सू की की रिहाई के फलितार्थ
– डा. वेद प्रताप वैदिक, लेखक, विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं
म्यांमार की निंदा चारों तरफ से हो रही है। इस मुद्दे पर चीन के अलावा कोई भी राष्ट्र उसका समर्थन नहीं कर रहा है। प्रतिबंधों का सीधा असर फौज पर तो कुछ नहीं है, लेकिन म्यांमार की जनता दिनोंदिन निर्धन और असहाय होती जा रही है…
श्रीमती आंग सान सू की की रिहाई ने सारी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया है, क्योंकि सारी दुनिया उन्हें मानव स्वतंत्रता की मिसाल मानती है। सू की की रिहाई ने म्यांमार जैसे अलग-थलग पड़े राष्ट्र को दोबारा विश्व राजनीति के मानचित्र पर ला खड़ा किया है। सू की, की तुलना नेल्सन मंडेला और बेनजीर भुट्टो से भी की जाती है। कुछ हद तक यह ठीक है, लेकिन नेल्सन मंडेला की तरह सू की ने कोई भूमिगत हिंसक अभियान कभी नहीं चलाया और बेनजीर की तरह उन्होंने कभी सत्ता सुख नहीं भोगा। 1990 के चुनाव में उन्होंने 59 प्रतिशत वोट और 80 प्रतिशत संसदीय सीटें जरूर जीती थीं, लेकिन म्यांमारी फौज ने उन्हें सत्ता देने की बजाय जेल में डाल दिया। यदि 1990 में लोकतंत्र का गला नहीं घोंटा जाता, तो आज म्यांमार की शक्ल ही कुछ और होती। लगभग 15 साल तक नजरबंद रहने वाली सू की को जब रिहा किया गया, तो उनका स्वागत करने के लिए हजारों लोग सड़कों पर दौड़ पड़े। आज सू की की हैसियत एक जिंदा शहीद की सी है। सू की की रिहाई से दुनिया का हर लोकतंत्र प्रेमी गदगद हो गया है, लेकिन यहां मुख्य प्रश्न यह है कि म्यांमार के फौजी शासन ने अब ताजा चुनाव के एक हफ्ते बाद सू की को रिहा क्यों किया? पहले क्यों नहीं किया? जाहिर है कि उन्हें चुनाव के पहले रिहा कर दिया जाता, तो चुनाव की सारी चौपड़ ही उलट जाती। उनकी नजरबंदी का समय तो पूरा हो चुका था, लेकिन एक झूठे बहाने की ओट में उनकी नजरबंदी बढ़ा दी गई। एक अमरीकी कूटनीतिज्ञ उनके घर के पास की एक नहर में से कूदकर उनके घर में क्यों चला गया? सू की और उसके बीच कोई साजिश चल रही थी क्या? इधर उनकी नजरबंदी बढ़ाई और उधर नया चुनाव कानून बनाया गया, जिसमें लिख दिया गया कि कोई भी अपराधी व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता और यह नियम उस पर भी लागू होगा, जिसका पति या जिसकी पत्नी विदेशी हो। सू की के पति ब्रिटिश थे और एक विदेशी के साथ साजिश का अपराध उन पर थोप ही दिया गया था। सू की ने तय किया कि उनकी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी नामक पार्टी चुनाव का बहिष्कार करेगी। 20 साल बाद होने वाले इस चुनाव में अब जो दो प्रमुख पार्टियां रह गईं, वे फौजियों की पार्टियां ही हैं। सू की की पार्टी में फूट पड़ गई और फौजी सरकार ने उनकी पार्टी की मान्यता ही खत्म कर दी। रिहाई के तुरंत बाद सू की ने पहला काम यह किया कि यांगोन के उच्च न्यायालय में पार्टी को दोबारा मान्यता दिलाने की याचिका लगाई। म्यांमार मामलों के कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि यदि सू की खुद चुनाव से बाहर हो जातीं और अपनी पार्टी को चुनाव लड़ने देतीं, तो शायद उसे 1990 से भी ज्यादा वोट मिलते, लेकिन सात नवंबर को हुए चुनावों के परिणाम क्या होंगे, इसके संकेत तो आते जा रहे हैं। फौजी पार्टी यूनियन सालिडेरिटी एंड डिवेलपमेंट पार्टी की विजय में जरा भी संदेह नहीं है। उसके मुकाबले पुराने शासक जनरल ने विन की नेशनल यूनिटी पार्टी भी कुछ सीटें जरूर जीतेगी। शेष छोटी-मोटी 37 पार्टियों के हाथ कुछ लगेगा या नहीं, कुछ पता नहीं। सू की, की रिहाई इस चुनाव के बाद इसलिए की गई है कि उनके मैदान में आ जाने के बावजूद सत्ता-समीकरणों पर कोई खास असर पड़ने वाला नहीं है।
