आत्मप्रेरणा की आवश्यकता
ऊंचा उठना मनुष्य का स्वाभाविक धर्म भी है, पर यदि किसी से यह पूछा जाए कि क्या उसने इस गंभीर प्रश्न पर गहराई से विचार किया है? क्या कभी उसने यह भी सोचा है कि आकांक्षा की पूर्ति के लिए उसने क्या योजना बनाई है? तो अधिकांश व्यक्ति इस गूढ़ प्रश्न की गहराई का भेदन न कर सकेंगे। बात सीधी सी है। महानता मनुष्य के अंदर छिपी हुई है और व्यक्त होने का रास्ता खोजती है, पर सांसारिक कामनाओं में ग्रस्त मनुष्य उस आत्म प्ररेणा को भुला देना चाहता है, ठुकराए रखना चाहता है। अपमानित आत्मा चुपचाप शरीर के भीतर सुस्त पड़ी रहती है और मनुष्य केवल विडंबनाओं के प्रपंच में ही पड़ा रह जाता है…
प्रातः सूर्य उदय होते ही जिंदगी का एक नया दिन शुरू होता है और सूर्यास्त होने तक एक दिन समाप्त हो जाता है। इस तरह रोज एक दिन उम्र से घट जाता है। जन्म लेने के बाद से ही आयु-क्षय का यह कार्यक्रम शुरू हो जाता है, परंतु अनेक प्रकार के कार्यभार से बढ़े हुए विभिन्न क्रिया व्यापारों में लगे रहने के कारण इस बीतते समय का पता नहीं चलता। ऐसे अवसर प्रायः प्रतिदिन आते हैं जब जीवों के जन्म, वृद्धावस्था, विपत्ति, रोग और मृत्यु के कारुणिक, विचारपरक दृश्य देखते हैं, किंतु कितना मदांध, कामनाग्रस्त और अविवेकी है इस धरती का मनुष्य कि वह सब कुछ देखते हुए भी आंखों से, विवेक और विचार की आंखों से अंधा ही बना हुआ है।
मोह और सांसारिक प्रमाद में लिप्त मनुष्य घड़ी भर एकांत में बैठकर इतना भी नहीं सोचता कि इस कौतूहलपूर्ण नर तन में जन्म लेने का उद्देश्य क्या है? हम कौन हैं, कहां से आए और कहां जा रहे हैं? प्रकृति प्रवाह की अबूझ परंपरा में प्रवाहित मनुष्य संसार के सुखों को इंद्रियों के भोगों को, पदार्थों के स्वामित्व को, धन, पुत्र तथा विविध कामनाओं को ही जीवन का लक्ष्य बनाकर एक बहुमूल्य अवसर को खो देता है। अंततः काल की घड़ी जब सामने आती है और विदा होते समय सिर पर पापों, दुष्कर्मों का भयंकर बोझ चढ़ा दिखाई देता है तो भारी पश्चाताप, घोर संताप और आंतरिक अशांति होती है। सौदा बिक गया फिर कीमत लगाते भी तो क्या?
विशाल वैभव अपार धन धान्य की राशि, पुत्र कलरात्रि कोई भी साथ नहीं देता। यह सारा संसार यहां की परिस्थितियां सब ज्यों की त्यों दिखाई देती हैं, किंतु यह सब उस समय उपयोग के बाहर होती हैं। अपना शरीर भी साथ नहीं देता। केवल अच्छे-बुरे संस्कारों का बोझ लादे हुए जीव परवश यहां से उठ जाता है। कितनी अस्थिरता होती होगी उस समय यह कोई भुक्तभोगी ही समझता होगा। मनुष्य के जीवन में यह जो विस्मृति है वह सब असत् के संग से है।
ज्ञान का आदर करने से हमारे भीतर प्रश्न उठेंगे। हमारा कौन? हम क्या हैं? हमें क्या नहीं करना चाहिए? इसका ज्ञान हमारे अंदर मौजूद है, पर अपने जीवन का कोई सही दृष्टिकोण न बना सकने के कारण वह सारी ज्ञान शक्ति विशृंखलित और बेकाम पड़ी हुई है। मनुष्य का पहला पुरुषार्थ है-जीवन लक्ष्य में प्रमाद न होने देना। यह तभी संभव है, जब कर्त्तव्यों का उचित और सम्यक ज्ञान हो। कर्त्तव्यों को विस्मृति मनुष्य ने अपने आप ही की है। जब वह कुछ करना चाहता है, तो उसे औरों की आवश्यकता का ध्यान नहीं होता वरन वह यह जानना चाहता है कि इसमें मेरा लाभ क्या है? अपने लाभ की अपेक्षा औरों के लाभ की बात सोचे तो कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य के ज्ञान पर ही मनुष्य का उत्थान और पतन अवलंबित है।
व्यावहारिक जीवन में कोई नीचे नहीं गिरना चाहता। सभी ऊंचे बहुत ऊंचे उठने की आकांक्षा लिए हैं। प्रत्येक मनुष्य अपने आपको ऊंचा सिद्ध करना चाहता है। इसके लिए अपनी-अपनी तरह के पुष्टि और प्रमाण भी एकत्रित करते हैं और समय पड़ने पर उन्हें व्यक्त भी करते हैं। ऊंचा उठना मनुष्य का स्वाभाविक धर्म भी है, पर यदि किसी से यह पूछा जाए कि क्या उसने इस गंभीर प्रश्न पर गहराई से विचार किया है? क्या कभी उसने यह भी सोचा है कि आकांक्षा की पूर्ति के लिए उसने क्या योजना बनाई है? तो अधिकांश व्यक्ति इस गूढ़ प्रश्न की गहराई का भेदन न कर सकेंगे। बात सीधी सी है। महानता मनुष्य के अंदर छिपी हुई है और व्यक्त होने का रास्ता खोजती है, पर सांसारिक कामनाओं में ग्रस्त मनुष्य उस आत्म प्ररेणा को भुला देना चाहता है, ठुकराए रखना चाहता है। अपमानित आत्मा चुपचाप शरीर के भीतर सुस्त पड़ी रहती है और मनुष्य केवल विडंबनाओं के प्रपंच में ही पड़ा रह जाता है।
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