हिमाचली पुरुषार्थ : कॉफी की विरासत को बचाते विक्रम

By: Jan 11th, 2017 12:07 am

डा. विक्रम शर्मा ने सबसे पहले ट्रायल बेस पर कॉफी का उत्पादन वर्ष 1999 में शुरू किया था। जिसके बाद उनसे प्रेरित होकर कई किसानों व बागबानों ने कॉफी उत्पादन में दिलचस्पी भी दिखाई है, लेकिन अभी तक जिस स्तर पर यहां पर कॉफी उत्पादन होना चाहिए, उस स्तर पर नहीं हो रहा है…

हिमाचली पुरुषार्थ : कॉफी की विरासत को बचाते विक्रमकर्नाटक की तर्ज पर अब हिमाचल प्रदेश भी कॉफी के लिए दुनिया में मशहूर होगा। सूबे के मध्य हिमालय क्षेत्र के जिलों बिलासपुर, हमीरपुर, ऊना, कांगड़ा सोलन व सिरमौर के निचले क्षेत्रों में कॉफी व्यापक स्तर पर उगाने के लिए कॉफी मैन डा. विक्रम शर्मा प्रयासरत हैं। डा. विक्रम शर्मा का जन्म 1971 में घुमारवीं के मरहाना में हुआ। इनकी प्ररंभिक शिक्षा प्राथमिक स्कूल मरहाना में हुई। डा. विक्रम ने बीएससी डिग्री कालेज बिलासपुर में की। उच्च शिक्षा पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ से हासिल की। आर्गेनिक केमिस्ट्री में पीएचडी करने के बाद केंद्रीय औषधीय संस्थान लखनऊ में वैज्ञानिक की नौकरी ज्वाइन की। कॉफी बोर्ड के सदस्य के रूप में भारत सरकार ने कॉफी बोर्ड के निदेशक मंडल पद पर 15 दिसंबर 2015 में मनोनीत किया। उनके अनुसार हिमाचल प्रदेश में बोर्ड के रिसर्च तथा ट्रायल में सफल होने के बाद कॉफी की चंद्रागिरी व एस-9 प्रजाति कामयाब है। जिन्हें यहां के किसान व बागबान उगाकर अपनी आथिक स्थिति को भी सुदृढ़ कर सकते हैं। डा. विक्रम शर्मा ने सबसे पहले ट्रायल बेस पर कॉफी का उत्पादन वर्ष 1999 में शुरू किया था। जिसके बाद उनसे प्रेरित होकर कई किसानों व बागबानों ने कॉफी उत्पादन में दिलचस्पी भी दिखाई है, लेकिन अभी तक जिस स्तर पर यहां पर कॉफी उत्पादन होना चाहिए, उस स्तर पर नहीं हो रहा है। जिसके लिए कॉफी मैन डा. विक्रम शर्मा प्रदेश सरकार, कृषि विभाग, लोगों, किसानों व बागबानों से सहयोग की अपेक्षा करते हैं। ताकि यहां के किसान भी कॉमर्शियल फसल कॉफी उगाकर अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ कर सकें। डा. विक्रम शर्मा के मुताबिक मध्य हिमालय क्षेत्र में कॉफी उत्पादन की अपार संभावनाएं हैं। उनके मुताबिक उन्होंने ट्रायल बेस पर हिमाचल प्रदेश में कॉफी की सात वेरायटियों पर रिसर्च व ट्रायल किया है। जिनमें से कॉफी की चंद्रागिरी व एस-9 कामयाब है। डा. विक्रम ने कॉफी की वेरायटियां हिंदोस्तान के अलावा विदेशों से भी मंगवाई थीं। लेकिन, यहां पर सबसे अधिक चंद्रागिरी वैरायटी कामयाब है।

उधर, डा. विक्रम शर्मा के मुताबिक उन्हें हिमाचल प्रदेश में सरकार व कृषि विभाग से पर्याप्त सहयोग नहीं मिल पा रहा है। कृषि विभाग किसानों व बागबानों को पांच या दस पौधे दे रहा है। जबकि यह वाणिज्यिक खेती होने के कारण व्यापक स्तर पर उगाना ही कामयाबी दे सकता है। डा. विक्रम शर्मा ने बताया कि तीन रिसर्च संस्थान होने के बावजूद हिमाचल के निचली क्षेत्रों के किसानों व बागबानों के लिए आज तक कौन सी कॉमर्शियल फसल विकसित की है। उन्होंने कहा कि क्षेत्र के किसानों को कॉफी के बीज इस सत्र में उपलब्ध करवाए जाएंगे। प्रदेश के निचले हिस्से में पायलट प्रोजेक्ट के तहत किसानों- बागबानों को उन्नत किस्म के कॉफी बीज उपलब्ध करवाए जाएंगे तथा इसके साथ प्रदेश के किसानों को उगाने की तकनीक के साथ प्रोसेसिंग व बाजार में उचित मूल्यांकन की भी जानकारी उपलब्ध करवाई जाएगी। हिमाचल प्रदेश के निचले हिस्से में जंगली जानवरों व बंदरों का कहर कृषि व बागबानी पर बदस्तूर जारी है, जिसके कारण किसान व बागबान अपनी कृषि छोड़ कर छोटे- मोटे रोजगारों पर अपना गुजर- बसर करने के लिए मजबूर हो चुके है। कॉफी के सफल ट्रायल हिमाचल प्रदेश में हो चुके हैं। डा. विक्रम ने अन्य वाणिज्यिक कृषि व बागबानी क्षेत्रों पर जोर देते हुए कहा कि मौजूदा प्रदेश सरकार को इस तरफ ध्यान देने के लिए कहा है, जिससे प्रदेश कृषि क्षेत्र में मुकाम हासिल कर सके।

