हिमाचल को नशे से बचाने की कवायद आरंभ

By: Aug 9th, 2018 12:05 am

अजय पाराशर

लेखक, धर्मशाला से हैं

आईएचबीटी, पालमपुर के एक शोध के अनुसार जंगली गेंदे का पौधा भांग, लैंटाना और कांग्रेस घास के मुकाबले हिमाचली परिवेश में अधिक फलता-फूलता है और इसे दवाइयों में उपयोग किया जा सकता है। अगर भांग, लैंटाना  की जगह इसके बीज लगाए जाएं, तो भयानक पौधों की समस्या से मुक्ति मिल सकती है…

ड्रग्स सेवन और इससे जुड़ा व्यवसाय पंजाब की तमाम मर्यादाओं को लांघ चुका है और अब इससे हिमाचल का अछूता रहना मुश्किल हो गया है। जब से सरकार ने सिंथेटिक ड्रग्स पर प्रतिबंध लगाया है, इस धंधे में संलिप्त लोगों ने नशेडि़यों को अपने जाल में फंसाए रखने के लिए कोकीन और हेरोइन की तस्करी आरंभ कर दी है। इन दोनों ड्रग्स की तस्करी में पैसा भी ज्यादा है। गौरतलब है राज्य उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद प्रदेश सरकार ने सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग को ड्रग्स प्रभावितों के पुनर्वास के लिए नीति बनाने के निर्देश दिए। इस उद्देश्य के तहत ड्रग्स प्रभावितों के पुनर्वास के लिए नीति निर्माण हेतु धर्मशाला में प्रथम राज्य स्तरीय कार्यशाला का आयोजन किया गया, जिसमें विभिन्न विभागों के वरिष्ठ अधिकारियों ने भाग लिया। कार्यशाला में इस मुद्दे से जुड़े तमाम पहलुओं पर विस्तृत विचार-विमर्श हुआ। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली के सहायक प्राध्यापक डा. आलोक गुप्ता के अनुसार निकोटीन आधारित उत्पादों, मसलन बीड़ी-सिगरेट, हुक्का, खैनी आदि और हेरोइन का सेवन करने वाले 95 फीसदी लोग ताउम्र के लिए इसके गुलाम बन जाते हैं। इन उत्पादों की सहज उपलब्धता और आस-पास के लोगों द्वारा इसका सेवन तथा दोस्तों का दबाव किसी भी कम उम्र के व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षित करता है। अगर हिमाचल के संदर्भ में देखें, तो निकोटिन से जुड़े तमाम उत्पाद आसानी से उपलब्ध हैं। युवा, यहां तक कि स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे भी इनके आसान शिकार बन जाते हैं।

अपने घर तथा आस-पास अपने से बड़ों तथा अन्य लोगों को इनके उत्पादों का सेवन करते देख, बच्चों में इनके प्रति सहज आकर्षण हो उठता है। सिंथेटिक ड्रग्स तथा अन्य नशों की गिरफ्त में आए लोग उपचार और पुनर्वास के बाद मुख्यधारा में शामिल हो सकते हैं। बशर्ते इनके प्रति हमारा दृष्टिकोण सहानुभूतिपूर्ण हो और समय-समय पर उन्हें आवश्यक परामर्श और मार्गदर्शन उपलब्ध करवाया जाए। हाल ही में केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के तत्त्वावधान में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली की निगरानी में देश के तमाम राज्यों और केंद्र प्रशासित प्रदेशों में नशे के फैलाव तथा प्रतिरूप पर राष्ट्र स्तरीय सर्वेक्षण चलाया जा रहा है। हिमाचल में यह सर्वे फिलहाल कांगड़ा, कुल्लू और किन्नौर जिला में चलाया जा रहा है। अगर हिमाचल प्रदेश के संदर्भ में बात की जाए, तो यहां की जलवायु भांग के पौधे को ऐसा प्राकृतिक वातावरण उपलब्ध करवाती है, जो उसे स्वाभाविक रूप से फलने-फूलने में मदद करता है। लैंटाना और कांग्रेस घास की तरह यह अपने नजदीक की भूमि को इस तरह लीलता है कि हर तरफ इसी का जलवा नजर आता है। ऐसे में नशेड़ी अपने आसपास उपलब्ध भांग के पौधों से अपना काम चला लेते हैं।

