परवरिश के आधुनिक प्रश्न
( ललित गर्ग लेखक, स्वतंत्र पत्रकार हैं )
हम अपनी स्वछंदता के लिए बच्चे को पैदा होते ही स्वतंत्र बना देना चाहते हैं। उसके अधिकारों और करियर की बात तो है, मगर उसकी भावनात्मक मजबूती की बात कहीं होती ही नहीं। हमारे यहां भी पश्चिमी देशों की भांति इस विचार को किसी आदर्श की तरह पेश किया जाने लगा है कि बच्चे का अलग कमरा होना चाहिए, उसे माता-पिता से अलग दूसरे कमरे में सोना चाहिए। मगर क्या सिर्फ महंगे खिलौनों, कपड़ों, सजे-सजाए कमरे और सबसे बड़े स्कूल में पढ़ाने भर से बच्चे का मानसिक और भावनात्मक पोषण हो सकता है…
समाज में बच्चों की स्कूल जाने की उम्र लगातार घटती जा रही है, बच्चों के खेलने की उम्र को पढ़ाई-लिखाई में झोंका जा रहा है, उन पर तरह-तरह के स्कूली दबाव डाले जा रहे हैं। अभिभावकों का यह एक तरह का दिखावटीपन है, जो स्टेटस सिंबल के नाम पर बच्चों की कोमलता एवं बालपन को लील रहा है। इसके आगे चलकर बड़े घातक परिणाम होने वाले हैं। इससे परिवार परंपरा भी धुंधली हो रही है। तने के बिना शाखाओं का और शाखाओं के बिना फूल-पत्तों का अस्तित्व कब रहा है? हम उड़ान के लिए चिडि़या के पंख सोने में मढ़ रहे हैं, पर यह सोच ही नहीं रहे कि यह होड़ पर काटने के समान है। कामकाजी महिलाओं की बढ़ती व्यस्तता ने बच्चों के जीवन पर सर्वाधिक दुष्प्रभाव डाला है। एक और घातक स्थिति बन रही है, जिसमें हम दुधमुंहे बच्चों से उन्नत करियर की अपेक्षा करने लगे हैं। इतना ही नहीं, हम अपनी स्वतंत्रता और स्वछंदता के लिए बच्चे को पैदा होते ही स्वतंत्र बना देना चाहते हैं। उसके अधिकारों और करियर की बात तो है, मगर उसकी भावनात्मक मजबूती की बात कहीं होती ही नहीं है। हमारे यहां भी पश्चिमी देशों की भांति इस विचार को किसी आदर्श की तरह पेश किया जाने लगा है कि बच्चे का अलग कमरा होना चाहिए, उसे माता-पिता से अलग दूसरे कमरे में सोना चाहिए। मगर क्या सिर्फ महंगे खिलौनों, कपड़ों, सजे-सजाए कमरे और सबसे बड़े स्कूल में पढ़ाने भर से बच्चे का मानसिक और भावनात्मक पोषण हो सकता है? मां से बच्चे को जो मानसिक संबल एवं भावनात्मक पोषण मिलता रहा है, क्या वह प्ले स्कूलों से संभव है?
दो-तीन वर्ष की उम्र के बच्चों पर लादा जा रहा शिक्षा का बोझ एक ऐसी विकृति को रोपना है, जिससे संपूर्ण पारिवारिक व्यवस्था के साथ-साथ एक संपूर्ण पीढ़ी लड़खड़ाने वाली है। यह बचपन पर बोझ है, इसका प्रमाण इससे अधिक क्या हो सकता है कि अस्पतालों में आधी से अधिक भीड़ बच्चों की होती है। आंखों पर मोटे-मोटे चश्मे लग जाते हैं। सिर दर्द की शिकायत बढ़ती जा रही है। पढ़ाई को लेकर बच्चे लगातार तनाव में रहते हैं। जितना अधिक दबाव होगा, उतने ही बच्चे और किशोर मानसिक रूप से परेशान और बीमार होंगे, उतना ही अधिक आत्महत्या जैसे विचार आएंगे। इसके लिए ठोस उपाय शीघ्र ही खोजने होंगे। व्यावसायिकता और अति महत्त्वाकांक्षाओं के जाल में फंसकर हम कहीं नई पीढ़ी को खो न दें। इस नई पीढ़ी को संभालना हमारे लिए अत्यंत आवश्यक है। परिवार के बदलते स्वरूप, माताओं के कामकाजी बन जाने और बढ़ती व्यस्तताओं के बीच अब उनके बच्चों के स्कूल जाने की उम्र पांच साल या इससे ऊपर नहीं रही, बल्कि शहरों-महानगरों में यह घट कर महज तीन साल रह गई है। तीन साल ही नहीं, कुछ मामलों में तो यह और भी कम हो गई है। विडंबनापूर्ण तो यह है कि कुछ सालों पहले तक तीन से छह साल तक के बच्चों के लिए प्ले या प्री स्कूल की व्यवस्था प्रचलित हुई थी, जिसमें इतने छोटे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई न होकर उनके खेलने-कूदने एवं मानसिक विकास के लिए उनसे तरह-तरह के उद्यम करवाए जाते थे। लेकिन देखने में आ रहा है कि प्ले एवं प्री स्कूलों के लिए भी बाकायदा पाठ्यक्रम बन गए हैं और इसके बढ़ते दायरे का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ सालों के भीतर इसने एक बड़े कारोबार का रूप ले लिया है। न केवल भव्य-आलीशान प्ले एवं प्री स्कूल बन गए, बल्कि उनके पाठ्यक्रम भी आकर्षक एवं खर्चीले बनने लगे हैं। फीस के नाम पर मोटी रकम की वसूली से लेकर बच्चों के साथ बर्ताव तक के मामले में अकसर कई तरह की गड़बडि़यां सामने आती रही हैं। इसके अलावा कई जगहों पर सिर्फ एक कमरे या किसी बेसमेंट तक में ऐसे स्कूल चलाए जाते हैं।
