श्री विश्वकर्मा पुराण
हिरण्यकश्यप नाम का एक दैत्य हुआ था। यह दैत्य अपने राज्य में किसी को प्रभु की भक्ति नहीं करने देता था। इस दैत्य को ब्रह्माजी का वरदान मिला हुआ था। इससे वह किसी से न मर सके। उसने अपने राज्य में होम, हवन एवं यज्ञ आदि भी बंद करा दिए तथा ऋषि मुनियों और ब्राह्मणों को भी बहुत त्रास देता था…
युद्ध के मैदान में अर्जुन का रथ प्रभु ने हांका था। अपने अति प्रिय बालसखा सुदामाजी जब प्रभु के घर पदारे तब सामान्य मनुष्य की तरह उनका अतिथि की तरह विधिवत पूजन किया था। अत्यंत सम्मान से उनका स्वागत करके प्रभु उनके चरण दबाने को बैठ गए थे। सुदामा के द्वारा लाए हुए मुट्ठी भर चावल की भेंट से बहुत प्रसन्न हुए और प्रभु ने उस भेंट के बदले में सुदामा को बहुत सी संपत्ति देकर उसका पीडि़यों का दुख पल भर में नष्ट कर दिया था। इस तरह अपने भक्त तथा हमेशा स्मरण करने वाले संतों के लिए प्रभु ने स्वयं संकट में आकर भी उनके कार्य सिद्ध करने के यत्न किए हैं। उसके लिए प्रभु ने अनेक अवतार भी धारण किए हैं। इन देवादिदेव पुरुष ने हमसे द्वेष करने वाले दानवों के कुल में उत्पन्न हुए अपने भक्तों के लिए हमेशा बहुत कार्य किए हैं। ऋषि बोले, हे सूतजी! दैत्यों के कुल में भी प्रभु के भक्त उत्पन्न होते हैं। यह जानकर तो हमको ज्यादा आश्चर्य होता है। इसलिए आप उन भक्तों के विषय में भी हमसे कुछ कहिए। ऋषियों के ऐसे वचन सुनकर सूतजी बोले, हे ऋषियों पहले हिरण्यकश्यप नाम का एक दैत्य हुआ था। यह दैत्य अपने राज्य में किसी को प्रभु की भक्ति नहीं करने देता था। इस दैत्य को ब्रह्माजी का वरदान मिला हुआ था। इससे वह किसी से न मर सके। उसने अपने राज्य में होम, हवन एवं यज्ञ आदि भी बंद करा दिए तथा ऋषि मुनियों और ब्राह्मणों को भी बहुत त्रास देता था। उसने देवताओं के साथ भी अनेक बार युद्ध किया था एवं अजर-अमर ऐसे देवताओं को भी उसने हराया था। उस दुष्ट के त्रास से देवता भी भागते फिरते थे। फिर सामान्य प्राणी की तो बात ही क्या। इसी हिरण्यकश्यप के घर पुत्र का जन्म हुआ। वह पुत्र भगवान का परमभक्त था, उसका नाम प्रह्लाद था। दैत्य ने अपने पुत्र को भगवान की भक्ति छोड़ देने के लिए बहुत समझाया, परंतु प्रह्लाद अपनी बात से तनिक भी न बदला। उसने भगवान की भक्ति नहीं छोड़ी। इससे दैत्य बहुत कोपायमान हुआ। उसने अपने एक ही पुत्र को अनेक प्रकार के त्रास देना प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार प्रह्लाद को भगवान की भक्ति छोड़ने के लिए मजबूर करने लगा। परंतु प्रह्लाद ने इतने त्रास के बाद भी प्रभु की भक्ति नहीं छोड़ी। इसलिए हिरण्यकश्यप ने उसे मार डालने के उपाय शुरू किए। एक समय की बात थी दैत्य अपने पुत्र को भगवान का नाम छोड़ने के लिए धमका रहा था। जब बालक अपने पिता की दुष्टता छोड़ने तथा प्रभु में चित्त लगाने एवं संमार्ग से चलने की शिक्षा देता था। लड़का बाप को शिक्षा देता। वह हिरण्यकश्यप जैसा अहंकारी दैत्य किस तरह सहन करे। वह अकड़ कर उठा और कहने लगा तेरा भगवान कहां है बता, प्रह्लाद बोला, पिताजी मेरे प्रभु तो घट-घट में बसते हैं। वह तो सर्वत्र हैं जो मनुष्य सच्चे भाव से उन्हें देखने की इच्छा करे, उसे मेरे प्रभु अवश्य दिखते हैं।
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