हमारी भयावह स्वतंत्रता

By: Aug 14th, 2018 12:05 am

स्वामी रामस्वरूप

योगाचार्य, वेद मंदिर, योल

नव मास, नववर्ष, नवनिर्माण, नवशती, जन्मदिवस, विवाह दिवस इत्यादि अनेक उल्लास एवं हर्ष जनित दिवसों से भी कहीं अधिक 15 अगस्त, 1947 का दिन स्वतंत्रता दिवस हम सभी भारतीयों के लिए विशेष महत्त्वपूर्ण दिवस है। किसी शायर ने क्या खूब कहा है-‘कैद में है बुलबुल, सैयाद मुस्कुराए’। आजादी पर पांबदी लगे कैदी का दिन-रात जीना कितना कठिन है और यातनापूर्ण होता है, जिसका अनुभव जितना पिंजरे में बंद पशु-पक्षी एवं कारावास में बंद कैदियों और शरीर में कर्म बंधन द्वारा कैद जीवात्मा के दुखों से ज्ञात होता है, उतना किसी अन्य से नहीं। शरीर में कैद जीवात्मा चाहकर भी दुख, रोग, परेशानियों आदि से छूट नहीं पाता, इसी प्रकार पिंजरे में बंद शेर आदि पशु एवं पक्षी की स्थिति है। स्वतंत्रता से पहले भारतवर्ष का प्रत्येक नागरिक भी एक प्रकार से कैद ही था, उसे स्वतंत्रता से कुछ कहने, घूमने-फिरने आदि किसी प्रकार की स्वतंत्रता नहीं थी। हम कैद थे और हमारा सैयाद अंग्रेज हमें देखकर मुस्कुराता रहता था। कैद में पड़ा उस समय का प्रत्येक अमीर-गरीब प्राणी सुखी नहीं था। कहते हैं ‘पराधीन स्वपनेहु सुख नाहि’ अर्थात जो किसी दूसरे के अधीन है, वह कभी सुख नहीं पा सकता। 800 वर्ष मुगल एवं 200 वर्ष अंग्रेजों की गुलामी में हम अपनी भारतीय संस्कृति को बिलकुल भूल गए। कुत्ते-भेडि़ये की तरह गुलामी में हमने दूध, चाय, डबल रोटी, मांस-मदिरा, बीड़ी-सिगरेट, इनाम, ऊंचे-ऊंचे पदों का लोभ, विदेशी भाषा, विदेशी पहरावे जैसी अनेक विदेशी संस्कृति अपनाकर प्रायः ‘गधा न घर का न घाट का’ वाली कथा चरितार्थ कर दी है। अर्थवेद मंत्र 19/43/1 में उपदेश है कि ऋषि-मुनि कठोर तप करके जनता को ज्ञान देकर राष्ट्र को सुदृढ़ बनाएं, परंतु आज अधिकतर साधु-संतों का मिजाज सबको विदित है। दूसरा, वेद ने कहा कि राजा विशुद्ध वैदिक राजनीति द्वारा प्रजा का पुत्रवत पालन करे। यहां भी हम असफल हो गए, अब दुखी जनता कहां जाए? इतिहास गवाह है कि हमारे देश में धर्म-संस्कृति खंडित होने के कारण ही देशवासियों की चरित्रहीनता ने हम भारतीयों को गुलाम बनाया था। आजादी की कीमत माताओं ने जेवर और बेटे कुर्बान किए, अमीरों ने धन व गरीबों ने खून बहाया, मां, बहन व बेटियों की इज्जत पर कुठाराघात, परिवारों के परिवारों का कत्लेआम, भुखमरी, मकान-दुकान, घर-बाहर सबकी बर्बादी, सुभाष, तिलक, भगत सिंह, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, नानाजी, तांत्याटोपे जैसे अनेक आजादी के परवानों की रक्त-रंजित, भीषण आहुति देकर चुकाई थी। अतः स्वतंत्रता हमें किसी ने दान में नहीं दी है। उत्पीडि़त, शोषित एवं अपमानित भारत भूमि के वीर जवानों ने स्वतंत्रता आंदोलन के महान यज्ञ में परिवार का सुख, संपत्ति, जवानी के भोग इत्यादि सब कुछ ठुकराकर