कोटला कलां में…‘मेरी बिगड़ी बना दे ओ नंदलाल’

ऊना —  भगवान जब कृपा करते हैं तो संत मिलते हैं और संत जब कृपा करते है तो भगवान मिलते हैं। यह प्रवचन जिला मुख्यालय से करीब दो किलोमीटर दूर बाबा बाल आश्रम श्री राधाकृष्ण मंदिर कोटला कलां में चल रही श्रीमद्भागवत कथा के विराम दिवस पर शांतिदूत कथावाचक देवकीनंदन जी महाराज ने कहे। कथा संपन्न होने के साथ ही आश्रम में चल रहा आस्था व भक्ति रस का विराट वार्षिक महापर्व भी श्रद्धापूर्वक संपन्न हुआ। वार्षिक महासम्मेलन के अंतिम दिन श्रद्धालुओं का ऐसा जनसैलाब उमड़ा कि कथा पंडाल भी श्रद्धालुओं के लिए कम पड़ गया। राष्ट्रीय संत बाबा बाल जी महाराज ने विधिवत्त रूप से ब्यास पूजन किया। इसके उपरांत श्रीमद्भागवत कथा की आरती से कथा का शुभारंभ किया गया। देवकीनंदन जी महाराज ने तुम करो श्याम संग प्यार, अमृत बरसेगा.., मुझे रास आ गया है तेरे दर पे सिर झुकाना, तुझे मिल गया पुजारी मुझे मिल गया ठिकाना.., गोबिंद जय-जय-गोपाल जय-जय.., मेरी बिगड़ी बना दे ओ नंदलाल.., लागी छूटे न अब तो सनम, चाहे जाए जिया तेरी कसम.., मीठे रस से भरेयो री राधा रानी लागे, महारानी लागे.., मुकुट सिर मोर का, मेरे चित्तचोर का.., इत्यादि भजन गाकर श्रद्धालुओं को झूमने पर विवश कर दिया। शांतिदूत देवकीनंदन ठाकुर ने कहा कि मौत पल-पल हमारी तरफ बढ़ रही है। यक्ष व धर्मराज के बीच संवाद के प्रसंग का उल्लेख करते हुए देवकीनंदन ही महाराज ने कहा कि यक्ष ने जब धर्मराज से पूछा कि संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है तो धर्मराज ने उत्तर दिया कि हम अपने ही लोगों को अपने ही हाथों से श्मशान भूमि में अग्नि के हवाले करते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि मृत्यु ही अंतिम सच्चाई है। हमारी मृत्यु को केवल श्रीमद्भागवत कथा श्रवण ही सरल व सुंदर कर सकती है। देवकीनंदन जी महाराज ने बताया कि भौमासुर राक्षस के आतंक से व्रज की कन्याएं आतंकित थीं। भौमासुर की कैद से आजाद करने के लिए कृष्ण भगवान ने राक्षस का वध किया तथा सभी कन्याओं को अपने घर जाने के लिए कहा, लेकिन उन कन्याओं के पास गलत रास्ते पर जाने या फिर आत्मदाह करने के विकल्प बचे थे। इसको देखते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने 16,108 कन्याओं के साथ विवाह कर उनके मान-सम्मान की रक्षा की। धर्म की रक्षा के लिए भगवान हमेशा आगे आते हैं। हमें अपने बच्चों को भारतीय संस्कारों की शिक्षा देनी चाहिए। देवकीनंदन जी महाराज ने भगवान श्रीकृष्ण व सुदामा की मित्रता का प्रसंग सुनाते हुए कहा कि मित्र सुमित्र होना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण व सुदामा की मित्रता का जिक्र करते हुए कहा कि जब छात्र जीवन में भगवान श्रीकृष्ण गुरुकुल जा रहे थे तो सुदामा के पांव में चुभे कांटे को उन्होंने अपने मुख से निकाला। वहीं कालांतर में द्वारिकाधीश बनने पर जब सुदामा अपनी पत्नी सुशीला के कहने पर भगवान से मिलने द्वारिका गए। सुदामा के आने की खबर मिलने पर भगवान श्रीकृष्ण नंगे पांव ही द्वार पर उन्हें लेने जा पहुंचे। सुदामा की भेंट स्वरूप लाई चावलों की सौगात के बदले उन्हें दो लोकों की संपत्ति सौंपी। धन-दौलत, संपत्ति व पद वैश्य की भांति होते हैं, जिनका कोई स्थायी मालिक नहीं होता, इन पर अभिमान नहीं करना चाहिए।