महागीता अष्टावक्र
यदि देहं पृथक्कृत्य चित्ति विश्राम्य तिष्ठसि।
अधुनैव सुखी शांतः बंधमुक्तो भविष्यसि।।
अष्टावक्र जनक से कहते हैं कि यदि तू स्वयं को शरीर से पृथक करके चैतन्य में स्थित है तो अभी सुखी, शांत व बंधनमुक्त हो जाएगा। इस सूत्र में अष्टावक्र द्वारा राजा जनक को दिया गया परमोपदेश है। अष्टावक्र कहते हैं कि जनक! यदि तू स्वयं को शरीर से पृथक मानकर आत्मभाव में स्थित हो जाता है तो अभी सुखी, शांत व मुक्त हो जाएगा। इसमें क्षणमात्र का भी विलंब नहीं लगेगा। इसके लिए तुझे केवल यही भाव मन में लाना है कि तू यह शरीर नहीं है, न भोक्ता है और न कर्ता। तू केवल द्रष्टा है।
तू वह है जो इस शरीर में चैतन्य रूप से बैठा है। मन या चित्त को बस उसी में स्थिर करना है। इससे संसार के बंधनों, ग्रंथियों का विच्छेदन हो जाएगा और तू परमानंद को प्राप्त होकर मुक्त हो जाएगा। अष्टवक्र ने राजा जनक को निर्विकल्प समाधि का अनूठा साधन बतलाया है। अष्टावक्र की दृष्टि में आत्मबोध हो जाने पर भी यदि शरीर से संबंध बना रहा तो पुनः जन्म लेने की संभावना बलवती हो जाती है। यह सत्य है कि आत्मबोध के लिए वैराग्य आवश्यक है, लेकिन आत्मबोध हो जाना ही पर्याप्त नहीं है। सतत् आत्मा में लौ लगाना भी परम आवश्यक है। तभी मुक्ति संभव है। पतंजलि आदि ने अष्टांग योग में एक लंबी प्रक्रिया के बाद अंतिम अवस्था को समाधि बताया है। जबकि अष्टावक्र की दृष्टि में समाधि तुरंत लग जाती है। इसके लिए योग, साधना, जप, तप आदि की आवश्यकता नहीं होती।
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