अगली सरकार तक छलांग कैसे
दोबारा सत्ता में आने का हुंकारा भर कर कांग्रेस ने खुद को भाजपा के मुकाबले में देखा है और एक तरह से यह हिमाचली सत्ता का खुद से संबोधन है। शिमला में कांग्रेस रैली का उत्साह, वर्तमान सरकार को अगली सरकार तक छलांग लगाने का मंच तो अवश्य दे सकता है, लेकिन मिशन रिपीट के सबक चुनाव की दीवारों पर यथावत टंगे हैं। यह सपना पूर्ववर्ती धूमल सरकार ने देखा था और बाकायदा इसका सियासी नक्शा भी तैयार था, लेकिन कहीं सिंहासन खिसका तो बहुत कुछ चकनाचूर हो गया। सत्ता की अमूमन एक जैसी गलतियां हिमाचल में होती रही हैं या भौगोलिक असंतुलन की वजह से मिशन रिपीट को धक्का लगता रहा है। धूमल सरकार जिस सरलता से सत्ता का मिलन भविष्य से कर रही थी, वहां कांगड़ा की दीवार को लांघने में कुछ चूक अवश्य ही हुई। सत्ता का अति धु्रवीकरण या केंद्रीकरण हिमाचल जैसे राज्य के स्वभाव से मेल नहीं खाता और न ही अब क्षेत्रवाद के नारे सफल होंगे। बेशक पिछले दौर की राजनीति ने हिमाचल को वीरभद्र सिंह या प्रेम कुमार धूमल के क्षितिज पर उगते हुए देखा, लेकिन प्रदेश की युवा पीढ़ी नई ऊर्जा का इंतजार कर रही है। सीबीआई बनाम विजिलेंस जांच के दायरों में यह समझना आसान नहीं कि सत्ता का कौन सा पक्ष ज्यादा बदनाम रहा या मात्र दो घरानों के युद्ध में विभाजित प्रदेश सदा अपनी सरकार चुनता रहेगा। यह दीगर है कि बिहार चुनाव में थमे भाजपा के अश्वमेध यज्ञ के घोड़ों के कारण कांग्रेस की राष्ट्रीय हिम्मत लौट आई है और इसी के बल पर आगामी चुनावों की पृष्ठभूमि तैयार होने लगी है। यहां हिमाचल और बिहार के अंतर मुखातिब होंगे, इसलिए देश की राजनीति से कहीं अलग हिमाचल में अलख जगाए जाते हैं। मिशन रिपीट का मोह पालना किसी भी सरकार की कार्यकुशलता को धारदार बनाने जैसा है और यह केवल मुख्यमंत्री के हिस्से का वृत्तांत नहीं, बल्कि हर मंत्री व विधायक के अपनी औसत से ऊपर प्रदर्शन का लेखा-जोखा होगा। जब वीरभद्र सिंह सरकार हिमाचल में अवतरित हुई, तो बहुत सारा गुस्सा पूर्व सरकार के प्रति प्रदर्शित हुआ या परिस्थितियां इस लायक नहीं रहीं कि कमल खिला रहे। यह दीगर है कि अंतिम दौर में धूमल सरकार ने कर्मचारी आंकड़ों की दुरुस्ती में खूब सारी मेहनत की और एक जादुई आंकड़े का गणित भी किया, लेकिन यह वर्ग भी तन्हा कर गया। अगर शिमला रैली के उद्घोष में मिशन रिपीट देखें तो मुख्यमंत्री अगले दो सालों में नौकरियों के बागीचे में टहल रहे हैं। कांग्रेस सरकार कुछ नौकरियां अवश्य तैयार करेगी, लेकिन युवा कदमों की थकान को समझना इतना भी आसान नहीं। यहां इन्वेस्टर मीट के नतीजे परखे जाएंगे और बीबीएन से लौटे अनेक पढ़े-लिखे, प्रशिक्षित, इंजीनियर व एमबीए सरीखी उपाधियों से सुसज्जित हिमाचली युवाओं की आशाओं का अंधेरा और भविष्य का सन्नाटा कैसे टूटेगा। बेशक केंद्र सरकार के रवैये पर हिमाचली युवा पूरी तरह फिदा नहीं हैं, लेकिन हिमाचल का भ्रम भी तो तेजी से टूट रहा है। ऐसे अनेक फैसले होंगे, जिनसे कुछ कर्मचारी वर्ग संतुष्ट हुआ होगा या स्थानांतरण की कैद से स्वतंत्र रहे चंद कर्मचारी प्रसन्न होंगे, लेकिन इस वर्ग की फौजें हमेशा मौकापरस्त रहीं। वीरभद्र सरकार ने सरकारी कालेजों से ग्रामीण इलाकों पर दिल लुटा दिया, लेकिन ऐसी पेशकश को क्या जनता मेहरबानी मान लेगी। विडंबना यह है कि धूमल सरकार ने शिक्षा के प्रसार को अपनी महत्त्वाकांक्षा से जाहिर किया, लेकिन नीतियों के अभाव से सारी मेहनत खराब हुई। अब बिहार से कहीं ज्यादा निजी विश्वविद्यालय हिमाचल में हैं, फिर भी युवाओं को अपना क्षितिज नहीं मिला। बहरहाल बाकी बचे दो साल के हजारों पैगाम कांग्रेस दे सकती है। हो सकता है ऊर्जा मंत्री की बदौलत लंबित विद्युत परियोजनाएं शुरू हो जाएं या जलापूर्ति के मामले में मैडम स्टोक्स का स्ट्रोक जनता को प्रभावित कर दे। इस दौरान परिवहन मंत्री जीएस बाली, उद्योग मंत्री मुकेश अग्निहोत्री, शहरी विकास मंत्री सुधीर शर्मा या स्वास्थ्य मंत्री कौल सिंह के विशेष प्रयासों की शिनाख्त हुई है, लेकिन सरकार के हर विभाग को कसरत करनी है। ठीक चुनाव से पूर्व स्थानीय निकायों के चुनाव एक सूचक के रूप में कांग्रेस सरकार का परीक्षण करेंगे। पंचायत चुनावों के गठबंधन से ही निकलेगा आगे का रास्ता। मिशन रिपीट की चरागाह पर दूर तक दूब देखी जा सकती है, लेकिन इस डगर पर चलकर ही जाना पड़ेगा पूरे कुनबे के साथ। अब ‘ए’ से ‘जैड’ तक की परीक्षा में अव्वल रहने की सारी चुनौती कांग्रेस सरकार की है, जनता तो केवल मूल्यांकन करेगी।