– राजकुमार सेन, घुमारवीं

जब रू-ब-रू हुए…

फर्ज निभाना हो, तो कॉफी पीने से उगाना आसान है…

कॉफी तक आप कैसे पहुंचे ?

भ्रमण पर चिकमंगलूर गया था, तो पाया कि वातावरण हिमाचल से एक दम मिलता- जुलता है। तभी मन में अपने क्षेत्र का ख्याल आया क्यों न हिमाचल प्रदेश में इसे उगाया जाए।

क्या कॉफी पीने से उगाना आसान है ?

अगर क्षेत्र, प्रदेश, देश की आर्थिक व सामाजिक परिस्थितयों को बदलना हो और एक जिम्मेदार नागरिक का फर्र्ज निभाना हो, तो पीने से उगाना आसान है।

कॉफी के लिए हिमाचल कितना उपयुक्त ?

पिछले 16 वर्षों से मैंने अपनी बंजर जमीन पर कॉफी उगा कर साबित कर दिया है कि कॉफी हिमाचल प्रदेश के निचले क्षेत्र में पूरी तरह से उपयुक्त है। कॉफी बोर्ड ऑफ इंडिया की रिसर्च टीम भी कॉफी की प्लांटेशन के लिए इसे उपयुक्त मान चुकी है।

आर्थिक तौर पर कॉफी के पौधे किस तरह किसान-बागबान के लिए उपयोगी होंगे ?

कॉफी एक वाणिज्यिक अंतरराष्ट्रीय फसल है। भारत पूरी दुनिया का 60 फीसदी कॉफी उत्पादन करता है। यदि कॉफी को सही तरीके से हिमाचल प्रदेश के किसान से उगवाया जाता है, तो यह फसल हिमाचल प्रदेश के निचले हिस्से की बंजर पड़ी भूमि से ग्रीन गोल्ड उगलेगी। जिससे क्षेत्र के किसान व बागबान आर्थिक व सामाजिक रूप से स्वाबलंबी हो सकेंगे। कॉफी के लिए हिमाचल का निचला हिस्सा पूर्णतया उपयुक्त है, जो साबित भी हो चुका है। बस जरूरत है सही एग्रो-टेक्नोलॉजी के साथ सही बीज का चुनाव।

आवश्यक जानकारियां कहां से उपलब्ध होंगी ?

आवश्यक जानकारियों के लिए कॉफी बोर्ड की रिसर्च टीम के साथ मेरे अनुभव किसानों के लिए उपलब्ध हैं। पिछले 16 वर्षों से मंैने हर प्रकार की कॉफी की किस्म पर शोध किया है, जो किसानों व बागबानों के लिए उपलब्ध हैं।

क्या आपके संपर्क में कोई विभाग या प्रदेश के कृषि एवं बागबानी विवि ने मदद की ?

मेरे साथ संपर्क सिर्फ कॉफी बोर्ड ऑफ इंडिया ने ही किया था, वह भी मीडिया द्वारा कॉफी पर प्रकाशित विभिन्न समाचारों द्वारा । हिमाचल प्रदेश सरकार की तरफ से पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल जी ने भी निजी तौर पर मेरे खेतों को विजिट किया था, परंतू मौजूदा सरकार ने व कृषि विभाग ने कोई संपर्क नहीं किया और न ही किसानों बागबानों को जागरूक किया। कॉफी बोर्ड द्वारा भेजे गए बीज से उत्पादित पौध को भी बिना तरीके से लोगों को बांटा गया। जिस तरह मिर्च की पौध लगाई जाती है, लोगों ने उसे लगाया और पिछले चार सालों से इस प्रोजेक्ट को विपरीत दिशा में धकेलने की कोशिश की गई।

कॉफी बोर्ड या किसी संगठन से सहयोग या मार्गदर्शन ?