क्या वास्तव में हम बच्चों से उनका बचपन छीन रहे हैं? आधुनिकता और विलासिता की चकाचौंध में बच्चों को कच्ची उम्र से ही अपने अनुसार ढालने की प्रक्रिया और टीवी, मोबाइल, कम्प्यूटर जैसे आधुनिक माध्यमों के प्रभाव के चलते बचपन कहीं गुम होता जा रहा है। हम अपने बच्चों को एक रोबोट जैसा बनाते जा रहे हैं, जिसका रिमोट हमारे हाथ में होता है। कहीं यही कारण तो नहीं हैं कि कच्ची उम्र से ही आत्महत्या करने की भावना जन्म लेने लगी है। यह वह दौर है, जब हर तरह के सर्वे हो रहे हैं, अध्ययन हो रहे हैं, शोध हो रहे हैं, लेकिन कोई शोध इस बचपन के बोझ को कम करने के लिए हो रहा है क्या? क्या ऐसा नहीं लग रहा कि बचपन को हमने बहुराष्ट्रीय कंपनियों और धन-दौलत के लालची व्यापारियों के हाथों में सौंप दिया है? विकास और आधुनिकता के नाम पर हमारे चारों ओर जो घेरा बन गया है, वह एक चक्रव्यूह की तरह हो गया है और हम अभिमन्यु की भांति इसमें प्रवेश तो कर गए हैं, परंतु बाहर निकलने का रास्ता हमारे पास नहीं है। कोई अर्जुन या कृष्ण भी हमारे पास नहीं है, जो हमारा मार्ग प्रशस्त कर सके। यहां मुद्दा हमारी बाल पीढ़ी का है, जो बेहद संवेदनशील है। ऐसे में बचपन के बरक्स अनायास ही जगजीत सिंह की गुनगुनाई गजल बरबस जुबां पर आ जाती है, ‘यह दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो वो बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी’ इसका स्मरण और इसके बोल का आज भी दिल को नम कर जाना दर्शाता है कि बचपन से अनमोल कुछ भी नहीं। पर इस बहुमूल्य बचपन को पढ़ाई का बोझ, असंवेदनशील होते रिश्ते और आज की मशीनीकृत जीवनशैली लीलती जा रही है।
इन प्ले स्कूलों पर नियंत्रण या निगरानी के लिए अब तक कोई सरकारी संस्थागत व्यवस्था नहीं है, इसलिए इनके संचालकों की मनमानी की शिकायतें लगातार बढ़ती जा रही हैं। अब देर से ही सही, राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने इन स्कूलों की खातिर बाकायदा दिशा-निर्देश जारी किया है। इसके तहत अब किसी भी प्ले या प्री स्कूल को चलाने के लिए मान्यता अनिवार्य होगी। इसमें संबंधित प्राधिकार से अनुमति, बीस बच्चों पर एक शिक्षक, देखभाल के लिए सहायक-सहायिका, इमारत में चारदीवारी, रोशनदान, बेहतर बुनियादी सुविधाएं, सुरक्षा-व्यवस्था और सीसीटीवी जैसी शर्तें शामिल हैं। बच्चों को किसी भी तरह का शारीरिक या मानसिक दंड देना अपराध होगा। वहां काम करने वाले सभी कर्मचारियों को न्यूनतम योग्यता और पुलिस जांच की तय प्रक्रिया से गुजरना होगा। इन प्रावधानों के साथ-साथ न्यूनतम उम्र का भी निर्धारण होना अपेक्षित है। इस पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए और विशेषज्ञों की एक कमेटी बनाकर उनसे राय ली जानी चाहिए कि प्ले स्कूलों में प्रवेश के लिए उम्र क्या होगी? इन स्कूलों में पाठ्यक्रम के बजाय शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए खेलकूद के साथ-साथ अन्य उपक्रम होने चाहिए। कैसी विचित्र स्थिति बनती जा रही है, बच्चे का जन्म आज के माता-पिता के सुख-साधन में रोड़ा बनने लगा है। उनकी आजादी में बाधा बनता है, इसलिए वे उसे भार की तरह मानते हैं। उसकी जिम्मेदारी उठाने से भागते हैं, जल्दी से जल्दी स्कूल भेजना चाहते हैं या आया के हवाले कर देना चाहते हैं। सोचिए कि अगर माता-पिता ही बच्चे के बारे में ऐसा सोच रहे हैं, तो बच्चा कितना अकेला होगा? हो न हो, आज जितनी असंवेदनशीलता हमारे चंहुओर पसर रही है। उसके नेपथ्य में बचपन का असमय समाप्त होना, सामाजिक संरचना का शिथिल होना है। बचपन है तो भविष्य है, बाल मन की इस बोझिल पढ़ाई और उससे मुक्ति की मुहिम जरूरी है, ताकि बच्चा मुस्कुराने से महरूम न हो जाए।
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