किसान के पहाड़ जैसे श्रम का निरादर

By: Jan 30th, 2017 12:07 am

newsकर्म सिंह ठाकुर

लेखक, सुंदरनगर, मंडी से हैं

एक तरफ जहां किसान को कभी सही बीज न मिल पाता, वहीं मेहनत के दम पर किसान जो फसल तैयार करता है, बंदर उसे भी उजाड़ देते हैं। अंततः खामियाजा उस किसान को भुगतना पड़ता है, जो कि तीन-चार महीनों तक कड़कड़ाती ठंड में दिन-रात एक करके गेहूं का संरक्षण करेगा तथा अंत में पहाड़ खोदकर भी उसके हाथ चूहिया ही लगेगी…

प्रदेश की अर्थव्यवस्था काफी हद तक कृषि और बागबानी पर निर्भर है। इसके उत्पादन में उतार-चढ़ाव का प्रभाव अर्थव्यवस्था पर भी साफ तौर पर देखा जा सकता है। कृषि हिमाचल के किसानों का प्रमुख व्यवसाय है। हिमाचल में 89.96 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। इसलिए कृषि एवं बागबानी पर लोगों की निर्भरता अधिक है। इस व्यवसाय की अहमियत का अंदाजा हम इस तथ्य से भी लगा सकते हैं कि कृषि से ही राज्य की 62 प्रतिशत जनसंख्या को रोजगार मिलता है। हिमाचल प्रदेश के कुल सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 10.04 प्रतिशत कृषि तथा इससे संबंधित क्षेत्रों से प्राप्त होता है। कृषि क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि का मुख्य कारण यातायात एवं व्यापार क्षेत्र में हुए विकास को भी माना जा सकता है। कृषि क्षेत्र 10.04 प्रतिशत योगदान के साथ सकल घरेलू उत्पाद में चौथा स्थान रखता है।

प्रदेश के गांव-गांव में खेती व बागबानी पूरे परिवार के साथ की जाती है। प्रदेश को बागबानी के क्षेत्र में प्राकृतिक समृद्धता उपहार स्वरूप मिली है। सेब, आम, प्लम, अमरूद इत्यादि अनेक फलों की प्रचुरता से किसान अपना भरण-पोषण करता है। प्रदेश की कृषि प्रायः मौसम पर निर्भर रहती है। यदि मौसम अच्छा रहेगा, तो प्रदेश में फसल का उत्पादन भी काफी हद तक उम्मीद के अनुरूप ही रहती है। हालांकि आधुनिकता की अंधी दौड़ ने कृषि व्यवस्था को भी प्रभावित किया है। पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र के किसानों की बात करें, तो उनके खेतों में आधुनिक तकनीकों द्वारा कृषि की जा रही है, जबकि हिमाचल प्रदेश की स्थितियां इस तरह की हैं कि यहां आज भी प्राचीनतम शैली में ही कृषि संचालित होती है। यही कारण है कि प्रदेश का किसान पिछड़ता जा रहा है तथा कृषि पर निर्भरता बढ़ती जा रही है। इस वर्ष गेहूं की फसल पर मौसम की मार पड़ी है। लगभग एक महीने बाद बारिश हुई है, जिससे प्रदेश के 90 प्रतिशत पहाड़ी क्षेत्रों में गेहूं की बिजाई जनवरी माह में हुई। गेहूं, चावल प्रदेश के लोगों की मुख्य खाद्य फसलें हैं। प्रदेश को पूर्ण राजत्व प्राप्त किए हुए 46 वर्ष हो गए, लेकिन कृषि क्षेत्र में आज भी कई संदर्भों में पूर्णता नहीं आ सकी है।

