भारतीय नौकरशाही योग्यता-आधारित नहीं हो सकती
भानु धमीजा
सीएमडी, ‘दिव्य हिमाचल’ लेखक, चर्चित किताब ‘व्हाई इंडिया नीड्ज दि प्रेजिडेंशियल सिस्टम’ के रचनाकार हैं
सच्चाई यह है कि भारत की नौकरशाही, हर अन्य चीज की तरह, भारत की कमजोर राजनीतिक व्यवस्था से त्रस्त है। इस व्यवस्था में मूलभूत कमजोरियां – शक्तियों का सम्मिश्रण, एकल नियुक्ति प्राधिकारी, राजनेताओं से मंत्री बनाना, विधायी दूरदृष्टि न होना, वोट बैंक की राजनीति, आरक्षण – हैं जो हमारे अधिकारियों के प्रदर्शन को प्रभावित करती हैं। ऐसे ढांचागत दोष छुटपुट सुधारों से, या हमारे नौकरशाहों को फटकारने से, दूर नहीं किए जा सकते। राजन साफतौर पर एक टूटी हुई व्यवस्था के शिकार हुए हैं…
रघुराम राजन का आरबीआई से जाना भारतीय नौकरशाही के अत्यंत बुरे हालात को दर्शाता है। योग्यता पर आधारित होने से कहीं दूर, यह गंभीर रूप से राजनीति आधारित है। स्वाभिमानी स्वतंत्र विचारकों के लिए भारतीय व्यवस्था में कोई स्थान नहीं है। यहां तक कि सर्वाधिक सक्षम भी केवल राजनीतिक आकाओं को साधकर ही पद पर बने रहते हैं अथवा फूलते-फूलते हैं। उनके कार्य की गुणवत्ता बहुत कम मायने रखती है।
यह नौकरशाहों का दोष नहीं है। यह समस्या व्यवस्थागत है। यह ऊपर से आरंभ होती है। जब मंत्री, जो राजनेता हैं, प्रशासक और विशेषज्ञ होने का ढोंग करते हैं, उनका स्टाफ कैसे भिन्न हो सकता है?
भारतीय संसदीय प्रणाली का शायद सबसे अव्यावहारिक पक्ष विधायकों व सांसदों को मंत्री बनाना है। यह लोग जनता द्वारा उनकी सामाजिक समस्याओं का हल तलाशने के लिए चुने जाते हैं, स्वयं प्रशासक बन जाने के लिए नहीं। लगभग सदैव उन्हें अपने मंत्रालय के कार्यक्षेत्र का कोई अनुभव अथवा कौशल नहीं होता। विशेषज्ञता के इस युग में उनसे गुणवत्ता की उम्मीद करना मूर्खतापूर्ण है।
जब पेशेवर राजनेताओं को पेशेवर प्रशासकों का इंचार्ज बनाया जाता है, यह दोनों के उद्देश्यों को निष्फल कर देता है। यह राजनेताओं के फोकस और समय को उनके प्राथमिक कार्य, कानून निर्माण एवं निरीक्षण, से दूर ले जाता है। यह उन्हें खुद ही का निरीक्षण करने की असंभव अवस्था में डाल देता है। क्रियान्वयन को क्षति पहुंचाता है क्योंकि ये नेता अनुभवी मैनेजर नहीं हैं। परंतु सबसे बुरी बात यह है कि यह समूचे प्रशासन को ही पार्टीबाज बना देता है।
दूसरी ओर यह नौकरशाहों के गैर-दलगत और दक्ष प्रशासन उपलब्ध करवाने के प्राथमिक उद्देश्य को हानि पहुंचाता है। उनका सारा समय नेताओं के जाने और आगमन को संभालने में ही बीत जाता है। उन्हें अपने बॉस को प्रशिक्षित करने, और उनकी राजनीति के अनुसार चलने का बेतुका काम करना पड़ता है। उनकी उन्नति का सबसे तेज रास्ता कार्यकौशल नहीं अपितु नेताओं का प्रतिपालन बन जाता है। सरकार की किसी अन्य शाखा द्वारा समीक्षा के अभाव में, दोनों भ्रष्टाचार में साथी बन जाते हैं। और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के विख्यात शब्दों में, ‘‘बाड़ फसल को खाना आरंभ कर देती है।’’
अगर राजन को इसलिए जाने दिया गया कि वह सरकार के राजनीतिक साथियों द्वारा सार्वजनिक-क्षेत्र के बैंक कर्जों के भुगतान से इनकार पर पीछा नहीं छोड़ रहे थे, तो भगवान ही हमारे देश को बचाए। अधिक संभावना है कि उन्होंने सरकार की तरफदारी से इनकार कर दिया। उनके अपने मंत्री से कई मसलों पर सार्वजनिक मतभेद थे। मोदी सरकार की इच्छा अनुसार उन्होंने ब्याज दर कम करने से इनकार किया और उन्होंने सरकार को राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के प्रति अत्यधिक उत्साह को लेकर टिप्पणी की। निश्चित तौर पर पूर्व सरकार द्वारा नियुक्त आरबीआई गवर्नर का कार्यकाल न बढ़ाना मोदी का अधिकार है। ऐसी मिसालें पूर्व में भी रही हैं। अतः, जैसा संजय बारू, एक प्रमुख राजनीतिक समीक्षक, ने कहा है, ‘‘साम्राज्य ने पलटवार किया।’’
पर भारत की मौद्रिक नीति की स्वतंत्रता एक बहुत अहम मसला है। इसे राष्ट्रवादी भावना, कि राजन के बिना भी भारत बेहतर प्रदर्शन करेगा, के साथ किनारे नहीं किया जा सकता। स्वतंत्रता से अब तक रुपया 69 गुणा अवमूल्यित हो चुका है। जबसे मोदी सत्ता में आए हैं इसका मूल्य 14 प्रतिशत और गिरा है (59 रुपए से 67 रुपए प्रति डालर)। भारत की विकास दर में लाए गए सभी सुधारों को यह निष्फल कर देता है।
