साथ कितना पसंद है ?
साइकिल के दो पहिए…गंगा-यमुना सरीखा गठबंधन…अवसरवादी के बजाय विकासवादी गठबंधन…लेकिन गठबंधन और अखिलेश-राहुल की साझा सियासत पर मौन ‘नेताजी’ मुलायम सिंह यादव…कुछ तो मजबूरियां रही होंगी, यूं ही ‘नेताजी’ खामोश नहीं रहते। बाद में बोले भी, तो गठबंधन के खिलाफ। सपा के अखिलेश यादव और कांग्रेस के राहुल गांधी ने साझा प्रेस कान्फ्रेंस कर और करीब छह घंटे के रोड शो के जरिए यह दावा करने की कोशिश की है कि दोनों दलों का गठबंधन स्वाभाविक है। दोनों का मकसद फासीवादी ताकतों को हराना है। आरएसएस-भाजपा से देश को खतरा है। अखिलेश-राहुल का गले मिलना, गुलदस्ते भेंट करना, हाथ में हाथ देकर आपस में मजबूती की गरमाहट बिखेरना और उमड़ी भीड़ का अभिवादन…सब कुछ समझ में आता है। यह गठबंधन के मर्म की अभिव्यक्तियां हो सकती हैं, लेकिन संघ-भाजपा को देश-विरोधी या फासीवादी करार देना कौन-सा चुनावी मुद्दा है? भाजपा जनादेश हासिल करने के बाद केंद्र में सत्तारूढ़ है और लगभग आधे राज्यों में उसकी या सहयोगी दलों की सरकारें हैं। क्या ऐसे बड़बोलेपन पर लगाम नहीं लगाई जा सकती? अखिलेश और राहुल दोनों ही युवा नेता हैं। लोकसभा में रहते हुए दोनों के बीच निजी रिश्ते पनपे होंगे। दरअसल कांग्रेस पर यूपीए सरकार के दौरान 12-15 लाख करोड़ रुपए के घोटालों के जो ‘कलंक’ हैं, कमोबेश राहुल गांधी सीधे तौर पर उनके लिए दोषी नहीं ठहराए जा सकते। दूसरी ओर, मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपना पांच साल का कार्यकाल ‘बेदाग’ पूरा किया है। लिहाजा उत्तर प्रदेश के करीब 24 लाख वोटर, जो पहली बार वोट देंगे और उनके जैसी जमात इन दो युवा नेताओं के राजनीतिक सपनों, संकल्पों, लक्ष्यों और कार्यक्रमों पर बलिहारी जा सकती है। उसके मद्देनजर यह गठबंधन महत्त्वपूर्ण साबित हो सकता है। अलबत्ता ऐसे कई गठबंधन हम देख चुके हैं और उनकी टूट कर बिखरने की नियति का विश्लेषण भी कर चुके हैं। गले तब भी मिले जाते रहे, हाथों से हाथ तब भी जुड़ते रहे, कसमें-वादे भी खूब दोहराए गए और उन्होंने भी संघ-भाजपा को खूब गालियां दीं। नतीजतन भाजपा आज दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है और देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को जो भी पेशकश की जाती है, वह उसे लपकने को तैयार बैठी है। धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता के शब्द दोहराना एक फैशन बन गया है। बहरहाल अखिलेश-राहुल के जरिए सपा-कांग्रेस के गठबंधन की नियति खूबसूरत और सार्थक साबित हो, यह तभी साफ होगा, जब जनता चुनावों के जरिए तय करेगी कि दोनों का साथ उसे कितना पसंद है? गौरतलब यह है कि ‘नेताजी’ मुलायम सिंह ने गठबंधन के तहत प्रचार करने से इनकार कर दिया है। वह सपा को कांग्रेस-विरोधी मानते हैं। उनका तर्क है कि उन्होंने 2012 में कांग्रेस के बिना ही पूर्ण बहुमत हासिल किया था। जब अखिलेश सरकार ने विकास के खूब काम किए हैं, तो दूसरे के सहारे चुनाव क्यों लड़ना पड़ रहा है? दोनों ही दल भाजपा को सत्ता से दूर रखना चाहते हैं। यह दीगर है कि इस गठबंधन को कितने वोट मिलते हैं? मुसलमान वोट बैंक एकजुट होकर साथ आता है या कुछ हिस्सों में बंट जाता है? विशेषज्ञों का मानना है कि मुस्लिम एकमुश्त सपा-कांग्रेस के पक्ष में वोट नहीं करेंगे, क्योंकि अंसारी परिवार का भी मुसलमानों में अच्छा असर है। अंसारी परिवार के ‘कौमी एकता दल’ ने बसपा में विलय कर लिया है। मुसलमान रालोद गठबंधन को भी करीब 100 सीटों पर कुछ समर्थन देंगे। लिहाजा गठबंधन की 300 से अधिक सीटों पर जीत का दावा सवालिया है। बेशक अभी दौड़ में सपा ही सबसे आगे लग रही है। दरअसल यह गठबंधन उत्तर प्रदेश से तो शुरू हुआ है, लेकिन लक्ष्य 2019 पर है, बेशक अखिलेश इससे इनकार करते रहें। फिर भी हम उम्मीद करते हैं कि यह गठबंधन वाकई सकारात्मक साबित हो। गंगा-यमुना के इस संगम से प्रगति की सरस्वती निकले। युवा और बेरोजगार तबके का लाभ हो। दोनों नेता व्यावहारिक तौर पर दिखा पाएं कि उत्तर प्रदेश को यह साथ ही कितना पसंद है? अलबत्ता कांग्रेस और सपा के बीच कई बार गठबंधन हो चुके हैं। फर्क इतना था कि उन गठबंधनों में बूढ़े, स्वार्थी, चुके हुए नेता ज्यादा होते थे। सिर्फ सत्ता और कुछ ‘माल’ कमाने के लिए ही गठबंधन किए जाते थे। नैसर्गिक गठजोड़ कभी भी नहीं हो पाया। इस बार प्रयोग और चेहरे भिन्न हैं, लिहाजा समय के साथ ही पड़ताल की जानी चाहिए।
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