सज्जन पुरुष दया के भंडार होते हैं तथा हमेशा सहनशील स्वभाव तथा प्राणी मात्र के साथ में सद्भाव रखने वाले होते हैं। इस जगत में उनका कोई शत्रु नहीं होता, उनमें शांति का गुण बहुत उत्तम होता है। ऐसे पुरुष कभी शास्त्र के वचनों का उल्लंघन नहीं करते तथा अपने चरित्र में जरा भी दाग नहीं लगने देते और इससे उनको सज्जन अथवा सत्पुरुष कहा जाता है। ये सज्जन निरंतर प्रभु में अपनी भक्ति को स्थिर रखते हैं और जैसे एक मकान बनाने वाला अपने मकान की स्थिरता के लिए नींव को ज्यादा से ज्यादा मजबूत बनाता है, उसी प्रकार मोक्ष की इच्छा वाले मनुष्य भी प्रभु में अपनी भक्ति को दृढ़ करते हैं और सब प्रभु के नाम पर ही छोड़ देते हैं तथा प्रभु की भक्ति के लिए अपने सब कार्य सगे, संबंधी वगैरह सबका त्याग करते हैं तथा प्रभु के उत्तम फल को देने वाली कथाएं सुनते हैं फिर प्रभु के दिए उदार चरित्र को गाते हैं।

हमेशा उनका मन प्रभु को ही देखता है इस प्रकार से प्रभु में जिनका मन लगा हुआ है उस अनन्य भक्त को आदि दैविक, भौतिक अथवा आध्यात्मिक दुख नहीं होते। उत्तम मनुष्य हमेशा किसी भी तरह का अच्छा या बुरा किसी भी तरह का संग मेरे अनन्य भक्त अपनी इंद्रियों के आश्रय से जो कुछ कार्य करते हैं, वे सब कार्य मेरे लिए ही होते हैं।

इस प्रकार के कार्य करते-करते निरंतर ही मेरे गुण पराक्रम तथा कार्यों का ही गायन एवं श्रवण करते रहते हैं। उनका मुख हमेशा प्रसन्न दिखता है तथा वह किसी भी प्रकार के दुख अथवा शोक की छाया उनके मुख पर नहीं दिखती फिर भी वह निरंतर अपने हृदय में मेरे उत्तम स्वरूप का ध्यान करते रहते हैं।

फिर मेरे अलौकिक स्वरूप के साथ में बातचीत क्रीड़ा एवं अनेक प्रकार का आनंद करने वाले ऐसे मेरे वह भक्त इस प्रकार से मुझमें ही लिप्त रहते हैं। एश्वर्य वगैरह का त्याग करके एक मेरा ही स्मरण करते हैं। उन मनुष्यों को इस संसार का जन्म-मरण का फेरा नहीं रहता तथा वह इस संसार को तैर कर पल्ली पार रहे हुए ऐसे मेरे सायुज्यरूपी उत्तम मोक्ष की गति को प्राप्त करते हैं।


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