हिमाचली भाषा का स्वरूप एवं दिशाएं

By: Aug 5th, 2018 12:05 am

अमरदेव आंगिरस

-गतांक से आगे…

पहली नवंबर, 1966 को जब भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन हुआ तो पंजाब से पहाड़ी क्षेत्र कांगड़ा, ऊना, कुल्लू, कंडाघाट-कसौली क्षेत्र आदि हिमाचल में मिलाए गए। कांगड़ा पुराने हिमाचल की तुलना में विस्तृत क्षेत्र रहा है और यहां की बोली कांगड़ी भी विस्तृत क्षेत्र में प्रचलित रही है। पंजाब का भाग रहने के कारण कांगड़ा में अधिकांश प्रभाव पूर्वी पंजाबी का रहा है।

विद्वानों ने इसे पंजाबी की उपबोली माना था। अतः हिमाचल में कांगड़ा के मिलने से इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता पड़ी। कांगड़ी बोली को ग्रियर्सन ने 1881 की प्रारंभिक जनगणना में पश्चिमी पहाड़ी के अंतर्गत स्वीकारते हुए इसे पहाड़ी बोली ही माना था। 1931 की जनगणना में पहाड़ी बोलियों की संख्या 30 हो गई। 1961 की जनगणना में पहाड़ी के स्थान पर बोलियों की संख्या 62 हो गई, यानी जिस व्यक्ति ने जो मातृबोली लिखवाई, वह लिख ली गई। तत्कालीन कारण यह था कि ‘पहाड़ी बोली’ प्रादेशिक मानी जाए, इस प्रकार की सामाजिक या राजनीतिक विचारधारा या इच्छाशक्ति नहीं थी। कांगड़ी बोली की उपेक्षा का कारण तत्कालीन नेताओं का राजनीतिक स्वार्थ माना जा सकता है, जिसमें पंजाब राज्य में अपना बराबरी का रुतबा कायम करना था। 1911 की जनगणना में यह स्पष्ट पता चलता है।

1911 की जनगणना में डोगरी बोली को पंजाबी की उपभाषा माना गया और कांगड़ी बोली को डोगरी की उपभाषा माना गया। दोनों को पंजाबी के अधीन माना गया, किंतु विद्वानों के विरोध के कारण 1931 में पुनः कांगड़ा को ‘पहाड़ी’ के अंतर्गत स्वीकार किया गया, परंतु 1961 की जनगणना में कांगड़ा में पहाड़ी की जगह हिंदी लिखी गई। कांगड़ा की बोली हिंदी लिखने का कारण यह था कि पंजाबी सूबा बनने के कारण डर से प्रेरित होकर हिंदुओं ने अपनी भाषा हिंदी लिखवाई, जबकि वास्तव में वे पंजाबी भाषी थे।

पठानकोट से लगता क्षेत्र, शिवालिक हिल्स, ऊना जिला, पांवटा से लगता उत्तर प्रदेश का क्षेत्र, ये सब मूलतः पंजाबी बोलने वाले थे, परंतु जनगणना में हिंदी लिखवाने के कारण इनका विलय हिमाचल में हो गया और हिमाचल सरकार ने हिमाचल में हिंदी को राजभाषा अंगीकार किया। कांगड़ी बोली की उपेक्षा के कारण छठे दशक में यहां के कवि-लेखकों ने कांगड़ी बोली को डोगरी के रूप में जम्मू एवं जालंधर आकाशवाणी केंद्रों से प्रस्तुत करने का प्रयास किया। डा. सुशील कुमार फुल्ल के अनुसार कांगड़ी डोगरी से काफी मिलती है। कांगड़ी लेखक डोगरी सम्मेलनों में अपनी रचनाओं के कांगड़ी-डोगरी के मिश्रित रूप में प्रस्तुत कर वाहवाही एवं पुरस्कार अर्जित करने में गौरवान्वित हो रहे थे। वस्तुतः साहित्यकारों को कोई मंच उपलब्ध नहीं था, अतः बोलियों की यह स्वाभाविक परिणति थी। भाषा विशेषज्ञों ने पहाड़ी (हिमाचली) में कभी भी डोगरी और पंजाबी को शामिल नहीं किया है।

कांगड़ी पश्चिमी पहाड़ी के अंतर्गत शौरसेनी भाषा का ही विकसित रूप है, जो हिमाचल की अन्य बोलियों से पर्याप्त साम्यता रखता है। यह वास्तविक तथ्य है कि कांगड़ी बोली में पंजाबी भाषा का पर्याप्त प्रभाव एवं शब्द भंडार है, किंतु डोगरी से यह बिल्कुल भिन्न है। प्रारंभिक हिमाचल जिसे पुराना हिमाचल भी कहा जाता है, प्राचीन काल से एक समान व्यवस्था पर एकीकृत रहा है।

इन्हें अंग्रेजी सरकार ने प्रिंसली स्टेट्स अथवा शिमला हिल स्टेट्स कहा था। प्रशासनिक दृष्टि से शिमला से ऊपर की 18 रियासतें और शिमला से निचली 12 रियासतें इसका स्वरूप बनाती थीं। इन रियासतों में ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक समानता थी। लगभग 11वीं शती के बाद मैदानों-मध्य भारत से आने वाले राज कुमार योद्धाओं ने सामरिक संघर्षों के कारण यहां रियासतों की नींव डाली थी। सुविख्यात राजपूत वंशों के ये शासक चौहान, परमार, चंदेल, राठौर, सिसोदिया, कछवाह, पंवार, सेन आदि कहलाते थे। वस्तुतः ये शासक ठाकुर या राणा कहलाते थे, जिन्होंने मध्य भारत की भाषा-संस्कृति को यहां स्वाभाविक रूप से आरोपित तथा प्रभावित किया।

-क्रमशः


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