रूस-अमरीका दोस्ती का युग
– वेद प्रताप वैदिक, लेखक, विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं
पिछले दो दशक से चले आ रहे इस महाशक्ति तनाव को घटाने में लिस्बन सम्मेलन का विशेष योगदान होगा। लिस्बन में यह तय हुआ है कि नाटो और रूस एक-दूसरे का विरोध करने के बजाय एक-दूसरे के साथ सहयोग करेंगे…
लिस्बन में हुआ नाटो, रूस और अफगानिस्तान का शिखर सम्मेलन विश्व राजनीति पर अपना गहरा प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहेगा। यदि इस सम्मेलन में रूस और अफगानिस्तान भाग नहीं लेते, तो भी यह महत्त्वपूर्ण होता, क्योंकि इसमें यूरोप के 27 देशों के अलावा अमरीका की भी भागीदारी होती, लेकिन इन दो गैर नाटो देशों ने भाग लेकर इस सम्मेलन को ऐतिहासिक घटना बता दिया है। सच्चाई तो यह है कि शीतयुद्ध की समाप्ति की घोषणा अब से 19 साल पहले हो गई थी, लेकिन अमरीका और रूसी खेमें में प्रतिद्वंद्विता अभी तक समाप्त नहीं हुई थी। बुश प्रशासन ने प्रक्षेप्रास्त्र प्रतिरक्षा (मिसाइल डिफेंस) का सिद्धांत प्रतिपादित करके एक तरह से रूस को धमकी दे दी थी कि वह नाटो-राष्ट्रों पर एक प्रक्षेप्रास्त्र कवच तान देगा, ताकि उन पर रूस किसी तरह की दादागिरी न कर सके। ये प्रतिरक्षात्मक प्रक्षेप्रास्त्र सबसे पहले पोलैंड और चेक गणराज्य में तैनात किए जाने थे, जो कि कभी सोवियत संघ के गठबंधन-वारसा पैक्ट-के सदस्य थे। अमरीका ने सोवियत खेमे के देशों को भी नाटो में प्रवेश देना शुरू कर दिया था, जो कि मिखाइल गोर्बाच्योफ को दिए गए वचन को भी भंग करना था। इसी प्रकार इन पूर्व सोवियत राष्ट्रों में नाटो सेनाएं तैनात करके अमरीका ने अपने उस वादे को भी तोड़ा था, जो उसने बोरिस येलेत्सिन से किया था। अमरीका ने उक्रेन में ‘श्वेत क्रांति’ को प्रोत्साहित किया और पुराने सोवियत गणराज्य जार्जिया के विरुद्ध जब रूस ने सैनिक कार्रवाई की तो अमरीका और नाटो ने जबरदस्त विरोध किया। पिछले दो दशक से चले आ रहे इस महाशक्ति तनाव को घटाने से लिस्बन सम्मेलन का वशेष योगदान होगा। लिस्बन में यह तय हुआ है कि नाटो और रूस एक-दूसरे का विरोध करने के बजाय एक-दूसरे के साथ सहयोग करेंगे। यों बु्रसेल्स, मास्को और रोम में पहले भी नाटो और रूस के बीच सद्भाव पैदा करने के लिए कुछ घोषणाएं हुई थीं और एक नाटो-रशिया काउंसिल का निर्माण भी हुआ था, लेकिन उस प्रक्रिया का ठोस समाहार अब हुआ है, जबकि दोनों पक्षों ने यह समझौता किया है कि दोनों मिलकर संपूर्ण यूरोप की प्रक्षेप्रास्त्र-सुरक्षा का जिम्मा लेते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि पश्चिम एशियाई तथा कुछ अन्य एशियाई देश अगर यूरोप पर कोई हमला अपने प्रक्षेप्रास्त्रों से करेंगे, तो नाटो और रूस मिलकर उसका मुकाबला करेंगे। दोनों पक्षों की भूमिकाएं क्या होंगी और वे अपनी भूमिका को अंजाम कैसे देंगे, इन मुद्दों पर फैसले बाद में होंगे। यह ध्यातव्य यह है कि कल तक जो राष्ट्र एक-दूसरे के प्रति अति सशंकित थे और अपनी प्रतिद्वंद्विता से ओत-प्रोत थे, वे अब परस्पर सहयोग के नए दौर में पहुंच गए हैं।
