प्रतिबिम्ब

पहाड़ों से निकलने वाली प्रगतिशील ‘इरावती’ पत्रिका का 20वां अंक हिमाचल में 90 के दशक में साहित्यिक व सांस्कृतिक क्रांति के अग्रदूत रहे भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी महाराज कृष्ण काव के जीवन, दर्शन, संघर्ष की कहानी बयां करता नजर आता है। हिमाचल के जिला हमीरपुर के गांव बल्ह, डाकघर मौहीं में कोरोना काल के इस

डा. मीनाक्षी दत्ता, मो.-9459416333 साहित्य का समय से घनिष्ठ संबंध है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। साहित्य का अर्थ हितकर होना है। जिस भी कथन में हित की भावना होती है, वह साहित्य ही है। यदि हम भारतीय साहित्य परंपरा की बात करें तो हमें कालजयी साहित्य के रूप में वही साहित्य जीवंत मिलता है

यहां व्यंग्य जीवन के परिधान की तरह है। रोजाना नई व विचित्र परिस्थितियों के बीच खुद को पेश करने का एक समाधान। कमोबेश हर घटनाक्रम के बीच अगर जीने का नजरिया ढूंढा जाए, तो यह खुद पर कटाक्ष करने का संयम और गुदगुदी पैदा करने का अवसर बन सकता है। ‘कविता की किताब और सर्फ

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस नई शृंखला का विषय है। यह शृांखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। प्रस्तुत है इसकी चौथी किस्त… मो.-9418165573 लोकगाथा का अभिप्राय है जनसाधारण में परंपरा से चले आ रहे प्रबंधात्मक गीत। प्राचीन काल में लेखन की सुविधा न होने के

विमर्श के बिंदु मो.- 9418130860 अतिथि संपादक : डा. गौतम शर्मा व्यथित हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -3 -लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा -साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक -हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप -हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे -हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता -हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व -सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार

अशोक सिंह गुलेरिया मो.-9453939270 देवभूमि हिमाचल प्रदेश परंपरागत एवं पौराणिक लोक साहित्य का विशाल पुंज है। नैसर्गिक सौंदर्य से भरपूर इस धरती के कण-कण में अलौकिक आभा प्रकट होती महसूस होती है। प्रदेश के जन-जन के कृत्य में बसी परंपराएं, विचारधाराएं, रीति-रिवाज, संस्कार तथा मधुर बोलियां इस प्रदेश की विविधता एवं समृद्धता को प्रकट करती

मौत के बाद लेखक को जी रहीं कविताएं और जिंदगी की कविताओं में लेखक की स्मृतियों से सांसें लेते सृजन की एक बेहतरीन प्रस्तुति है ‘मैं यहीं रहना चाहता हूं।’ सुरेश सेन निशांत अपनी जीवन यात्रा के बाद कविता का जीवन बढ़ा देते हैं, इसलिए ‘मरने के बाद’ में लिखते हैं, ‘यहां की गटर के

आग एक मुझे आग चाहिए थी जिसे सुलगाने के लिए एक औरत झुकी थी चूल्हे पर आग थी कि सुलगने में वक्त ले रही थी वहां एक बच्चा था जिसकी आंखों से पानी झर रहा था उस आग के सामने रोटियां पकने के इंतजार में बेसब्र बैठा था बच्चा आग सुलगाती स्त्री और उसके आसपास

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस नई शृंखला का विषय है। यह शृांखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। पेश है इसकी दूसरी किस्त… डा. विजय विशाल मो.-9418123571 आज हम एक रुग्ण और खंडित समाज में जी रहे हैं, जिसके प्रगति की ओर बढ़ते कदम अवरुद्ध हैं।