काल कोठरियों में सड़कर, काला पानी जैसे स्थानों में हड्डियां गलाकर अंग्रेजों के दुखदायी चाबुकों की असहनीय मार को हंसते-हंसते सहकर तथा फांसी के फंदों पर झूलकर, अंत में 15 अगस्त, 1947 ई. को गुलामी के दुखदायी समय का अंत हुआ तथा भारत मां को कैद की बेडि़यों से आजाद करके हमने स्वतंत्र भारतरूपी स्वर्णमय अक्षर इतिहास को प्रदान किए थे। साथ ही ऋषियों-मुनियों, साधु-संतों एवं राजर्षियों की पवित्र भूमि का एक भाग स्वयं से पृथक करके पाकिस्तान के नाम से इतिहास के पन्नों में जोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था। मनुस्मृति श्लोक 2/22 में इस पावन वसुंधरा का क्षेत्र जहां उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विध्यांचल, मध्यवर्ती विनशन प्रदेश, प्रयाग प्रदेश में पश्चिम में मध्य देश, पूर्व समूह से लेकर पश्चिम समुद्र तक वर्णित है। दुर्भाग्यवश आज इसका क्षेत्रफल धर्म संस्कृति खंडित होने के कारण अत्यधिक घटकर सीमित हो गया है। वर्षों की कुर्बानियों के पश्चात स्वतंत्र भारतीयों को अब इस स्वतंत्रता की रक्षा का भी बीड़ा उसी तरह उठाना चाहिए था, जिस तरह गुलामी की जंजीरें तोड़ने के लिए एकजुट होकर संपूर्ण देशवासियों ने भारत माता को गुलामी की जंजीरों से आजाद करने का बीड़ा उठाया था। किसी भी देश की पहचान उसकी संस्कृति से है, संस्कृति सदा भाषा के माध्यम से जीवित रहती है। भाषा नष्ट हो जाए, तो संस्कृति का नामोनिशान शेष नहीं रहता। किसी भी राष्ट्र की संस्कृति का विकास उसकी राजनीतिक एवं सामाजिक उन्नति पर ही संभव है। इतिहास गवाह है कि प्रथम धर्म के विषय में परंपरागत तर्कसंगत केवल प्रमाणिक विचार ही है, जो मानव का तथा देश का कल्याण कर सकते हैं। दुख है कि आज इन विचारों के अभाव में तथा मनगढ़ंत अप्रमाणिक विचारों के झमेले में हमारा देश दुखों के सागर में गोते खा रहा है। आज हमें अपनी खोई हुई वैदिक संस्कृति जिसके द्वारा श्रीराम, श्रीकृष्ण, राजा दशरथ, राजा हरिश्चंद्र इत्यादि अनेक राजर्षियों ने प्रजा का पुत्रवत पालन किया, इस स्वतंत्र भारत में पुनः स्थापित करने का यत्न करना होगा। वेदों में कहा कि खेतीबाड़ी एवं धनधान्य की उत्पत्ति और समान रूप से इसका विभाजन, राष्ट्र की संसद प्रणाली व्यवस्था में करें, वेदों के अनुकूल चलकर किसी एक व्यक्ति विशेष को राज्य का स्वतंत्र अधिकारी न होने दें। संसद द्वारा ही राज्य कार्यों की पुष्टि हो, भ्रष्ट राजनीति एवं चाटुकारिता का नाश हो, भारतीय संस्कृति विश्व में गूंजे, न्यायप्रणाली, स्वतंत्रता, नारी एवं गऊ सहित पशु-पक्षियों तथा वनों की रक्षा हो और प्रदूषण एवं शोषण इन बुराइयों को उखाड़ फेंके। अंत में हम ये विचार करें कि कहीं असंख्य शहीदों की कुर्बान हुई रूहें आज के स्वतंत्र भारत की दुर्दशा देखकर स्वर्ग में कांप न जाएं।


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