आस्था

वाराणसी के चौबेपुर इलाके के उमरहा में बना स्वर्वेद मंदिर दुनिया का अनोखा मंदिर है। संत सदाफल महाराज के विश्व के दर्जनों देशों में आश्रम हैं। वाराणसी का यह आश्रम सबसे बड़ा है।

सम्मान करना दिव्य प्रेम का लक्षण है। इसी सम्मान को पूजा कहते हैं। पूजा से भक्ति पनपती है। जो कुछ प्रकृति हमारे लिए करती है हम उसी की नकल पूजा की विधि में करते हैं। परमात्मा भिन्न-भिन्न रूपों में हमारी पूजा कर रहे हैं। हम पूजा द्वारा वह सब ईश्वर को वापस अर्पित करते हैं। पूजा में जो फूल चढ़ाए जाते हैं वे फूल प्रेम के प्रतीक हैं। ईश्वर माता-पिता, पती-पत्नी, मित्र, बच्चे आदि अलग-अलग रूपों में हमसे प्रेम करने आते हैं। वही प्रेम गुरु के रूप में आकर हमें परमात्मा स्वरूप तक पहुंचाता है जो कि हमारा सच्चा स्वभाव है। जिस प्रेम से हमारा जीवन फल फूल रहा है, उस प्रेम को मान्यता देना ही पूजा में फूल को अर्पण करना है। परमात्मा हमें हर मौसम में तरह-तरह के फल देते हैं। हम उन्हीं फलों को परमा

जिस पल आप किसी ऐसी चीज के साथ पहचान बना लेते हैं, जो उससे अलग है जो आप वाकई हैं, तब मन की गतिविधि शुरू हो जाती है। आप उसे रोक नहीं सकते। क्या आपने कोशिश की है? आप खुद को घास डालते हैं और बस जीवन गुजारते रहते हैं। खुद को घास डालना बंद कीजिए। चौबीस घंटे के लिए बैठकर मन को रोकने की भरसक कोशिश कीजिए। आप पाएंगे कि यह आपको हर जगह ले जा रहा है। तीन दिन में आप पागल हो जाएंगे। य

अत: परमेश्वर को यजुर्वेद मंत्र 32/2 के अनुसार भी न ऊपर से, न मध्य से और न ही नीचे से कोई ग्रहण कर सकता है। जैसा यजुर्वेद मंत्र 32/3 कहता है कि ‘न तस्य प्रतिमा अस्ति’ कि पति+ माप अर्थात परमेश्वर को मापा नहीं जा सकता...

मार्गशीर्ष माह में पूर्णिमा के दिन मां भगवती त्रिपुर भैरवी की जयंती मनाई जाती है। इस दिन मां त्रिपुर भैरवी की उत्पत्ति हुई थी। मान्यता के अनुसार माता पार्वती ने भगवान शिव से मृत्यु के दर्द से मनुष्य की मुक्ति के लिए उपाय पूछा

काशीपुर के उद्यान भवन के एक कक्ष में रामकृष्ण रोग शैय्या पर लेटे हैं। सभी शिष्य उनके पास खड़े हैं। उस कमरे में और कोई भी नहीं था। आज नरेंद्र नाथ पूरे संकल्प से आए थे कि जिस उपाय से भी हो, निर्विकल्प समाधि लेकर ही रहेंगे। चिरकाल, पुरुषकार के उपासक आज दया की शिक्षा मांगने आए हैं। लेकिन भय से, विस्मय से, सभ्रम से उनकी आवाज नहीं निकली। अंतर्यामी पुरुष शिष्य की मर्जी को समझ गए कि वो क्या चाहता है। श्री

स्वार्थ और अहंकार से मुक्त होकर औरों के लिए जो कष्ट उठाया जाता है, वही सच्चा धर्म है। धर्म है औरों के लिए, राष्ट्र के लिए, विश्व के लिए स्वयं का उत्सर्ग। परहित अर्थात औरों की खुशी के लिए, औरों की पीड़ा मिटाने के लिए स्वयं को उत्सर्ग कर देना ही धर्म है। यह प्रक्रिया अत्यंत कष्टदायी अवश्य है, परंतु इसी में सुख, शांति एवं संतोष मिलता है। ऐसे में, धर्म कष्टों अथवा संकटों से घिरा अवश्य होता है, धर्म के पालन से कठिनाई अवश्य होती है, परंतु अंतत: धर्म की ही जीत होती है और धर्मपालन का परिणाम अत्यंत श्रेष्ठ एवं संतोषदायक होता है। औरों को क्लेश देना अधर्म है और परहित

दुख इसका भोजन है और आनंद में इसकी मृत्यु हो जाती है। जैसे प्रकाश हो जाए अंधेरा मर जाए, ऐसे ही आनंद आए तो अहंकार मर जाता है। सागर है लेकिन बूंद नहीं। निरंकार है परंतु अहंकार नहीं। विराट के साथ एक हो जाना आनंद है लेकिन आनंद को समा तो न सकोगे। आनंद को भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता। अनपढ़ से विद्वान हो जाता है। मैंने एक गुरसिख को देखा जो बिलकुल अनपढ़ है ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया। लगन से, प्रेम भाव से सेवा, सुमरिन, सत्संग करने लगा। अचानक गीत बोलने लगा। गीत लिखने लगा। ऐसे-ऐसे गीत कि अच्छा पढ़ा लिखा व्यक्ति भी नहीं लिख सकता

गीता जयंती मार्गशीर्ष माह में शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाई जाती है। ‘गीता’ ग्रंथ का प्रादुर्भाव मार्गशीर्ष में शुक्ल एकादशी को कुरुक्षेत्र में हुआ था। महाभारत के समय श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को ज्ञान का मार्ग दिखाते हुए गीता का आगमन होता है। इस ग्रंथ में छोटे-छोटे अठारह अध्यायों में संचित ज्ञान मनुष्यमात्र के लिए बहुमूल्य है। अ