भारतीय मौद्रिक नीति तय करने वाले नौकरशाहों की स्वतंत्रता का अभाव शुरुआत से ही एक समस्या रहा है। नेहरू के समय से ही आरबीआई गवर्नरों को वही करना होता था जो सरकार चाहती थी। जब प्रथम गवर्नर बेनेगल रामा राऊ, वित्त मंत्री टीटी कृष्णमाचारी की इच्छा के विपरीत गए, नेहरू ने राऊ को डांटा। उन्हें ‘‘सरकार के अनुसार’’ चलने को कहा। राऊ ने तुरंत इस्तीफा दे दिया।
इसकी तुलना 1790 में अमरीकी मौद्रिक नीति के प्रथम प्रबंधक को दी गई स्वतंत्रता से कीजिए। देश के प्रथम वित्त मंत्री, कोषागार सचिव अलेग्जेंडर हैमिल्टन, ने देश की मौद्रिक नीति को एक निजी राष्ट्रीय बैंक स्थापित करने पर जोर दिया। उन्होंने कहा, ‘‘इस प्रकार के कार्य के लिए एक संस्था को पूरा विश्वास मिले, इसके लिए यह आवश्यक है… कि यह सरकारी नहीं बल्कि निजी हाथों में हो।’’ क्योंकि सरकारें ‘‘क्षणिक अनिवार्यताओं के प्रलोभन’’ में फंस जाती हैं। विशुद्ध निजी हितों से बचने के लिए किए गए कई संशोधनों के बाद, अमरीकी व्यवस्था वर्तमान फेडरल रिजर्व तक पहुंची। इसके प्रमुख को संपूर्ण स्वतंत्रता की गारंटी हासिल है।
यह सब भारतीय व्यवस्था की एक और मूलभूत समस्या की ओर इंगित करता है जो कार्यकारी पदाधिकारियों के राजनीतिकरण को बढ़ावा देती है। वह यह कि मुख्य कार्यकारी अधिकारी – प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री – एकमात्र नियुक्ति प्राधिकारी होता है। अगर पीएम या सीएम ऐसा चाहें तो छोटे मंत्री, कुलपति, बोर्ड अध्यक्ष, इत्यादि, एक चपरासी तक नियुक्त नहीं कर सकते। जब उच्च कार्यकारी पदाधिकारियों का केवल एक राजनीतिक आका हो, तो उन्हें दलगत भावनाओं में लिप्त होने से आखिर क्या रोक सकता है?
समस्या और भी गंभीर बन जाती है क्योंकि भारत में कार्यपालिका और विधायिका के बीच शक्तियों का बंटवारा ही नहीं है। सांसद और विधायक, कार्यकारी पदाधिकारियों का बचाव या समीक्षा नहीं कर सकते। भारतीय व्यवस्था ‘दक्षता’ के नाम पर विधायी और कार्यकारी शक्तियों को मिलाकर एक कर देती है। लेकिन यह केवल नौकरशाहों को चापलूसी और जीहजूरी में निपुण बनाता है ताकि समय-समय पर आए राजनीतिक आकाओं को साधा जा सके।
उस पर, भारत में आरक्षण का अभिशाप। आरक्षण स्वभाव से ही राजनीति से परिपूर्ण है। नौकरशाही सहित, हर चीज जिसे यह छूता है, उसे राजनीतिक बना देता है। यह वर्णन करते हुए कि कैसे अंग्रेजों ने उनकी नौकरशाही को राजनीतिकरण से बचाया, आइवर जेन्निंग्स, उनके एक विख्यात संवैधानिक विद्वान, ने कहा, ‘‘राजनीति का अतिक्रमण भ्रष्टाचार के अतिक्रमण की ओर पहला कदम है… जैसा कि हर विश्वविद्यालय प्रशासक… जो राजनीतिक नियंत्रण के तले दबा है बखूबी जानता है।’’ पर भारत में वोट-बैंक की राजनीति विद्यमान रहने वाली है। यह मूल मुद्दे से हटकर है कि आरक्षण न शासन की मदद करते हैं और न ही फायदा लेने वाले समुदाय का।
विडंबना यह है कि भारतीय राजनेता अकसर यह रोना रोते हैं कि असल में नौकरशाह सरकार चला रहे हैं। हर चुनाव के बाद अधिकारियों के थोक में होने वाले तबादलों का आकलन करें, तो यह पूरी तरह बकवास प्रतीत होता है। स्पष्टतया, रघुराम राजन के साथ यह मसला नहीं था। उन्हें वैसे अपना विभाग नहीं चलाने दिया गया, जैसे वह चाहते थे।
सच्चाई यह है कि भारत की नौकरशाही, हर अन्य चीज की तरह, भारत की कमजोर राजनीतिक व्यवस्था से त्रस्त है। इस व्यवस्था में मूलभूत कमजोरियां – शक्तियों का सम्मिश्रण, एकल नियुक्ति प्राधिकारी, राजनेताओं से मंत्री बनाना, विधायी दूरदृष्टि न होना, वोट बैंक की राजनीति, आरक्षण – हैं जो हमारे अधिकारियों के प्रदर्शन को प्रभावित करती हैं। ऐसे ढांचागत दोष छुटपुट सुधारों से, या हमारे नौकरशाहों को फटकारने से, दूर नहीं किए जा सकते। राजन साफतौर पर एक टूटी हुई व्यवस्था के शिकार हुए हैं।
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साभार : The Huffington Post