यूरोप के बारे में हुई सहमति का असर दुनिया के दूसरे क्षेत्रों में पड़ेगा। अफ्रीका, लातीनी, अमरीका और एशिया के कई देशों में इस समय उथल-पुथल मची हुई है। कुछ देशों मंे अमरीका की सीधी फंसावट है, जैसे अफगानिस्तान, इराक और ईरान में! कोरिया और किरगिजिस्तान में काफी तनाव फैला हुआ है। फिलिस्तीन का मामला सुलझते-सुलझते फिर उलझ गया है। ऐसे सभी मुद्दों पर अगर अमरीका और रूस के बीच ींचातानी नहीं हो, तो इनका समाधान खोजने में सुभीता हो सकता है। ओबामा ने इच्छा व्यक्त की है कि रूस अब नाटो का प्रतिस्पर्धा नहीं ‘भागीदार’ बने, लेकिन रूस ने भी भागीदार या सदस्य बनने पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की है। रूसी राष्ट्रपति दिमित्री मेदवेदेव ने यह आश्वासन जरूर दिया है कि रूस सामंजस्य बनाए रखने का पूरा प्रयत्न करेगा और वह बराबरी के स्तर पर होगा। अमरीका के मुकाबले आज का रूस हर तरह से कमजोर है, लेकिन इसके बावजूद वह अन्य नाटो देशों की तरह उनका अनुचर बनने को तैयार नहीं है। अब अमरीका को जॉर्जिया और उक्रेन जैसे पूर्व सोवियत राष्ट्रों में हस्तक्षेप करने की नीति को बदलना होगा। यह भी जरूरी है कि गत वर्ष प्राहा में संपन्न हुई सामरिक शस्त्रों की सीमा बांधने की संधि को अमरीका वैधता प्रदान करे यानी अपनी सीनेट से उसकी पुष्टि करे। यह आसान नहीं है, क्योंकि सीनेट में ओबामा के डेमोक्रेट सदस्यों का 2/3 बहुमत नहीं है।
रूस और अमरीका के बीच आखिर पारस्परिक सहयोग का यह भाव उदित कैसे हुआ? इसके मूल में अफगानिस्तान दिखाई पड़ता है। जहां तक रूस का सवाल है, उसे अफगानिस्तान ने इतना कड़ा सबक सिखाया है कि वह उसे सदियों तक नहीं भूल सकता। वह अफगानिस्तान को दूर से ही नमस्कार करता है, लेकिन इधर दो बातों ने उसे दोबारा परेशान कर दिया है। एक तो अफगान अफीम की तस्करी ने, जिसके कारण रूस के हजारों नौजवान नशेड़ी बनते जा रहे हैं और दूसरी जिहादी इस्लाम की लहरों ने, जो न केवल उसके पूर्व मध्य एशियाई मुस्लिम गणराज्यों में फैल रही है और जिसके कारण आतंकवाद मास्को के द्वारों पर भी दस्तक देता है। रूस के इन प्रमुख सिरदर्दों का निवारण वह स्वयं नहीं कर सकता, लेकिन यदि वह अमरीका के साथ हाथ मिला ले, तो न सिर्फ उसका कष्ट निवारण हो सकता है, बल्कि अमरीका को भी अफगान संकट का सामना करने में प्रचुर सहायता मिल सकती है। लिस्बन समझौते ने मादक-द्रव्य विरोधी अभियान को भी औपचारिक रूप दे दिया है। अभी कुछ दिन पहले इसाफ सेनाओं ने रूसी विशेषज्ञों की मदद से कंधार के पास मेरिजुआना की कुछ फैक्टरियों पर छापा मार दिया था। अब रूस इस काम में अफगान सैनिकों को भी प्रशिक्षित करेगा। अफीम के पैसे की बड़ी भूमिका है। तालिबान, आतंकवादी और तस्कर इसी पर निर्भर हैं। यदि इस पर काबू पा लिया गया तो अफगानिस्तान में अमरीकियों को सफल होने में काफी मदद मिलेगी। नाटो-रूस परिषद ने एक हेलिकाप्टर रखरखाव ट्रस्ट की भी स्थापना की है। इसके तहत अफगान सैनिकों को रूसी हेलिकाप्टर दिए जाएंगे और उनको चलाने का प्रशिक्षण भी! रूस का यह सैन्य सहयोग आज के अफगानिस्तान के लिए अजूबा है। जिस अफगानिस्तान में रूस और अमरीका पिछले तीन दशकों से एक-दूसरे के खिलाफ भिड़े हुए थे, वे आज कंधे से कंधा मिलाकर काम करेंगे। नाटो के लिस्बन-वक्तव्य का मूल-पाठ देखने से यह मालूम पड़ता है कि वह अफगान सेना को 2014 तक आत्मनिर्भर बनाना चाहता है, ताकि उसकी फौजें वापस आ सकें। ओबामा तो अपनी फौजें जुलाई, 2010 से ही वापस बुलाना चाहते हैं। इस मामले में अभी ओबामा और नाटो की दृष्टि स्पष्ट नहीं है। वे चाहें तो भुक्तभोगी रूस से इस मामले में भी सही सलाह ले सकते हैं।