किसकी गर्दन पकड़ रहे हैं मुशर्रफ
( कुलदीप नैयर लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं )
सीमा रेखा का अतिक्रमण कर पाकिस्तान ने वार्ता की भावना की हत्या कर दी थी। फिर भी मुशर्रफ अब कह रहे हैं कि पाकिस्तान ने भारत की गर्दन पकड़ ली थी। वह दावा करते हैं कि उस समय संघर्ष के लिए दूसरी पंक्ति भी तैयार थी। यह दावा पहली बार किया गया है। इसमें आतंकवादी और गैर-राज्य कारक शामिल थे। दिल्ली अभी तक यही आरोप लगाती रही है और इस्लामाबाद इसी बात से इनकार करता रहा है। मुशर्रफ इस बयान के जरिए अपनी पीठ थपथपाना चाहते हैं और देश में अपनी स्वीकार्यता को बढ़ाना चाहते हैं…
मुझे यह बात समझ में नहीं आ रही है कि घर में नजरबंदी का सामना कर रहे परवेज मुशर्रफ सार्वजनिक रूप से कारगिल युद्ध के बारे में टिप्पणी कैसे कर सकते हैं? ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री नवाज शरीफ पर इस बात के लिए सेना का दबाव है कि वह मुशर्रफ को ऐसे दुष्प्रचार के लिए छूट दें, जो तथ्यात्मक रूप से गलत है। निश्चित रूप से नवाज शरीफ को यह बात याद होगी कि किस तरह परवेज मुशर्रफ ने उनका तख्तापलट किया था। नवाज शरीफ उस समय अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की शरण चाहते थे ताकि कारगिल समस्या का कोई समाधान निकल सके लेकिन क्लिंटन को भी पाकिस्तानी सेना के विरोध का सामना करना पड़ा था। बाद में क्लिंटन ने भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी को पाक सैनिकों की वापसी संबंधी निवेदन किया। क्लिंटन ने अपनी पुस्तक ‘माई लाइफ’ में इस बात का जिक्र किया है। उन्होंने लिखा है कि पाकिस्तान प्रधानमंत्री को 4 जुलाई को वाशिंगटन में आमंत्रित किया गया ताकि जनरल परवेज मुशर्रफ के नेतृत्व में पाक सेना द्वारा कुछ सप्ताह पहले की गई भारत में घुसपैठ से पैदा हुई कठिन परिस्थितियों पर चर्चा की जा सके। शरीफ की चिंता थी कि पाकिस्तान द्वारा पैदा की गई स्थिति नियंत्रण से बाहर हो चुकी है। वह चाहते थे कि मेरा कार्यालय इसमें हस्तक्षेप करे। राष्ट्रपति ने अपनी पुस्तक में जिक्र किया है कि शरीफ का कदम काफी जटिल बन चुका था, क्योंकि फरवरी के महीने में भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने द्विपक्षीय संबंधों और कश्मीर समस्या के समाधान के लिए पाकिस्तान की यात्रा की थी। सीमा रेखा का अतिक्रमण कर पाकिस्तान ने वार्ता की भावना की हत्या कर दी थी। फिर भी मुशर्रफ अब कह रहे हैं कि पाकिस्तान ने भारत की गर्दन पकड़ ली थी। वह दावा करते हैं कि उस समय संघर्ष के लिए दूसरी पंक्ति भी तैयार थी। यह दावा पहली बार किया गया है। इसमें आतंकवादी और गैर-राज्य कारक शामिल थे। दिल्ली अभी तक यही आरोप लगाती रही है और इस्लामाबाद इसी बात से इनकार करता रहा है। मुशर्रफ इस बयान के जरिए अपनी पीठ थपथपाना चाहते हैं और देश में अपनी स्वीकार्यता को बढ़ाना चाहते हैं क्योंकि उन्हें 1999 की पराजय के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है। उनका गला पकड़ने सबंधी बयान के कोई सिर-पैर नहीं है और ऐसा लगता है कि इसके जरिए वह अपने देशवासियों को उत्तेजित करना चाहते हैं। उस समय के भारतीय कमांडरों ने इसे हास्यास्पद बताया है। ऐसा लगता है कि मुशर्रफ यह साबित करना चाहते हैं कि उस समय राजनीतिज्ञों के अज्ञान के कारण एक सैनिक विजय, राजनीतिक पराजय में तबदील हो गई। सच्चाई यह है कि मुशर्रफ की सेना को एक अपमानजनक पराजय का सामना करना पड़ा था। यह सही है कि पाकिस्तानी सैनिक ऊंचाई पर बैठे हुए थे और इसके कारण भारतीय सेना को काफी नुकसान उठाना पड़ा