नशे के कारोबारी प्रदेश के उन भागों में सरकारी या वन भूमि को निशाना बनाकर नियोजित ढंग से खेती करते हैं, जहां आम लोगों, जिनमें पुलिस तथा अन्य प्रवर्तन एजेंसियों का पहुंचना बेहद मुश्किल होता है। अवैध रूप से की जा रही भांग तथा अफीम की खेती का करीब 95 फीसदी ऐसी ही जमीनों पर काश्त किया जा रहा है। कुल्लू में मलाना भले ही मलाना क्रीम के लिए बदनाम हो, लेकिन सैंज घाटी में भी इसका उत्पादन खतरे की हद को पार कर चुका है। अब इससे भी बड़़ी एक और समस्या मुंह बाय खड़ी है। पंजाब में नशे के विरुद्ध छेड़े गए अभियान के बाद इस धंधे में संलिप्त आपधारिक प्रवृत्ति के लोग ऊना, कांगड़ा, चंबा, सोलन, सिरमौर तथा बिलासपुर जैसे सीमावर्ती जिलों को निशाना बना रहे हैं। चिट्टा का कारोबार तेजी से अपने पांव पसार रहा है। हैरानगी की बात है कि चंबा जिला के एक क्षेत्र विशेष में अब महिलाएं, अपने स्कूल जाने वाले बच्चों के साथ धंधे में उतर आई हैं। कुल्लू जिला में पिछले सात महीने से एसपी शालिनी अग्निहोत्री की अगुवाई में चलाए जा रहे नशा उन्मूलन में कई अहम पहलू उभरकर सामने आए हैं। नशे से संबंधित समस्याओं में नशा सामग्रियों का अवैध उत्पादन, अवैध कारोबार तथा ड्रग्स उपभोग शामिल हैं। एक ग्राम चिट्टा की कीमत करीब 2,000 रुपए तक है। नशा उन्मूलन के दौरान नशा सामग्री और उत्पादों को नष्ट करना, जब्त करना तथा आवश्यकतानुसार नीतियों में बदलाव शामिल हैं। काबिलेगौर है कि नशा आरंभ करने वाले युवाओं की पहले औसत आयु 16 से 18 साल थी, जो अब घटकर 13 से 15 वर्ष हो गई है। अगर मांग और आपूर्ति दोनों पर ही रोक लगाई जा सके, तो इस समस्या पर काफी हद तक नियंत्रण पाया जा सकता है। इससे पहले समाज में ऐसा वातावरण तैयार करना होगा, जिससे तमाम तरह के नशे पर लगाम लगाई जा सके। इसके लिए अब आईईसी (इन्फारमेशन, ऐजूकेशन तथा कम्यूनिकेशन) के बजाय बीसीसी (बिहेवियर चेंज कम्यूनिकेशन) पर बल देना पड़ेगा। आईएचबीटी, पालमपुर के एक शोध के अनुसार जंगली गेंदे का पौधा भांग, लैंटाना और कांग्रेस घास के मुकाबले हिमाचली परिवेश में अधिक फलता-फूलता है और इसे दवाइयों में उपयोग किया जा सकता है। ऐसे में अगर भांग, लैंटाना और कांग्रेस घास के स्थान पर इसके बीज लगाए जाएं, तो नशे और कतवार के भयानक पौधों की समस्या से पार पाने के अलावा लोगों को सकारात्मक रोजगार उपलब्ध करवाया जा सकता है। लेकिन जहां तक सिंथेटिक ड्रग्स और हेरोइन, कोकीन तथा चिट्टा जैसे नशों की बात है, तो इनसे पार पाने के लिए हमें समस्या की गहराई में जाकर इसे जड़ से उखाड़ना होगा, नहीं तो इस आने वाली अंधेरी रात की सुबह होना मुश्किल है।


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