कॉफी बोर्ड द्वारा कुछ दिन पहले हिमाचल प्रदेश के किसानों को प्रशिक्षण भ्रमण करवाया गया। जिसमें हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा, ऊना, हमीरपुर व बिलासपुर से नौ लोगों को प्रशिक्षित किया गया। परंतु हिमाचल सरकार ने भ्रमण पर गए इन किसानों को दिल्ली में रुकने की व्यवस्था करने से भी इनकार कर दिया, जिससे मौजूदा सरकार का क्षेत्रवाद का रुख स्पष्ट होता है।

कॉफी के अलावा हिमाचली जमीन की काबिलीयत बढ़ाने को क्या-क्या उगाया जा सकता है?

हिमाचल प्रदेश के निचले इलाके कॉफी के अलावा आवोकैडो या मक्खन फल, दालचीनी, ग्रेपरूट, अंजीर, पिस्ता तथा हींग के लिए काफी उपयुक्त है। इन फसलों को वाणिज्यिक फसलों के तौर पर उगाया जा सकता है।

हिमाचल के कृषि एवं बागबानी विश्वविद्यालयों के अनुसंधान को आप किस तरह देखते हैं और क्या इसका किसान-बागबान से ताल्लुक स्थापित हुआ?

हिमाचल प्रदेश में दो विश्वविद्यालय हैं, जिसके साथ एक इंस्टीच्यूट ऑफ हिमालयन बायो टेक्नोलॉजी पालमपुर में स्थित है। परंतु आज तक निचले क्षेत्र के लिए अनुसंधान के नाम पर किसी भी संस्थान का कोई रोल परिपक्वता की दृष्टि से नजर नहीं आया। मात्र यही कहा गया कि इस क्षेत्र में यह नहीं हो सकता है, वो नहीं हो सकता। निचला क्षेत्र वाणिज्यिक फसलों के लिए पूर्णतया उपयुक्त है। जिसमंे कॉफी के अलावा आवोकैडो, ग्रेपरूट, दालचीनी व पिस्ता इत्यादि अंतरराष्ट्रीय स्तर की फसलें काफी सफल हैं, जिनके मैंने ट्रायल्स या तो कर लिए हैं या जारी हैं।

हिमाचली का किसान किस वजह से पिछड़ रहा हैै?

हिमाचल के किसान व बागबान प्रदेश सरकार के क्षेत्रवाद व यहां पर स्थापित दो-दो विश्विद्यालयों के साथ एक हिमालयन बायो टेक्नोलॉजी संस्थानों का निचले क्षेत्र के लिए कोई भी शोध न करना किसानों को पिछड़ेपन व कृृृषि को छोड़ने पर मजबूर कर रहा है।

हिमाचली लोग खेती क्यों छोड़ रहे हैं और इस तरफ कैसे लौटें युवा ?

प्रदेश में कृषि के नाम पर करोड़ों रुपए का अनुदान प्रदेश सरकार को विभिन्न एजेंसियों द्वारा मिलता रहा, परंतु अपने प्रदेश में अनुसंधान को दरकिनार करके बीज व पौधे पड़ोसी राज्यों से मंगवाकर, उन्हें किसानों में बांटकर तथा वही बीज व पौधे यहां की जलवायु परिवर्तन को न झेलते हुए किसानों को बर्बादी की तरफ धकेलने के लिए काफी रहे। कारण पारंपरिक फसलें मौसम की मार से खत्म हुईं तथा नए सिरे से किसानों द्वारा किए गए पौध रोपण बीज व पौध यहां की धरती के अनुकूल न होते हुए वातावरण को न झेल पाए। इन खामियों को दूर करने से युवा इस तरफ मुड़ेंगे।

बहरहाल बंदरों के सामने किसान-बागबान कैसे बचे?

किसानों को उनकी कृषि बंदरों व जंगली जानवरों से सुरक्षित रखने के लिए प्रदेश व भारत सरकार को उन कृषि व बागबानी उत्पादों पर विशेष ध्यान देना चाहिए, जिन्हें ये जानवर खाते नहीं या नुकसान नहीं पहुंचाते। कृषि क्षेत्र में अनुसंधान किसानों के खेतों में होता है न कि लैबोरेटरीज में। इस विषय में चर्चा जरूर होनी चाहिए।

हिमाचल को राष्ट्रीय -अंतरराष्ट्रीय तौर पर किस राज्य या देश का कृषि-बागबानी मॉडल अपनाना होगा?

हिमाचल प्रदेश को जर्मन, हॉलैंड, इजरायल व न्यूजीलैंड से सीख लेनी चाहिए। राज्यों में आंध्र प्रदेश की जनजातीय क्षेत्र, तमिलनाडु व कर्नाटक मॉडल के तौर पर हिमाचल प्रदेश के किसानों के लिए बहुत उपयुक्त हैं।


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