ब्रह्मा ने की वेदों में नृत्य कला की रचना
ब्रह्मा ने चारों वेदों से प्रमुख विशेषताएं चुनकर पांचवें वेद नृत्यकला का विकास किया। ऋग्वेद से गीति काव्य, यजुर्वेद से भाव मुद्रा, सामवेद से संगीत तथा अथर्ववेद से भावनात्मक एवं सौंदर्यात्मक अंग लेकर नाट्य वेद की रचना की गई…
हिमाचल में वीर रस से भरे लोकनृत्य
लोकांचलों में एकता, समानता, जनमनोरंजन प्रदान करने में लोक नृत्यों की भूमि सदैव ही महत्त्वपूर्ण रही है, क्योंकि लोकनृत्यों द्वारा जन अभिरुचि, मानव की सौंदर्य-उपासना, जनमानस की उमंगें, प्रकृति का रंग वैभव, ग्राम्यजीवन के संघर्ष और श्रम व मन की बंधनमुक्त उड़ान प्रतिबिंबित होती है। सरलता, संवेदना, सहकारिता, स्फूर्ति, रंग वैभव तथा शक्ति के संगम लोक नृत्यों में संपूर्ण रूप से प्रस्फुटित होते हैं। सामाजिक एवं सांस्कृतिक संचेतना के तात्विक गुणों की जैविक गरिमा भी प्रकट होती है। वास्तव में लोकनृत्य लोक भावना की प्रणात्मा है और इसमें लोक-संस्कृति चिरायु होकर कुसुमित होती है। चूंकि लोक नृत्यों एवं लोकनाट्यों में लोक कला की जीवंत सांसें होती हैं, इसलिए ये लोक कला के नैसर्गिंक प्रतिफल से सीधी पहचान कराते हैं। हिमाचल में लोक नृत्यों के ऋतु-पर्व, महोत्सव, त्योहारों आदि अवसरों पर आयोजन की परंपरा प्रारंभ से ही रही है। अतः लोक नृत्यों को जीवित रखने और उनको विकास की गति देने का श्रेय इन्हीं पर्वों-महोत्सवों को है। ऐसे अवसरों पर लोक नृत्य आयोजित किए जाते हैं। उनकी प्रकृति सांस्कृतिक विकास, कृषि उन्नयन और धर्म संचेतना आदि से संश्लिष्ट होती है। भारत में नृत्यों का क्रमबद्ध इतिहास निर्मित करना अत्यंत कठिन है। नृत्यों के अनेक रूपों के उदाहरण हमें पुरातत्त्व अवशेषों, मुद्राओं, इतिहास, साहित्यकारों, कलाकारों और सम्राटों की वंशावलियों, मूर्ति कला और संगीत में उपलब्ध होते हैं। भारत में नृत्य कला मिथक और पौराणिक कथाओं का असाधारण सम्मिश्रण है और इसी से भारतीय जनमानस को जनजीवन और धर्म में इसके महत्त्वपूर्ण स्थान के प्रमाण मिलते हैं। प्रायः नृत्य को भारत में दिव्य उत्पत्ति से जोड़ा जाता है। आख्यानों में वर्णन मिलता है कि एक बार देव इंद्र ने ब्रह्मा से प्रार्थना की कि वह देवताओं के योग्य मनोरंजन की रचना करें, ताकि साधारण जन की पहुंच भी वैदिक प्रजा तक हो सके। ब्रह्मा ने चारों वेदों से प्रमुख विशेषताएं चुनकर पांचवें वेद नृत्यकला का विकास किया। ऋग्वेद से गीति काव्य, यजुर्वेद से भाव मुद्रा, सामवेद से संगीत तथा अथर्ववेद से भावनात्मक एवं सौंदर्यात्मक अंग लेकर नाट्य वेद की रचना की गई। इसके बाद ब्रह्मा ने भरत मुनि को विज्ञान और कला में दक्ष बनाकर नृत्य को लोकप्रिय बनाने का कार्य सौंपा, लेकिन इतिहासकारों और नृत्यकला समीक्षकों की धारणा है कि स्थानीय आंचलिक लोकनृत्य ही धीरे-धीरे समय और सभ्यता के विकास के साथ-साथ विकसित होकर श्रेष्ठ परिष्कृत चिरंजीवी नृत्य शैली के रूप में उभर कर सामने आए।
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