दिवाली के एक माह बाद मनाई जाती है बूढ़ी दिवाली

By: Jan 25th, 2017 12:05 am

बूढ़ी दिवाली मैदानी भाग में मनाई जाने वाली दिवाली से भिन्न है। बूढ़ी दिवाली दीपावली के ठीक एक मास बाद मार्गशीर्ष की अमावस्या को मनाते हैं।

इसमें खेले जाने वाले लोकनाट्य में खश-नाग युद्ध दिखाया जाता है…

प्रागैतिहासिक हिमाचल

वह भी वर्ष भर मूंज घास का कोई एक हजार गज लंबा व मोटा रस्सा बनाता रहता है। उत्सव के दिन उस रस्से के एक किनारे को ऊंची पहाड़ी पर किसी पेड़ के तने से बांधते हैं और दूसरे किनारे को दो-तीन फर्लांग दूर नीचे घाटी में। रस्सी के ऊपर वाले किनारे पर लकड़ी की एक गरारी लगाते हैं, जिस पर बेड़ा परिवार के उस व्यक्ति को, जिसे ग्राम देवता स्वीकार करना है, चढ़ा देते हैं। वह रस्से से लगी गरारी पर चढ़कर कठपुतली की तरह पहाड़ी पर से नीचे घाटी में उतरता है। नीचे लोग आभूषणों से सुसज्जित होकर तथा अपने-अपने ग्राम देवताओं की प्रतिमाओं को पालकी में उठाकर तमाशा देखने के लिए एकत्रित होते हैं। इस उत्सव में रस्सा नाग का प्रतिरूप तथा बेड़ा उस जाति का प्रतिनिधि माना जाता है। ग्राम देवता राम की भांति खशों का प्रतिरूप होता है। अब सरकार ने रस्से पर से आदमी के डालने की प्रथा बंद कर दी थी, क्योंकि आदमी का रस्से से नीचे गिरने का भय रहता है। परंतु प्रथा को निभाने के उद्देश्य से कई स्थानों पर आदमी के बजाय बकरे को डालते हैं। खशों का यहां की आदि जातियों पर विजय का संकेत हमें कुल्लू के एक ऐतिहासिक स्थल निरमंड में मनाई जाने वाली बूढ़ी दिवाली से भी मिलता है। यह दिवाली मैदानी भाग में मनाई जाने वाली दिवाली से भिन्न है। बूढ़ी दिवाली दीपावली के ठीक एक मास बाद मार्गशीर्ष की अमावस्या को मनाते हैं। इसमें खेले जाने वाले लोकनाट्य में खश-नाग युद्ध दिखाया जाता है। यह समझना मुश्किल नहीं कि हिमाचल में पहले आए खशों और उनके बहुत बाद आए उत्तर वैदिक आर्यों ने कोल, किरात और नाग जातियों को एक आत्मसम्मान युक्त स्वतंत्र जातियां न रहने देकर उन्हें डोम (शिल्पकार) जाति में परिणित कर दिया अथवा जंगलों में भागने के लिए मजबूर कर दिया। खशों और बाद में आए आर्यों में आसानी से समझौता हो गया, क्योंकि वे दोनों एक ही जाति की दो शाखाएं थीं। दोनों की संयुक्त शक्ति इन किरात और नागों को पूरी तरह दबा सकी होगी। अंत में खश, किन्नर, किरात और नागों के इस प्रदेश को खश देश बनाने में सफल हुए और हिमाचल के भिन्न-भिन्न भागों पर अपनी छाप छोड़ गए। कालांतर में यह जाति राजनीतिक कारणों और दूसरी छोटी-मोटी जातियों के घुस जाने के फलस्वरूप भिन्न-भिन्न भागों में बंट गई। खश जाति से निकले हुए कनैत और राव इतिहास प्रसिद्ध हैं। कनैत (कुलिंद) लोग खशिया नाम से भी प्रसिद्ध हैं। खशों की कुलिंद श्रेणी आर्यों के हिमाचल में प्रवेश करने से पूर्व व्यास-सतलुज से लेकर यमुना-गंगा तक के उद्गमों के पार रही थी। उसी श्रेणी के लोगों ने बाद में कुलिंद नामक राज्य की स्थापना की थी। इसे कुलिंदिनी भी कहते थे।

 


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