फौजी शासन चाहता तो अब भी वह सू की को नजरबंद किए रख सकता था। उसका कोई क्या बिगाड़ लेता? संयुक्त राष्ट्र संघ के अनेक प्रतिबंधों के बावजूद फौज ने अपना निर्मम शिकंजा ढीला नहीं होने दिया। फौजी शासक इतने दुस्साहसी हैं कि उन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून को सू की से नहीं मिलने दिया, तो फिर उन्होंने अभी सू की को रिहा किया ही क्यों? इसका एक प्रमुख कारण तो यह है कि म्यांमार की निंदा चारों तरफ से हो रही है। इस मुद्दे पर चीन के अलावा कोई भी राष्ट्र उसका समर्थन नहीं कर रहा है। प्रतिबंधों का सीधा असर फौज पर तो कुछ नहीं है, लेकिन म्यांमार की जनता दिनोंदिन निर्धन और असहाय होती जा रही है। तीन साल पहले बौद्ध भिक्षुओं के अपूर्व विद्रोह ने फौज का दम फुला दिया था। अब फौज को यह समझ में आ रहा है कि उसे कोई बीच का रास्ता निकालना होगा। सू की की रिहाई अचानक नहीं हुई है। अभी सारे तथ्य सामने नहीं आए हैं, लेकिन मेरा अनुमान है कि सू की और सेनापति थानश्वे के बीच लंबे संवाद के बाद ही यह रिहाई संभव हुई है।
यदि उन दोनों के बीच कोई आपसी समझ नहीं होती, तो रिहाई के बाद सू की का रवैया काफी उखाड़-पछाड़ का हो सकता था, लेकिन हम जरा तीन मुद्दों पर गौर करें। एक तो सू की ने अपने संघर्ष को अहिंसक बनाए रखने पर जोर दिया है, दूसरा उन्होंने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अपील की है कि वह म्यांमार पर से सभी प्रतिबंध उठा ले, ताकि जन साधारण की दुर्दशा समाप्त हो। यही बाद फौज भी कह रही है। तीसरी बात सू की ने यह कही है कि वह राष्ट्रीय मेल-मिलाप चाहती हैं, यानी वह नागरिक स्वतंत्रताओं और मानव अधिकारों के लिए तो जरूर लड़ेंगी, लेकिन फौजी शासन के साथ बातचीत करने में भी उन्हें कोई एतराज नहीं है। उन्होंने एक पत्रकार परिषद में यह भी कहा है कि नए चुनावों से उपजी संसद को भी वह मान्य करेंगी, हालांकि चुनावी धांधलियों को उजागर करने में वह पीछे नहीं हटेंगी। इसका अर्थ क्या यह नहीं हुआ कि वह बेनजीर के पद चिन्हों पर चलने की कोशिश कर रही हैं। फौज के साथ सीमित समझौता करके औपचारिक लोकतंत्र की बहाली की यह कोशिश कहां तक सफल होगी, कुछ नहीं कहा जा सकता। यह असंभव नहीं कि सू की का भी वही हश्र हो, जो बेनजीर का हुआ है। यह भी संभव है कि उन्हें दोबारा नजरबंद कर दिया जाए या उन्हें देश निकाला दे दिया जाए। देश निकाले की आशंका के कारण ही वह अपने पति की अंत्येष्टि में शामिल होने लंदन नहीं गई थीं। फौज और सू की के बीच भावी रिश्ता कैसा रहेगा, म्यांमार की जनता ही तय करेगी। यदि पांच करोड़ के इस देश में लाखों लोग सड़कों पर उतर आए, तो म्यांमार की फौज को जनरल मुशर्रफ, नेपाल नरेश और शहंशाहे-ईरान की तरह गद्दी छोड़नी ही पड़ेगी। यदि सू की, की रिहाई म्यांमारी जनता को उत्तेजित नहीं कर पाई, तो फौज और सू की के बीच लंबी लड़ाई या प्रतिस्पर्धा तो चलती ही रह सकती है। जाहिर है कि दुनिया के ज्यादातर छोटे-बड़े देश सू की के प्रति सहानुभूतिपूर्ण होंगे, लेकिन इस द्वंद्व में भारत की भूमिका क्या होगी? भारत ने सू की, की रिहाई का स्वागत किया है।
सू की आजाद रहें और राजनीति करती रहें, यह देखना भारत का ही नहीं, सभी लोकतांत्रिक राष्ट्रों का कर्त्तव्य है। संयुक्त राष्ट्र संघ को सू की, की रिहाई का विशेष स्वागत करना चाहिए और अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों को हटाकर उसका श्रेय सू की को देना चाहिए। सू की से अपेक्षा है कि रिहाई की मुहिम भी छेड़ें। यह तभी हो सकता है, जबकि उनका हृदय प्रतिशोध मुक्त हो और म्यांमार की फौज अपने बैरकों में ससम्मान लौटने को तैयार हो।