खेत-खलिहान की सिंचाई की कोई पुख्ता व्यवस्था न होने की वजह से प्रदेश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ किसान की भूमि आज भी बारिश की मोहताज बनकर रह गई है। प्रदेश की 90 प्रतिशत खेती वर्षा पर निर्भर है और कहीं न कहीं प्रदेश के नीति निर्माता इसके लिए जिम्मेदार हैं। देश के अन्य राज्यों में कृषि व्यवसाय तीव्र गति से बढ़ा है। आधुनिक उपकरण, वैज्ञानिक तरीके से कृषि, उत्तम बीजों की उपलब्धता, समय पर खाद इत्यादि आवश्यक सामग्री की व्यवस्था करना सरकार का कार्य है। प्रदेश के कृषि कार्यालयों में नियमितता और अनुशासन दूर-दूर तक नहीं दिखता। मक्की के बीजों की खरीददारी के समय दुकानों पर लंबी-लंबी कतारें देखी गई थीं तथा बीज की गुणवत्ता ने बहुत निराश किया था। किसानों की पसंद का बीज उपलब्ध नहीं था। बीज की जो सप्लाई विभाग के पास आई, वही किसानों के हाथों में थमा दिया गया। प्रदेश के हजारों किसान इस अव्यवस्था के गवाह बने थे।

इस बार गेहूं के बीजों की खरीद के लिए लंबी कतारें तो नहीं दिखीं, पर किसानों को अपनी पसंद का बीज नहीं मिला। लंबे सूखे के कारण बीजों को कृषि कार्यालय से प्राप्त करने के लिए किसानों को पर्याप्त समय मिल गया था। आश्चर्य यह कि जो बीज किसानों को  दिया गया, उसकी बिजाई एक माह से भी ज्यादा लेट हुई है। इन हालात में क्या किसान भरपूर फसल की उम्मीद कर सकता है। किसी भी कृषि अधिकारी ने इस संदर्भ में किसानों को किसी भी तरह की कोई जानकारी मुहैया नहीं करवाई। एक तरफ जहां किसान को कभी सही बीज न मिल पाता, वहीं मेहनत के दम पर किसान जो फसल तैयार करता है, बंदर उसे भी उजाड़ देते हैं। अंततः खामियाजा मेहनतकश किसान को भुगतना पड़ता है, जो कि तीन-चार महीनों तक कड़कड़ाती ठंड में दिन-रात एक करके गेहूं का संरक्षण करेगा तथा अंत में पहाड़ खोदकर भी उसके हाथ चूहिया ही लगेगी। आखिर किसान के साथ इतना बड़ा अन्याय और मजाक क्यों? मक्की की फसल के दौरान भी मेरे गांव के किसानों के साथ ऐसा हो चुका है। प्रदेश के बहुत से अन्य स्थानों पर भी ऐसी ही व्यथा है। ऐसे में किसान खेतीबाड़ी न छोड़े तो क्या करे? शासन-प्रशासन ही इस संदर्भ में किसानों का मार्गदर्शन कर दें, तो बेहतर होगा। एक तरफ प्रदेश सरकार अन्य राज्यों की अपेक्षा प्रदेश के किसानों को नाममात्र सुविधाएं उपलब्ध करवा रही है, वहीं बीज की गुणवत्ता, आबंटन तथा अधिकारियों की मनमानी किसानों को नचाती रहेगी, तो किसान का कौन सा भला हो पाएगा। वहीं कृषि विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिकों का विज्ञान भी गांव-देहात के किसान की समझ और खेत से दूर ही रहा है।

जब तक अन्नदाता शोषित होता रहेगा, तब तक प्रदेश तरक्की को प्राप्त नहीं कर सकता। आवश्यकता है कृषि कार्यालय द्वारा मौसम के अनुरूप किसानों को प्रशिक्षण, उपकरण, खाद्य सामग्री व फसल उत्पादन की समग्र जानकारी निरंतर मुहैया करवाई जाए। इसके साथ-साथ किसान फीडबैक को दुरुस्त करके आगामी रणनीतियों का निर्धारण किया जाए। अन्यथा सरकारी योजनाएं कागजों की मोहताज ही रह जाएंगी तथा अधिकारी व कर्मचारी वर्ग भाई-भतीजावाद तक ही सीमित रह जाएगा और इस पूरे खेल में बंटाधार होगा बेचारे किसान की मेहनत का।

ई-मेल : ksthakur25@gmail.com


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