था, लेकिन बाद में भारतीय सेना ने भीषण प्रत्याक्रमण कर हजारों पाक सैनिकों को मार गिराया। भारतीय सेना को प्रारंभिक दौर में कुछ नुकसान उठाना पड़ा, लेकिन उन्होंने गजब की बहादुरी का प्रदर्शन किया। वायसेना से तालमेल बेहतर था। भारत दो तिहाई से अधिक क्षेत्र को मुक्त करा चुका था, जब पाक ने घुसपैठियों को वापस बुलाने के लिए आदेश दिए। पाक का शीर्ष प्रतिष्ठान इस ख्याल का शिकार था कि वह नियंत्रण रेखा को बदल कर लाभ अर्जित कर सकता है। जब भारतीय सेना ने टाइगर हिल पर कब्जा कर लिया तो पाक में मीडिया को यह बताया गया कि मुजाहिदीन का इस चोटी पर कब्जा बना हुआ है। क्या पाकिस्तानियों को गलत सूचनाएं दी गई थीं। संभवतः इसी कारण आज सच्चाई सामने आने के बाद पाकिस्तानी खुद को अधिक अपमानित महसूस कर रहे हैं। आज मुशर्रफ के समक्ष सबसे बड़ी समस्या यही है कि वह पाकिस्तानी आवाम की नजरों में खुद को एक बार फिर से कैसे स्थापित कर पाते हैं। वह इस बात से भलीभांति परिचित हैं कि कारगिल के युद्ध में उन्होंने किस तरह से भारत से मिली शर्मनाक हार के जरिए पाकिस्तानी सेना को लज्जित किया था। अभी तक इसके लिए उसे माफ नहीं किया गया है। खुदा का शुक्र है कि पाकिस्तानी मीडिया ने उनके बयान पर गौर नहीं फरमाया। वह लगातार अपनी बात उठाए जा रहे हैं, लेकिन उनके समर्थन में कहीं से कोई आवाज उठती नजर नहीं आ रही है। आज यह पाकिस्तान में चर्चा का कोई बड़ा विषय नहीं रह गया है। अलगाववादी नेता सैयद शाह गिलानी को पासपोर्ट दिए जाने से मनाही का मसला सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। अब तर्क पेश किए जा रहे हैं कि उन्हें उनकी राष्ट्रीयता की घोषणा के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए था, क्योंकि यह विवादित क्षेत्र जम्मू-कश्मीर से जुड़ा हुआ विषय है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान गिलानी बदल गए हैं। इससे पहले वह खुद को भारतीय नागरिक बताने में कुछ झिझक महसूस करते रहे हैं। अब से कुछ वर्ष पूर्व जब हम नियमित रूप से आपस में मिला करते थे, तो उस दौरान वह इस विषय पर ज्यादा चर्चा नहीं करते थे। बेशक वह हुर्रियत कान्फ्रेंस से ताल्लुक रखते हैं, फिर भी वह उनकी राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रकट करते रहे हैं। यह एक गहन अध्ययन का विषय है कि पाकिस्तान की तरफ उनका झुकाव ज्यादा क्यों हुआ। आम तौर पर वह एक ऐसे इनसान नहीं हैं, जो किसी तरह की भावनाओं के अधीन होकर किसी ओर झुकते हों। आज भारत को यह जानने की जरूरत है कि आखिर क्यों गिलानी का झुकाव पाकिस्तान की ओर बढ़ा है। संभावना है कि जम्मू-कश्मीर में कई और भी गिलानी मौजूद हों। आखिर उन 70 वर्षों के दौरान ये लोग अपनी मानसिकता को क्यों नहीं बदल पाए हैं, जबकि कश्मीर पूरी तरह से भारत को स्वीकार कर चुका है। क्या इसकी वजह धर्म है? अगर यह इसी कारण से है तो कश्मीरी मुस्लिमों को इस बात को लेकर ज्यादा परेशान होने की चिंता नहीं है कि सरकार कश्मीरी पंडितों को बसाने के लिए अलग कालोनियों के निर्माण की बात कर रही है। कश्मीरी मुस्लिमों को कहना चाहिए कि वे ‘सब हमारा ही हिस्सा हैं’ और ‘उन्हें हमारे बीच ही रहना चाहिए ’ जैसा कि वे अब तक करते भी आए हैं। कश्मीरियत सूफियाना की ही उपज है, जो कि हिंदुत्व और मुस्लिम समाज के धार्मिक मूल्यों का मिश्रण रहा है। हो सकता है कि विलय के बाद भारत ने उन तमाम मूल्यों को भुला दिया हो। संकीर्ण विचारधाराओं में उन्हें दफन कर देने के बजाय उनमें नव जीवन का संचार करना होगा।
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